Edited By Niyati Bhandari,Updated: 11 Mar, 2020 08:50 AM
भक्ति परम्परा में अपना खास स्थान रखने वाले संत तुकाराम महाराज ने संसार के सभी सुख-दुखों का सामना साहस से कर अपनी वृत्ति विट्ठल चरणों में स्थिर की। संत तुकाराम महाराज का जन्म पुणे के निकट देहू
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Sant Tukaram Jayanti: भक्ति परम्परा में अपना खास स्थान रखने वाले संत तुकाराम महाराज ने संसार के सभी सुख-दुखों का सामना साहस से कर अपनी वृत्ति विट्ठल चरणों में स्थिर की। संत तुकाराम महाराज का जन्म पुणे के निकट देहू गांव में हुआ था। पिता जी बोल्होबा तथा मां कनकाई के सुपुत्र तुकाराम महाराज का उपनाम अंबिले था। उनके कुल के मूल पुरुष विश्वंभर बुवा महान विट्ठल भक्त थे। उनके कुल में पंढरपुर की यात्रा करने की परम्परा थी। सावजी उनके बड़े तथा कान्होबा छोटे भाई थे। उनकी बाल्यावस्था सुख में व्यतीत हुई थी। बड़े भाई सावजी विरक्त वृत्ति के थे। इसलिए घर का पूरा उत्तरदायित्व तुकाराम महाराज पर था। पुणे के आप्पाजी गुलवे की कन्या जिजाई (आवडी) के साथ उनका विवाह हुआ था। तुकाराम महाराज को उनके सांसारिक जीवन में अनेक दुखों का सामना करना पड़ा। 17-18 वर्ष की आयु में उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई तथा बड़े भाई विरक्ति के कारण तीर्थयात्रा पर चले गए। उन्हें भीषण अकाल का भी सामना करना पड़ा। अकाल में उनके बड़े पुत्र की मृत्यु हो गई तथा घर का पशुधन नष्ट हो गया।
संत तुकाराम महाराज को उनके सद्गुरु बाबाजी चैतन्य ने स्वप्र में दृष्टांत देकर गुरुमंत्र दिया। पांडुरंग के प्रति भक्ति के कारण उनकी वृत्ति विट्ठल के चरणों में स्थिर होने लगी। आगे मोक्ष प्राप्ति की तीव्र उत्कंठा के कारण तुकाराम महाराज ने देहू के निकट एक पर्वत पर एकांत में ईश्वर साक्षात्कार के लिए निर्वाण प्रारंभ किया। वहां पंद्रह दिन एकाग्रता से अखंड नामजप करने पर उन्हें दिव्य अनुभव प्राप्त हुआ। सिद्धावस्था प्राप्त होने के पश्चात संत तुकाराम महाराज ने संसार सागर में डूबने वाले ये लोग आंखों से देखे नहीं जाते, (बुडती हे जन देखवेना डोलां) ऐसा दुख व्यक्त कर लोगों को भक्ति मार्ग का उपदेश दिया। वह सदैव पांडुरंग के भजन में मग्र रहते थे। तुकाराम महाराज ने संकट की खाई में गिरे हुए समाज को जागृति एवं प्रगति का मार्ग दिखाया। स्पष्टवादी होने के कारण इनकी वाणी में जो कठोरता दिखाई पड़ती है, उसके पीछे इनका प्रमुख उद्देश्य था समाज से दुष्टों का निर्दलन कर धर्म की सुरक्षा करना।
संत तुकाराम महाराज की र्कीत छत्रपति शिवाजी महाराज के कानों तक पहुंच गई थी। शिवाजी महाराज ने तुकाराम महाराज को सम्मानित करने के लिए अबदगिरी, घोड़े तथा अपार सम्पत्ति भेजी। विरक्त तुकाराम महाराज ने वह सर्व सम्पत्ति लौटाते हुए कहा कि पांडुरंग के बिना हमें दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता। उत्तर स्वरूप चौदह अभंगों की रचना भेजी। संत तुराकाम महाराज के साधुत्व एवं कवित्व की र्कीत सर्वत्र फैल गई। वे तो केवल दूसरों पर उपकार करने के लिए ही जीवित थे। (तुका म्हमे आता। उरलो उपकारापुरता।) अपनी भक्ति के बल पर महाराज ने आकाश की ऊंचाई प्राप्त की तथा केवल 42 वर्ष की आयु में सदेह वैकुंठ गमन किया। फाल्गुन वद्य द्वितिया को तुकाराम महाराज का वैकुंठ गमन हुआ। यह दिन ‘तुकाराम बीज’ नाम से जाना जाता है।