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तिब्बत का भविष्य बताने वाली झील, देवी को नाराज करने वाला बनता है मृत्यु का ग्रास

Edited By ,Updated: 19 Sep, 2016 01:35 PM

tibet lake

तिब्बती बौद्धों में प्रचलित एक दंत कथा के अनुसार नौवें दलाई लामा सन् 1806 में अपने पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। वह केवल दस साल जीवित रहे।

तिब्बती बौद्धों में प्रचलित एक दंत कथा के अनुसार नौवें दलाई लामा सन् 1806 में अपने पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। वह केवल दस साल जीवित रहे। दसवें दलाई लामा बीस वर्ष की उम्र में ही चल बसे। ग्यारहवें दलाई लामा का निधन सन् 1853 में सिर्फ 17 साल की आयु में हो गया था जबकि बारहवें दलाई लामा 18 साल की अल्पायु में परलोकगामी हो गए।
 
तिब्बत में एक ऐसी झील भी है, जिसे बौद्ध मतावलंबी भविष्य बताने वाली मानते हैं। उनकी धारणा है कि हर दलाई लामा के लिए कम-से-कम एक बार अपने जीवन में इसका दर्शन करना जरूरी है क्योंकि यह उसके भावी जीवन और मृत्यु के संबंध में बताती है। इसी तरह पोताला प्रासाद (महल) के साथ भी दलाई लामाओं के जीवन के अनेक रोमांचक प्रसंग जुड़े हुए हैं।
 
इतिहासकार पंडित चंद्र गुप्त वेदालंकार के ग्रंथ ‘वृहत्तर भारत के तिब्बत में बौद्ध संस्कृति’ संबंधी अध्याय में भविष्य बताने वाली इस झील के बारे में जो जानकारी दी गई है उसके अनुसार तिब्बती इसे पा कोर, ग्यल क्यीनम सो के नाम से पुकारते हैं।
यह झील ल्हासा से सौ मील दक्षिण पूर्व में है। 
 
तिब्बत के तकपो प्रांत में स्थित इस झील के बारे में बताया गया है कि इस पर एक मंदिर है। इसमें झील की अधिष्ठात्री देवी की प्रतिमा है। केवल दलाई लामा ही उसके दर्शन कर सकते हैं। वह अकेले मंदिर में जाकर अपने भावी जीवन के बारे में सवाल करते हैं। देवी को रिझाने की एक विशेष विधि बताई जाती है।
 
दंतकथाएं और जनश्रुतियां
इस झील के साथ कई जनश्रुतियां जुड़ी हुई हैं। इनमें से एक यह है कि झील की अधिष्ठात्री देवी को रिझा पाने की विद्या से अनजान चार दलाई लामा अपने बचपन में वहां गए थे। उनका देवी के दर्शन करने के कुछ ही समय बाद निधन हो गया। देवी को प्रसन्न करने के विधि-विधान से अनजान होना उनके लिए महंगा साबित हुआ। वे देवी के कोपभाजन बने थे।
 
 
तिब्बती बौद्धों में प्रचलित एक दंत कथा के अनुसार नौवें दलाई लामा सन् 1806 में अपने पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। वह केवल दस साल जीवित रहे। दसवें दलाई लामा बीस वर्ष की उम्र में ही चल बसे। ग्यारहवें दलाई लामा का निधन सन् 1853 में सिर्फ 17 साल की आयु में हो गया था जबकि बारहवें दलाई लामा 18 साल की अल्पायु में परलोकगामी हो गए।
 
 
तिब्बती इन चारों दलाई लामाओं की अकाल मृत्यु के रहस्य को देवी को रिझा पाने में असमर्थ रहने में खोजते हैं। ऐसा कहा जाता है कि ये चारों बहुत छोटी उम्र में वहां गए थे। उन्हें यह पता नहीं था कि देवी को किस प्रकार प्रसन्न किया जाता है। नतीजे में देवी नाराज हो गईं और उनके दर्शन के कुछ समय बाद ही वे अकाल मृत्यु का ग्रास बन गए।
 
अवलोकितेश्वर दलाई लामा
यह जनश्रुति भी बहुचर्चित है कि तेरहवें दलाई लामा दीर्घजीवी रहे थे। उन्होंने 25 साल की उम्र में देवी के मंदिर में अकेले जाकर प्रतिमा के दर्शन किए थे। उन्हें देवी को रिझाना आता था। इसीलिए वह दीर्घायु हुए। इसी तरह पोताला के प्रासाद (महल) से भी दलाई लामाओं से संबंधित गाथाएं जुड़ी हैं। सन् 1625 में पांचवें दलाई लामा का जन्म हुआ था। उस समय दे.सी. सड्.पा. सारे मध्य तिब्बत का शासक था। 
 
वह का.दम.पा. के नाम से संबोधित किए जाने वाले एक संप्रदाय का अनुयायी था। उसने पांचवें दलाई लामा के प्रमाण लेने के लिए भी कुछ लोगों को तैनात किया था, किंतु पांचवें दलाई लामा बहुत साहसी थे। 
 
बीस साल के होने पर उन्होंने मंगोल सरदार गुसरी खां से सहायता मांगी, जिसने 1642 ई. में तिब्बत पर आक्रमण कर दे.सी.सड्.पा. को हरा कर सारे इलाके को जीत कर दलाई लामा को भेंट कर दिया था। पांचवें दलाई लामा और गुसरी खां ने एक ही गुरु से विद्याभ्यास किया था। राज्य शक्ति हासिल करने के बाद पांचवें दलाई लामा ने खुद को अवलोकितेश्वर के अवतार के तौर पर मशहूर करवाया और अपना पुराना निवास स्थान छोड़कर रक्त पर्वत पर नया प्रासाद बनवाया था। 
 
इस प्रासाद का नाम दक्षिण भारत के एक पर्वत के नाम पर ‘पोताला’ रखा गया था। तिब्बती समाज में यह धारणा रही है कि दक्षिण भारत में ‘पोताला’ नाम का पर्वत अवलोकितेश्वर का पवित्र स्थान है। इसीलिए पांचवें दलाई लामा ने अपने निवास को ‘पोताला प्रासाद’ का नाम दिया था।
 
इस तरह पांचवें दलाई लामा तिब्बत के राजा भी बन गए। दोनों शक्तियां दलाई लामा के अधीन हो जाने से तिब्बत की संपूर्ण राजनीतिक और धार्मिक शक्ति ल्हासा से केंद्रित हो गई और छोटे-छोटे स्वतंत्र शासकों का प्रभाव नष्ट हो गया। 
 
जिस पर्वत पर पांचवें दलाई लामा ने अपना प्रासाद बनवाया, वह यही है जिस पर तिब्बत के महाप्रतापी सम्राट के रूप में जाने गए सोड सेन गम पो निवास करते रहे थे। बताया जाता है कि इस प्रासाद को पूरा होने पर चालीस साल लगे और जब प्रासाद का निर्माण कार्य जारी ही था, तभी उस दलाई लामा की मृत्यु हो गई थी। इस प्रासाद में कई दर्शनीय वस्तुएं हैं। इनमें सम्राट सोड सेन गम पो की प्रतिमा भी है।
 
इस मूर्त तथा कुछ दूसरी प्रतिमाओं को देखकर इतिहासकारों की राय में इस बारे में कोई संदेह नहीं रह जाता कि तिब्बत में बौद्ध धर्म उत्तर पश्चिमी भारत से गए विद्वानों के माध्यम से पहुंचा था। ‘पोताला प्रासाद’ में पांचवें दलाई लामा की मूर्त भी है। इसी प्रासाद के पश्चिमी भाग में छठे दलाई लामा को छोड़ कर बाकी दलाई लामाओं की समाधियां बनी हुई हैं।
 
नए दलाई लामा का चयन
‘पोताला राजमहल’ में जिन छठे दलाई लामा की समाधि नहीं है, वह पांचवें दलाई लामा की सन् 1680 में मृत्यु हो जाने के दस साल बाद उस पर बैठे थे। उनके बारे में तिब्बत के इतिहास संबंधी पुस्तकों में यह जिक्र मिलता है कि उनके आचरण और क्रिया-कलापों को लेकर चीनी और मंगोल सम्राट उनके विरोधी हो गए थे। चीनी सैनिकों ने जब छठे दलाई लामा को हिरासत में लेकर पोताला राजमहल से पेचिंग ले जाने की कोशिश की तो तिब्बतियों से अपने धर्म गुरु का अपमान सहन नहीं हो पाया और उन्होंने विद्रोह कर दिया पर सेना न होने के कारण वे प्रभावी प्रतिरोध कर पाने में नाकाम रहे। उधर पेचिंग पहुंचने से पहले ही रास्ते में छठे दलाई लामा का निधन हो गया था।
 
उनके निधन के बाद यह सवाल खड़ा हुआ कि किसे दलाई लामा बनाया जाए। तत्कालीन चीनी सम्राट ने पच्चीस साल की उम्र के एक व्यक्ति को सातवां दलाई लामा घोषित कर दिया। चीनियों के नियुक्त उस व्यक्ति को तिब्बती लोगों ने ‘अवलोकितेश्वर’ के अवतार के रूप में मान्यता देना स्वीकार नहीं किया और एक और बालक को दलाई लामा घोषित कर दिया। लंबे समय तक दोनों पक्षों में संघर्ष जारी रहा।
 
आखिर चीन सरकार को झुकना पड़ा था और प्रमुख तिब्बती भिक्षुओं की ओर से चयनित बालक ही नए दलाई लामा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। सातवें दलाई लामा की नियुक्ति के सवाल पर तत्कालीन चीन सरकार के झुकने पर बाध्य होने में मंगोल सम्राट के द्वारा तिब्बतियों को समर्थन दिया जाना भी सहायक बना था।
 
पर कुछ समय बाद घटनाक्रम ने एक नया मोड़ लिया, जब तिब्बतियों ने चीनियों के साथ मिलकर मंगोलों को खदेडऩा शुरू कर दिया। इसके नतीजे में तिब्बत में चीनी प्रभुत्व बढ़ा और देश का वास्तविक शासन सूत्र उन्हीं के हाथ में चला गया पर सन् 1745 में तिब्बत में चीनी प्रभुत्व के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी दहकी और ‘पोताला प्रासाद’ उसकी प्रेरणा बना। तिब्बतियों के उस विद्रोह के फलस्वरूप तिब्बत पर चीनी नियंत्रण ढीला पड़ा और उन्होंने स्थानीय शासक को स्वतंत्रतापूर्वक शासन करने के लिए यह हमला कर दिया था।

तिब्बती बौद्धों में प्रचलित एक दंत कथा के अनुसार नौवें दलाई लामा सन् 1806 में अपने पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। वह केवल दस साल जीवित रहे। दसवें दलाई लामा बीस वर्ष की उम्र में ही चल बसे। ग्यारहवें दलाई लामा का निधन सन् 1853 में सिर्फ 17 साल की आयु में हो गया था जबकि बारहवें दलाई लामा 18 साल की अल्पायु में परलोकगामी हो गए।
 
तिब्बत में एक ऐसी झील भी है, जिसे बौद्ध मतावलंबी भविष्य बताने वाली मानते हैं। उनकी धारणा है कि हर दलाई लामा के लिए कम-से-कम एक बार अपने जीवन में इसका दर्शन करना जरूरी है क्योंकि यह उसके भावी जीवन और मृत्यु के संबंध में बताती है। इसी तरह पोताला प्रासाद (महल) के साथ भी दलाई लामाओं के जीवन के अनेक रोमांचक प्रसंग जुड़े हुए हैं।
 
इतिहासकार पंडित चंद्र गुप्त वेदालंकार के ग्रंथ ‘वृहत्तर भारत के तिब्बत में बौद्ध संस्कृति’ संबंधी अध्याय में भविष्य बताने वाली इस झील के बारे में जो जानकारी दी गई है उसके अनुसार तिब्बती इसे पा कोर, ग्यल क्यीनम सो के नाम से पुकारते हैं। यह झील ल्हासा से सौ मील दक्षिण पूर्व में है।  


तिब्बत के तकपो प्रांत में स्थित इस झील के बारे में बताया गया है कि इस पर एक मंदिर है। इसमें झील की अधिष्ठात्री देवी की प्रतिमा है। केवल दलाई लामा ही उसके दर्शन कर सकते हैं। वह अकेले मंदिर में जाकर अपने भावी जीवन के बारे में सवाल करते हैं। देवी को रिझाने की एक विशेष विधि बताई जाती है।
 
दंतकथाएं और जनश्रुतियां
इस झील के साथ कई जनश्रुतियां जुड़ी हुई हैं। इनमें से एक यह है कि झील की अधिष्ठात्री देवी को रिझा पाने की विद्या से अनजान चार दलाई लामा अपने बचपन में वहां गए थे। उनका देवी के दर्शन करने के कुछ ही समय बाद निधन हो गया। देवी को प्रसन्न करने के विधि-विधान से अनजान होना उनके लिए महंगा साबित हुआ। वे देवी के कोपभाजन बने थे।

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