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भगवद्गीता: श्री कृष्ण की शरण में जाने पर होने लगते हैं चमत्कार

Edited By ,Updated: 02 May, 2016 03:30 PM

bhagwad gita

ज्ञान सदा सम्माननीय श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 5 (कर्मयोग) ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:। तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति

ज्ञान सदा सम्माननीय

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 5 (कर्मयोग)

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम।। 16।।


 

अनुवाद : किंतु जब कोई उसे ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिससे अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से सारी वस्तुएं आलौकित हो जाती हैं।

 

तात्पर्य : जो लोग श्री कृष्ण को भूल गए हैं वे निश्चित रूप से मोहग्रस्त होते हैं, किंतु जो कृष्णभावनाभावित हैं वे नहीं होते। भगवद्गीता में कहा गया है कि ज्ञान सदैव सम्माननीय है और वह ज्ञान क्या है? श्री कृष्ण के प्रति आत्मसमर्पण करने पर ही पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है, जैसा कि गीता में (7.19) ही कहा गया है-

 

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

 

अनेकानेक -बीत जाने पर ही पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य श्री कृष्ण की शरण में जाता है अथवा जब उसे कृष्णभावनामृत प्राप्त होता है तो उसे सब कुछ प्रकट होने लगता है, जिस प्रकार सूर्योदय होने पर सारी वस्तुएं दिखने लगती हैं।

 

जीव नाना प्रकार से मोहग्रस्त होता है। उदाहरणार्थ जब वह अपने को ईश्वर मानने लगता है, तो वह अविद्या के पाश में जा गिरता है। यदि जीव ईश्वर है तो वह अविद्या से कैसे मोहग्रस्त हो सकता है? क्या ईश्वर अविद्या से मोहग्रस्त होता है? यदि ऐसा हो सकता है, तो फिर अविद्या या शैतान ईश्वर से बड़ा है। वास्तविक ज्ञान उसी से प्राप्त हो सकता है जो पूर्णत: कृष्णभावनाभावित है। अत: ऐसे ही प्रामाणिक गुरु की खोज करनी होती है और उसी से सीखना होता है कि कृष्णभावनामृत क्या है, क्योंकि कृष्णभावनामृत से भारी अविद्या उसी प्रकार दूर हो जाती है, जिस प्रकार सूर्य से अंधकार दूर होता है।

 

भले ही किसी व्यक्ति को इसका पूरा ज्ञान हो कि वह शरीर नहीं अपितु इससे परे है, तो भी हो सकता है कि वह आत्मा तथा परमात्मा में अंतर न कर पाए किंतु यदि वह पूर्ण प्रामाणिक कृष्णभावनाभावित गुरु की शरण ग्रहण करता है तो वह सब कुछ जान सकता है।

 

ईश्वर के प्रतिनिधि से भेंट होने पर ही ईश्वर तथा ईश्वर के साथ अपने संबंध को सही-सही जाना जा सकता है। ईश्वर का प्रतिनिधि कभी भी अपने आपको ईश्वर नहीं कहता, यद्यपि उसका सम्मान ईश्वर की ही भांति किया जाता है, क्योंकि उसे ईश्वर का ज्ञान होता है। मनुष्य को ईश्वर और जीव के अंतर को समझना होता है। रात्रि के समय अंधकार में हमें प्रत्येक वस्तु एक जैसी दिखती है, किंतु दिन में सूर्य उदित होने पर सारी वस्तुएं अपने-अपने वास्तविक स्वरूप में दिखती हैं। 

(क्रमश:) 

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