Edited By ,Updated: 28 Nov, 2016 01:33 PM
सिक्ख इतिहास में जहां गुरु नानक देव जी का नाम बड़ी ही श्रद्वा तथा सम्मान से लिया जाता है वहीं भाई मरदाना जी का नाम भी बहुत ही अदब तथा प्यार से लिया जाता है।
सिक्ख इतिहास में जहां गुरु नानक देव जी का नाम बड़ी ही श्रद्वा तथा सम्मान से लिया जाता है वहीं भाई मरदाना जी का नाम भी बहुत ही अदब तथा प्यार से लिया जाता है। मनुष्यता के हित के लिए गुरू नानक देव जी ने कई-कई मील लम्बी यात्राएं की। इस सफर में गुरू जी का डट कर साथ देने वाले (अभिन्न साथी) भाई मरदाना जी का नाम सब से पहले लिया जाता है। भाई मरदाना जी का पहला नाम भाई दाना था। आप का जन्म 6 फरवरी साल 1459 (संवत् 1516) को राय-भोंई की तलवंडी (ननकाना साहिब) के चौभड़ जाति के मिरासी मीर बादरे एवं माता लख्खो के घर हुआ।भाई साहब अपने माता-पिता की सातवीं संतान थे। इस परिवार में पहले छह बच्चे होकर गुज़र गये थे,सो सातवीं संतान को बचाने के मकसद से इस बच्चे का नाम रखा गया ‘मर जाणा‘‘।
गांव के सभी लोग भाई साहब को इसी नाम से पुकारते परंतु गुरू नानक देव जी ने आपको नया नाम दिया-‘मरदाना‘ अर्थात् ‘मरदा ना। आयु के पक्ष से भाई मरदाना जी गुरू नानक पातशाह से लगभग दस साल बड़े थे। भाई मरदाना जी मित्रता गुरू नानक देव जी के साथ छोटी उम्र में ही पड़ गई थी जो गुरू साहिब की और से मिले प्यार के कारण अंतम श्वास तक निभी।रबाब बजाने का हुनर विरासत में मिलने के कारण भाई साहब एक उच्चकोटि के संगीतकार थे। गुरू जी उनके इस हुनर पर मोहित थे।सुख-दुख के सांझीदार होने के साथ-साथ वह श्री गुरू नानक देव जी की ओर से नियुक्त प्रचारक भी थे,जिन्हें गुरू जी ओर से विशेष अधिकार प्राप्त थे।इन अधिकारों का प्रयोग वह गुरू नानक बाणी के प्रचार तथा प्रसार हित करते थे।
श्री गुरू नानाक देव जी के (बचपन के) सच्चे साथी भाई मरदाना जी सारी उदासीयों में गुरू जी के अंग-संग रहे हैं। उन्होंने गुरू साहिब के संग देश-विदेश का लगभग 40000 किलोमीटर का सफर पेदल तय किया। भाई मरदाना जी ने गुरू नानक देव जी की रचनात्मक प्रवृति को प्रफुल्लित करने में भी पूरा सहयोग दिया। जब भी गुरू साहिब के हृदय में बाणी उदित होती वे भाई मरदाना से कहते,”मरदानियां रबाब उठा बाणी आई है।” गुरू नानक देव जी का हुकुम पा कर भाई मरदाना जी की रबाब झंकृत होती और गुरू जी के मुख से बाणी की वर्षा होती। जहां भाई साहब को गुरू साहिब की बाणी को 19 रागों में बांध कर गाने का शर्फ हासल है वहीं उन्हें गुरू नानक दरबार के प्रथम कीर्तनयें होने का मान भी प्राप्त है।
यह मान-सम्मान केवल भाई मरदाना जी तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि उनकी कई पीढि़यों तक बना रहा। श्री गुरू अर्जुन देव जी तथा श्री गुरू हरगोबिन्द जी के समय कीर्तन की सेवा निभाने वाले भाई संख्या तथा राय बलवंड जी रबाबी भी इसी खानदान से सम्बन्धित थे। जलते जगत को ठंडा करते हुए जब श्री गुरू नानक देव जी अपनी चौथी उदासी के समय अफगानिस्तान की एक नदी “कुरम“ के किनारे पर पहुंचे तो भाई मरदाना जी को अकाल पुरख का बुलावा आ गया। अपने अंतिम समय पर भाई साहब ने श्री गुरू नानक देव जी से अलविदा लेनी चाही। गुरू साहिब ने ईश्वर के आदेश को मानते हुए भाई साहब को गले से लगा लिया ओर बचन किया कि,“मरदानियां यदि तुम्हारा मन हो तो तुम्हारी देह को ब्रह्मण की तरह पानी में फैंक दूं, खतरी की तरह जला दूं ,वैश्य की तरह हवा में उड़ा दूं, या फिर मुसलमानों की भान्ति धरती के सुपुर्द कर दुं।” गुरू नानक देव जी के बचन का जवाब देते हुए भाई मरदाना जी ने कहा,“वह बाबा वह! अभी भी शरीरों के चक्करों में डाल रहे हो।“
गुरू जी फिर बोले,“भाई मरदाना यदि तुम कहे तो तुम्हारी समाधि बना दें।“ उस समय भाई साहब ने जो उतर दिया वह बहुत ही भावपूर्ण था- “ बाबा ! बड़ी मुश्किल से तो शरीर रूपी समाधि में से बाहर आने लगा हूं ,अब फिर पत्थरों की समाधि में डालना चाहते हो।“ श्री गुरू नानक देव जी से बातचीत करते हुए आखिर 12 नवम्बर सन् 1534 को भाई मरदाना जी इस भौतिक संसार से विदा हो गए। भाई साहब का अंतिम संस्कार गुरू जी ने अपने हाथों से सम्पन्न किया था।
-रमेश बग्गा चोहला