Edited By ,Updated: 08 Jul, 2024 05:05 AM
सारे यूरोप में चुनाव हो रहे हैं। हाल ही में इटली, नीदरलैंड और पोलैंड के बाद अब फ्रांस में चुनाव हुए हैं। सभी देशों में मतदाता कंजर्वेटिव (कट्टर रूढि़वादी) पाॢटयों के ही पक्ष में हैं और कहा जाता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार ऐसा हुआ है।
सारे यूरोप में चुनाव हो रहे हैं। हाल ही में इटली, नीदरलैंड और पोलैंड के बाद अब फ्रांस में चुनाव हुए हैं। सभी देशों में मतदाता कंजर्वेटिव (कट्टर रूढि़वादी) पार्टियों के ही पक्ष में हैं और कहा जाता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार ऐसा हुआ है। उस समय एक नारा बनाया था कि ‘अब और कोई फासीवादी सरकार नहीं है’ और अब ये लोग समूचे यूरोप में पूरी तरह धुर दक्षिणपंथी कंजर्वेटिवों (कट्टर रूढि़वादी) का चुनाव कर रहे हैं, जबकि इंगलैंड में इसके विपरीत मतदाताओं ने कंजर्वेटिव पार्टी को छोड़कर लेबर पार्टी को चुना है जिसकी पूर्णत: उदारवादी सोच वाली विचारधारा है।
जून में यूरोप में हुए चुनावों में बढ़त के बाद कट्टर रूढि़वादी दलों ने राजनीतिक भूचाल ला दिया है। यूरोपियन संसद के चुनाव में इमैनुएल मैक्रों की पार्टी को ‘ली पेन’ के नेतृत्व वाली धुर दक्षिणपंथी ‘नैशनल रैली पार्टी’ के हाथों हार का सामना करना पड़ा, जिससे घबराए मैक्रों को नैशनल असैंबली भंग करके फ्रांस में शीघ्र चुनाव करवाने का सोचना पड़ा जिसमें भी उनकी पार्टी अच्छी स्थिति में नहीं है। दूसरी ओर ‘नैशनल रैली पार्टी’ की पहली बार भारी विजय से इस पार्टी में नई उम्मीदें जगी हैं जिससे वहां 7 जुलाई को चुनाव के दूसरे चरण में इसकी विजय से फ्रांस में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार ली पेन के नेतृत्व में इस पार्टी की सरकार बनने की संभावना व्यक्त की जा रही है। वह विपक्ष की अत्यंत मजबूत नेता हैं और उनके संबंध जर्मनी के नाजियों के साथ रहे हैं। उनके दादा नाजी पार्टी के सदस्य थे।
जर्मनी के चांसलर ओलाफ स्कोल्ज की वामपंथी ‘सोशल डैमोक्रेट पार्टी’ के समर्थन में कमी आ गई है, जबकि धुर दक्षिणपंथी ‘अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी’ दूसरे स्थान पर आ गई। इसकी नेता एलिस वीडेल ने परिणामों के बाद कहा है कि हम दूसरी सबसे मजबूत ताकत हैं। इटली में भी जार्जिया मेलोनी की धुर दक्षिणपंथी पार्टी ‘ब्रदर्स आफ इटली’ सबसे मजबूत पार्टी के रूप में उभरी है जिससे देश के सत्तारूढ़ गठबंधन में मेलोनी के बढ़ते प्रभुत्व की पुष्टि हो गई है। मेलोनी के पिता का रिश्ता तानाशाह मुसोलिनी से जुड़ता है। ये सब तथ्य इस बात का प्रतीक हैं कि पूर्ण फासिस्ट दल यूरोप में आ रहे हैं।
इसका कारण यह है कि अब तक इन देशों में उदार सरकारें रही हैं, उनकी अर्थव्यवस्था नीचे जा रही है जिसमें अमीर अधिक अमीर तथा गरीब अधिक गरीब होते जा रहे हैं। इसलिए वे एक बदलाव के लिए धुर दक्षिणपंथ की ओर बढ़ रहे हैं, परंतु धुर दक्षिणपंथ की सरकार बनने का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि एक बार सत्तारूढ़ होने के बाद फासिस्ट सरकारें जल्दी सत्ता का परित्याग नहीं करतीं और ऐसा बदलाव लाती हैं जिससे किसी भी देश की विचारधारा और शिक्षा पर प्रभाव पड़ता है। ऐसा जर्मनी में नाजियों और इटली में मुसोलिनी ने किया था जिनके शासकों के दिमाग में पूरी तरह तानाशाही भर गई थी।
यदि हम यूरोप से बाहर निकल कर देखें तो इंगलैंड एक अकेला उदाहरण है जिसने 14 वर्ष कंजर्वेटिव रहने के बाद अब लेबर (लिबरल) पार्टी की ओर रुख किया है। कारण इंगलैंड में भी वही और यूरोप में भी वही है। दोनों ओर की अर्थव्यवस्था नीचे की ओर जा रही है। लोगों के पास नौकरियां नहीं हैं, यूक्रेन युद्ध तथा हमास द्वारा इसराईली नागरिकों को बंधक बनाने के बाद इसराईली हमलों से कीमतें बढ़ रही हैं। दोनों ओर के लोग अर्थव्यवस्था के लिए सीरिया और अफ्रीका से आने वाले प्रवासियों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। यूरोप में 2 बड़ी शक्तियां हैं- फ्रांस, जर्मनी और तीसरा यदि इनके साथ इटली मिल जाए और तीनों के धुर दक्षिणपंथी हो जाने पर यूरोप की वही स्थिति होगी जो 1920 के दशक में थी जब हिटलर उभर रहा था। ऐसी स्थितियां कठोर नेतृत्व को जन्म देती हैं। अभी दुनिया में हिटलरशाही तो नहीं आने वाली, परंतु कठोर नेतृत्व भी किसी देश को नहीं चाहिए।
इंगलैंड को ‘सभी लोकतंत्रों की जननी’ कहते हैं क्योंकि सबसे पहले लोकतंत्र वहीं आया था। इनका कहना है कि हमारा रिस्पांस और मूवमैंट्स सहज होती हैं। इस लिहाज से यदि इनकी कंजर्वेटिव पार्टी भी सत्ता में थी तो वह ऐसी पार्टी नहीं थी कि तानाशाही आ जाए और लेबर पार्टी इतनी धुर दक्षिणपंथी नहीं होगी कि समाजवाद आ जाए। बुनियादी तौर पर इसी को ‘सैंटर राइट एंड सैंटर लैफ्ट’ कहते हैं। जिस ‘बारूद के ढेर’ पर आज यूरोप बैठा है, वही शायद अमरीका के मामले में भी है और यदि धुर दक्षिणपंथी ट्रम्प राष्ट्रपति बन जाते हैं तो विश्व की राजनीति में बदलाव आ सकता है। दो चीजें इंगलैंड के चुनाव से स्पष्ट हुई हैं। एक तो यह है कि इंगलैंड के जो एग्जिट पोल आए थे, परिणाम भी बिल्कुल वही आए हैं। इसी प्रकार फ्रांस के चुनावों में एग्जिट पोल ने जो संभावित परिणाम बताए थे, वहां ठीक वैसा ही आधिकारिक परिणाम आया। तो हमारे भारत में एग्जिट पोल की भविष्यवाणी सही क्यों नहीं निकल पाती?
आखिर में यही कहा जा सकता है कि इंगलैंड और यूरोप का अलग-अलग दिशाओं में जाने का एक ही कारण है कि दोनों की अर्थव्यवस्था ढलान पर और बेरोजगारी अपने चरम पर है। उर्दू के शायर फैज अहमद फैज ने इस बारे कुछ यूं लिखा है :
है वही बात यूं भी और यूं भी तुम सितम या करम की बात करो