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देश के ‘डायग्नोस्टिक उद्योग’ में पूर्णकालिक डाक्टरों व प्रशिक्षित तकनीशियनों की कमी

Edited By ,Updated: 10 Feb, 2025 05:26 AM

lack of full time doctors trained technicians in country s diagnostic industry

भारत में विभिन्न रोगों की जांच करने वाली प्रयोगशालाओं (डायग्नोस्टिक सैंटर्स) का विशाल जाल फैला हुआ है और एक अनुमान के अनुसार देश में 3,00,000, प्रयोगशालाएं हैं जो इतना बड़ा क्षेत्र होने के बावजूद अनियमित (अंडर रैगुलेटेड) और ज्यादातर शहरी क्षेत्रों...

भारत में विभिन्न रोगों की जांच करने वाली प्रयोगशालाओं (डायग्नोस्टिक सैंटर्स) का विशाल जाल फैला हुआ है और एक अनुमान के अनुसार देश में 3,00,000, प्रयोगशालाएं हैं जो इतना बड़ा क्षेत्र होने के बावजूद अनियमित (अंडर रैगुलेटेड) और ज्यादातर शहरी क्षेत्रों तक सीमित हैं। महाराष्ट्र में निजी डायग्नोस्टिक सैंटर्स के विरुद्ध 27 वर्षीय शंकर धांगे कई वर्षों से लड़ाई लड़ रहे हैं। 6 वर्ष पहले उनकी बहन सारिका की सर्जरी के बाद पैदा हुई जटिलताओं के कारण मृत्यु हो गई थी।

शंकर का कहना है कि सर्जरी से पूर्व उनकी बहन ने जो परीक्षण करवाए थे उनकी प्रयोगशाला रिपोर्ट गलत होने के कारण उसका सही इलाज न होने से उसकी मौत हुई। उस रिपोर्ट पर किसी पैथोलॉजिस्ट ने नहीं बल्कि तकनीशियन ने हस्ताक्षर किए थे। शंकर धांगे का कहना है कि बारहवीं पास किसी व्यक्ति को मैडीकल इमेजिंग और डायग्नोस्टिक टैस्ट पर हस्ताक्षर करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है? डायग्नोस्टिक सैंटर्स द्वारा गड़बड़ किए जाने का यह कोई अकेला मामला नहीं है। देश में जितनी तेजी से यह कारोबार बढ़ रहा है, उसके लिए प्रशिक्षित कर्मचारियों की उतनी ही कमी है। स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में डायग्नोस्टिक उद्योग का लगभग 9 प्रतिशत हिस्सा है। 

इसी कारण ‘क्लीनिकल एस्टैब्लिशमैंट्स (रजिस्ट्रेशन एंड रैगुलेशन) एक्ट 2010’ बनाया गया जिसका उद्देश्य सभी डायग्नोस्टिक केंद्रों तथा प्रयोगशालाओं को इसके अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत लाना है।  इस कानून के अंतर्गत डायग्नोस्टिक सैंटर्स तथा प्रयोगशालाओं का संबंधित राज्यों की परिषदों में क्लीनिकल प्रतिष्ठानों के रूप में पंजीकरण करना तथा इनके द्वारा दी जाने वाली सुविधाओंके स्तर के बारे में मार्गदर्शन देना भी वांछित है। इस कानून को हिमाचल, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, हरियाणा सहित 12 राज्यों तथा दिल्ली के सिवाय सभी केंद्र शासित क्षेत्रों द्वारा अपनाया गया है जबकि कर्नाटक का अपना कानून है लेकिन अधिकांश मामलों में इन कानूनों पर अमल शुरू नहीं हुआ और जहां हुआ भी है, वहां भी पूरी तरह नहीं।भारत में डायग्नोस्टिक सैंटर्स भारत सरकार के विज्ञान और तकनीकी मंत्रालय के अंतर्गत संचालित ‘नैशनल एक्रीडिएशन बोर्ड फार टैस्टिंग एंड कैलीब्रेशन लैबोरेटरीज’ (एन.ए.बी.एल.) जैसी संस्थाओं से स्वैच्छिक रूप से मान्यता प्राप्त कर सकते हैं। देश में अधिकांश बड़ी प्रयोगशालाएं इसी से पंजीकृत हैं। 

एन.ए.बी.एल. के सी.ई.ओ. एन. वैंकटेश्वर ने निजी क्षेत्र में तेजी से विकास कर रहे इस उद्योग में घर कर गईं कमजोरियों पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि ‘‘इनमें से अधिकांश के कार्यकलाप एन.ए.बी.एल. द्वारा निर्धारित मापदंडों के अनुरूप नहीं हैं।’’ 
इनमें से अधिकाश प्रयोगशालाएं जरूरी उपकरणों और प्रशिक्षित कर्मचारियों से युक्त नहीं हैं।

डायग्नोस्टिक उद्योग में पूर्णकालिक डाक्टरों तथा प्रशिक्षित कर्मचारियों का अभाव है। स्वास्थ्य मंत्रालय की अपनी रिसर्च के अनुसार भी भारत में पर्याप्त संख्या में माइक्रोबायोलाजिस्ट नहीं हैं जबकि कुछ स्थानों पर तो प्रयोगशालाएं चलाने के लिए पर्याप्त योग्य डाक्टर या उच्च प्रशिक्षित टैक्नीशियन भी नहीं हैं। प्रयोगशालाओं को मजबूत बनाने तथा उपकरणों की खरीद भी बढ़ाने की जरूरत है। कुछ लैब रिपोर्टें डाक्टरों के खरीदे हुए हस्ताक्षरों के साथ जारी की जाती हैं। कर्नाटक में अभी भी कुछ निजी प्रयोगशालाएं अयोग्य व्यक्तियों द्वारा चलाई जा रही हैं। 

‘महाराष्ट्र एसोसिएशन आफ प्रैक्टीसिंग पैथोलॉजिस्ट एंड माइक्रोबायोलाजिस्ट’ (एम.ए.पी.पी.एम.)के डाक्टरों का कहना है कि किसी भी जटिल रोग का पता लगाने के लिए पैथोलॉजिस्ट की रिपोर्ट की आवश्यकता होती है। मशीन रिपोर्ट नहीं देती, रीडिंग देती है। इसका विश्लेषण करने के लिए पैथोलॉजिस्ट की जरूरत होती है। यह मुद्दा डाक्टरों को भी प्रभावित करता है। गत वर्ष महाराष्ट्र में एक डाक्टर ने पुलिस को दी शिकायत में कहा था कि जलगांव में एक डायग्नोस्टिक लैब मरीजों को फर्जी रिपोर्ट देने के लिए उसके नाम, डिग्री व हस्ताक्षरों का धोखाधड़ी से इस्तेमाल कर रही थी। अत: जहां सरकारी प्रयोगशालाओं को सर्वसुलभ और साजो-सामान से पूर्णत: लैस करने की जरूरत है, वहीं निजी डायग्नोस्टिक सैंटर्स में व्याप्त त्रुटियों पर भी नजर रखने की तुरंत आवश्यकता है।

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