Edited By ,Updated: 30 Sep, 2024 05:13 AM
आज देश में कितने ही ऐसे प्रतिभाशाली युवा हैं जो आई.आई.टी. तथा अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ाई के लिए निर्धारित फीस जमा न करवा पाने के कारण अपनी मनचाही शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं और इस प्रकार अनेक प्रतिभाएं खिलने से पहले ही मुरझा...
आज देश में कितने ही ऐसे प्रतिभाशाली युवा हैं जो आई.आई.टी. तथा अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ाई के लिए निर्धारित फीस जमा न करवा पाने के कारण अपनी मनचाही शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं और इस प्रकार अनेक प्रतिभाएं खिलने से पहले ही मुरझा जाती हैं। इसी 24 सितम्बर को एक ऐसा मामला सामने आया तथा सुप्रीमकोर्ट एक ऐसे गरीब दलित युवक की सहायता के लिए आगे आया है जो आई.आई.टी. धनबाद में अपने अंतिम प्रयास में जे.ई.ई. एडवांस्ड की प्रतिष्ठित परीक्षा पास करने के बाद स्वीकृत शुल्क के रूप में 17,500 रुपए जमा करने की समय सीमा से चूक जाने के कारण अपनी सीट गंवा बैठा था।
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला व न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने अतुल कुमार के वकील से कहा, ‘‘हम आपकी यथासंभव मदद करेंगे लेकिन पिछले तीन महीनों से आप क्या कर रहे थे क्योंकि फीस जमा करने की समय सीमा 24 जून को समाप्त हो गई थी।’’ उसके वकील ने पीठ को बताया कि अतुल कुमार ने अपने दूसरे और अंतिम प्रयास में जे.ई.ई. एडवांस्ड पास किया और यदि शीर्ष न्यायालय उसके बचाव में नहीं आया तो वह टैस्ट में फिर से शामिल नहीं हो पाएगा। इस पर पीठ ने संयुक्त सीट आबंटन प्राधिकरण, आई.आई.टी. प्रवेश तथा इस वर्ष परीक्षा आयोजित करने वाले आई.आई.टी. मद्रास को नोटिस जारी कर दिया।
उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के टिटोरा गांव के एक दिहाड़ी मजदूर का बेटा अतुल कुमार गरीबी रेखा से नीचे (बी.पी.एल.) जीवन-यापन करने वाले परिवार से है। वकील ने युवक के परिवार की आॢथक स्थिति बताई और कहा कि छात्रों के लिए सीट आबंटित होने के 4 दिन बाद ही 24 जून को शाम 5 बजे तक 17500 रुपए का इंतजाम करना बहुत कठिन था। अतुल कुमार ने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग से भी अपनी सहायता करने की गुहार की थी परंतु उसने भी उसकी सहायता करने में असमर्थता व्यक्त कर दी थी। चूंकि अतुल कुमार ने झारखंड के एक केंद्र से जे.ई.ई. की परीक्षा दी थी, इसलिए वह झारखंड राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के पास भी गया जिसने उसे मद्रास हाईकोर्ट जाने का सुझाव दिया क्योंकि आई.आई.टी. मद्रास ने ही यह परीक्षा आयोजित की थी। मद्रास हाईकोर्ट में गुहार लगाने पर उसे सुप्रीमकोर्ट जाने की सलाह दी गई तो वह सुप्रीमकोर्ट की शरण में आया जहां उसे अंतत: राहत मिल गई है।
यह घटनाक्रम सुनने में बहुत अच्छा लगता है और एक मेधावी छात्र की सहायता को आगे आने के लिए सुप्रीमकोर्ट साधुवाद का पात्र है। परंतु यह तो सामने आने वाला इस तरह का एक ही केस है जबकि मेधावी छात्रों के कितने ही ऐसे केस हैं जो फीस अधिक होने के कारण आई.आई.टी. या अन्य शिक्षा संस्थानों में अपनी मनचाही शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे होंगे। आई.आई.टी. में फीस की बात करें तो सबसे अधिक फीस गांधीनगर (गुजरात) वाली आई.आई.टी. में 990000 रुपए है और सबसे कम पंजाब (रोपड़) में 500000 रुपए है। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि रैगुलर छात्रों वाली फीस अलग है, दलित वाली अलग है। हालांकि दलित उम्मीदवारों को जनरल कैटेगरी के छात्रों की तुलना में फीस का लगभग छठा या सातवां हिस्सा ही देना पड़ता है जो एक लाख या उसके आसपास बनता है, जो सबसे अधिक आई.आई.टी. इंदौर व आई.आई.टी. भिलाई में 350000 रुपए तथा सबसे कम पंजाब (रोपड़) में 90000 रुपए है।
कम हो या अधिक फीस का हिस्सा तो ही देना पड़ता है। ऐसी हालत में प्रश्र पैदा होता है कि क्या हम और उच्च शिक्षा संस्थान खोल सकते हैं? क्या हम कम फीसों पर अच्छी शिक्षा दे सकते हैं जबकि भारत को विश्व में केवल आई.आई.टी. का ही नहीं बल्कि शिक्षा की अन्य विधाओं की भी ‘धुरी’ (हब) माना जाता है जिनमें शिक्षा प्राप्त लोग बड़ी संख्या में विदेशों में जाकर वहां भी साइंस एवं टैक्रोलोजी आदि के विभागों में काम कर रहे हैं। तो क्या हम देश व विश्व को और प्रतिभाएं उपलब्ध कर सकते हैं और क्या इस ओर हमारी सरकार का ध्यान नहीं होना चाहिए तथा सरकार को इसमें और निवेश नहीं करना चाहिए? हमारे देश में 23 आई.आई.टी. हैं जिसका मतलब यह है कि किसी राज्य में तो एक भी आई.आई.टी. नहीं है। तो क्या हमें ऐसे और संस्थान नहीं चाहिएं जहां छात्र शिक्षा प्राप्त कर सकें?