Edited By ,Updated: 23 Sep, 2024 05:17 AM
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1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि पर विश्व बैंक की मध्यस्थता में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तथा पाकिस्तान के तत्कालीन राष्टï्रपति अयूब खान ने कराची में हस्ताक्षर किए थे।
1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि पर विश्व बैंक की मध्यस्थता में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तथा पाकिस्तान के तत्कालीन राष्टï्रपति अयूब खान ने कराची में हस्ताक्षर किए थे। इसके अंतर्गत भारत को 3 पूर्वी नदियों रावी, ब्यास और सतलुज का तथा पाकिस्तान को 3 पश्चिमी नदियों सिंधु, चिनाब और जेहलम का नियंत्रण प्राप्त हुआ था। जनवरी, 2023 से लेकर अब 30 अगस्त को चौथी बार पाकिस्तान को नोटिस जारी करके भारत सरकार ने 1960 की ‘सिंधु जल संधि’ (आई.डब्ल्यू.टी.) पर पुनर्विचार और बदलाव की मांग को तेज कर दिया है और इस मामले में पाकिस्तान के बातचीत के लिए सहमत होने तक ‘स्थायी सिंधु आयोग’ (पी.आई.सी.) की सभी बैठकों को स्थगित करने की घोषणा कर दी है।
इस बदलाव के कारणों में जनसंख्या में बदलाव, पर्यावरण संबंधी मुद्दे और भारत के उत्सर्जन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा के विकास में तेजी लाना शामिल है। भारत ने इसके पीछे सीमा पार से जारी आतंकी गतिविधियों को भी कारण बताया है और कहा है कि इसके परिणामस्वरूप संधि के सुचारू तरीके से संचालन में बाधा आ रही है। भारत ने कहा है कि 1960 के बाद से हालात काफी बदल चुके हैं। किसी समय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पानी सांझा करने के समझौते का एक आदर्श मॉडल मानी जाने वाली इस प्रक्रिया के रुकने के बाद भारत सरकार ने यह मांग की है। वर्तमान युग में भी इस संधि के सिद्धांत मजबूत रहे हैं और भारत ने इसी संधि के अंतर्गत 2007 में ‘बगलिहार बांध परियोजना’ तथा 2013 में पाकिस्तान के ‘नीलम घाटी प्रोजैक्ट’ के दो बड़े विवाद जीते हैं। ‘किशनगंगा’ और ‘रतले परियोजनाओं’ पर विवाद निपटारे का मुद्दा 2016 से पाकिस्तान द्वारा एक न्यूट्रल एक्सपर्ट की मांग और स्थायी मध्यस्थता अदालत (पी.सी.ए.) में भी जाने की मांग के बाद गंभीर होता गया है।
इस मामले में ‘इंटरनैशनल वाटर ट्रीटी’ (आई.डब्ल्यू.टी.) के सह-हस्ताक्षरकत्र्ता और गारंटर विश्व बैंक ने इस मामले में दो समानांतर प्रक्रियाओं को एक साथ चलने दिया जिसके लिए विश्व बैंक को पछताना पड़ सकता है। इस मामले में पाकिस्तान ने न्यूट्रल एक्सपर्ट की प्रक्रिया को नजरअंदाज करने तथा भारत द्वारा हेग में पी.सी.ए. की सुनवाई का बहिष्कार किए जाने से मामला और अधिक बिगड़ गया। पाकिस्तान ने ‘इंटरनैशनल वाटर ट्रीटी’ पर पुनॢवचार तथा बातचीत के लिए भारत के नोटिसों पर ठंडा रुख दिखाया है तथा मोदी सरकार द्वारा सभी स्थायी इंडस कमीशन बैठकों को रोकने के निर्णय ने इस प्रक्रिया के भविष्य को खतरे में डाल दिया है। अतीत के विपरीत जब ‘इंटरनैशनल वाटर ट्रीटी’ से जुड़े मुद्दों को राजनीति से दूर रखा जाता था, अब दोनों ही पक्ष इस मामले पर तीखी बयानबाजी कर रहे हैं। वर्ष 2016 के उड़ी हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान ‘खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते’ शायद इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है।
यह संयोग नहीं है कि यह घटनाक्रम भारत-पाकिस्तान के द्विपक्षीय संबंधों के टूटने के साथ मेल खाता है। न तो कोई राजनीतिक संवाद हो रहा है और न ही व्यापार। यही नहीं, 2021 का एल.ओ.सी. संघर्षविराम समझौता भी बढ़ते आतंकवादी हमलों तथा भारतीय सेना के जवानों की शहादत के बाद खतरे में है। हो सकता है कि संधि वार्ता फिर से शुरू हो सके, लेकिन किसी समझौते पर पहुंचना और भी कठिन होगा। अब सबकी नजरें पाकिस्तान सरकार द्वारा 15-16 अक्तूबर को होने वाली एस.सी.ओ. सरकार प्रमुखों की बैठक के लिए भेजे गए निमंत्रण को लेकर नई दिल्ली की प्रतिक्रिया पर हैं। यह बैठक निश्चित रूप से इस मामले में आगे की वार्ता के संदर्भ में विशेष महत्व रखती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि जलवायु परिवर्तन जैसे नए मुद्दे और सिंधु नदी पर अक्षय ऊर्जा और जल विद्युत विकल्पों की आवश्यकता 64 वर्ष पुरानी इस संधि को फिर से खोलने की मांग करती है। यह कैसे किया जाता है और वर्तमान विवादों का समाधान कैसे होता है, इससे तय होगा कि दोनों देश उस संधि को, जिसे अमरीकी राष्ट्रपति ड्वाइट डी. आइजनहावर ने एक बार ‘एक बहुत ही निराशाजनक विश्व दृश्यपटल में एक चमकता बिंदू’ कहा था, बचा सकते हैं या नहीं। अब यह तो समय ही बताएगा कि यह घटनाक्रम क्या रूप लेता है और भारत द्वारा संधि के नियमों में बदलाव का पाकिस्तान पर क्या असर पड़ता है।