संघ की 100 वर्षों की यात्रा

Edited By ,Updated: 30 Mar, 2025 05:13 AM

100 years of sangh s journey

संघ अपने कार्य के 100 वर्ष पूर्ण कर रहा है, ऐसे समय में उत्सुकता है कि संघ इस अवसर को किस रूप में देखता है। स्थापना के समय से ही संघ के लिए यह बात स्पष्ट रही है कि ऐसे अवसर उत्सव के लिए नहीं होते बल्कि ये हमें आत्मचिंतन करने तथा अपने उद्देश्य के...

संघ अपने कार्य के 100 वर्ष पूर्ण कर रहा है, ऐसे समय में उत्सुकता है कि संघ इस अवसर को किस रूप में देखता है। स्थापना के समय से ही संघ के लिए यह बात स्पष्ट रही है कि ऐसे अवसर उत्सव के लिए नहीं होते बल्कि ये हमें आत्मचिंतन करने तथा अपने उद्देश्य के प्रति पुन: समर्पित होने का अवसर प्रदान करते हैं। साथ ही यह अवसर इस पूरे आंदोलन को दिशा देने वाले मनीषियों और इस यात्रा में नि:स्वार्थ भाव से जुडऩे वाले स्वयंसेवक व उनके परिवारों के स्मरण का भी है।

100 वर्षों की इस यात्रा के अवलोकन और विश्व शांति व समृद्धि के साथ सामंजस्यपूर्ण और एकजुट भारत के भविष्य का संकल्प लेने के लिए संघ संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार की जयंती से बेहतर कोई अवसर नहीं हो सकता जो वर्ष प्रतिपदा यानी हिंदू कैलेंडर का पहला दिन है। डा. हेडगेवार जन्मजात देशभक्त थे। भारत भूमि के प्रति उनका अगाध प्रेम और शुद्ध समर्पण बचपन से ही उनके क्रियाकलापों में दिखाई देता था। कोलकाता में अपनी मैडीकल की शिक्षा पूरी करने तक वह भारत को ब्रिटिश दासता से मुक्त कराने के लिए हो रहे सभी प्रयासों यथा सशस्त्र क्रांति से लेकर सत्याग्रह तक से परिचित हो चुके थे। संघ में डाक्टर जी के नाम से पहचाने जाने वाले डा. हेडगेवार ने मातृभूमि को दास्ता की बेडिय़ों से मुक्त कराने वाले सभी प्रयासों का सम्मान किया और इनमें से किसी भी प्रयास को कमतर नहीं समझा। उस दौर में सामाजिक सुधार या राजनीतिक स्वतंत्रता चर्चा के प्रमुख विषयों में से थे। ऐसे समय में भारतीय समाज के एक डाक्टर के रूप में उन्होंने उन समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया जिनकी वजह से हम विदेशी दास्ता की बेडिय़ों में जकड़े गए। साथ ही उन्होंने इस समस्या का स्थायी समाधान देने का भी निर्णय किया।

उन्होंने अनुभव किया कि दैनिक जीवन में देशभक्ति की भावना का अभाव, सामूहिक राष्ट्रीय चरित्र का ह्रास,  जिसके परिणामस्वरूप संकीर्ण पहचान पैदा होती है तथा सामाजिक जीवन में अनुशासन की कमी, विदेशी आक्रमणकारियों के भारत में पैर जमाने के मूल कारण हैं। साथ ही उन्होंने इसका भी अनुभव किया कि विदेशी दासता में लोग अपने गौरवपूर्ण इतिहास को भूल चुके हैं, जिसके चलते उनके मन में अपनी संस्कृति और ज्ञान परंपरा के संबंध में हीन भावना घर कर गई है। उनका मानना था कि कुछ लोगों के नेतृत्व में केवल राजनीतिक आंदोलनों से हमारे प्राचीन राष्ट्र की मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं होगा। इसलिए उन्होंने लोगों को राष्ट्रहित में जीने के लिए प्रशिक्षित करने हेतु निरंतर प्रयास की एक पद्धति तैयार करने का निर्णय किया। राजनीतिक संघर्ष से आगे की इस दूरदर्शी सोच का परिणाम हमें शाखा आधारित संघ की अभिनव और अनूठी कार्यपद्धति के रूप में देखने को मिलता है। समाज में संघ की स्वीकार्यता और अपेक्षाएं भी बढ़ रही हैं। यह सब डाक्टर जी की दृष्टि व कार्यपद्धति की स्वीकार्यता का संकेत है। इस आंदोलन और दर्शन का नित्य नूतन विकास किसी चमत्कार से कम नहीं है। हिंदुत्व और राष्ट्र के विचार को समझाना आसान कार्य नहीं था क्योंकि उस काल के अधिकांश अंग्रेजी शिक्षित बुद्धिजीवी राष्ट्रवाद की यूरोपीय अवधारणा से प्रभावित थे। 

राष्ट्रवाद की यह यूरोपीय अवधारणा संकीर्णता और बहिष्करण पर आधारित थी। डा. हेडगेवार ने किसी वैचारिक सिद्धांत का प्रतिपादन करने के बजाय बीज रूप में एक कार्ययोजना दी जो इस यात्रा में मार्गदर्शक शक्ति रही है। उनके जीवनकाल में ही संघ का कार्य भारत के सभी भागों में पहुंच गया था। स्वयंसेवक की अवधारणा मूल रूप से समाज के प्रति जिम्मेदारी और कत्र्तव्य की भावना है, जो शिक्षा से लेकर श्रम और राजनीति जैसे क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दिखा रही है। सब कुछ राष्ट्रीय चिंतन के आधार पर पुनस्र्थापित किया जाना चाहिए, द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी माधव सदाशिव गोलवलकर इस चरण के दौरान मार्गदर्शक शक्ति थे।भारत एक प्राचीन सभ्यता है, जिसे अपनी आध्यात्मिक परम्पराओं के आधार पर मानवता के हित में अहम भूमिका निभानी है। यदि भारत को एकात्म एवं सार्वभौमिक सद्भावना पर आधारित यह विशेष भूमिका निभानी है तो भारतीयों को इस लक्ष्य के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। इस निमित्त श्री गुरुजी ने एक मजबूत वैचारिक आधार प्रदान किया। 

हिंदू समाज के सुधारवादी कदमों को तब नई गति मिली, जब भारत के सभी संप्रदायों ने घोषणा की कि किसी भी प्रकार के भेदभाव को धार्मिक मान्यता नहीं है। आपातकाल के दौरान जब संविधान पर क्रूर हमला किया गया था, तब शांतिपूर्ण तरीके से लोकतंत्र की बहाली के लिए संघर्ष में संघ के स्वयंसेवकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्री राम जन्मभूमि मुक्ति जैसे आंदोलनों ने भारत के सभी वर्गों और क्षेत्रों को सांस्कृतिक रूप से संगठित किया। राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर सीमा सुरक्षा, शासन में सहभागिता से लेकर ग्रामीण विकास तक, राष्ट्रीय जीवन का कोई भी पहलू संघ के स्वयंसेवकों से अछूता नहीं है। संतोष का विषय यह है कि समाज इस व्यवस्था परिवर्तन का हिस्सा बनने के लिए स्वयं आगे आ रहा है। ऐसे समय में जब संघ अपनी यात्रा के 100वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है, संघ ने राष्ट्र निर्माण के लिए व्यक्ति निर्माण के कार्य को ग्राम एवं खंड स्तर पर ले जाने का निर्णय किया है।-दत्तात्रेय होसबाले (सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ)

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