Edited By ,Updated: 26 Oct, 2024 05:18 AM
स्वतंत्रता दिवस के बाद सबसे उल्लेखनीय राजनीतिक फैसला 26 अक्तूबर 1947 को यह हुआ कि महाराजा हरी सिंह ने जम्मू-कश्मीर रियासत की बागडोर स्वतंत्र भारत के हाथों सौंपकर स्वयं को गौरवान्वित किया था। तब से यह दिन समारोहपूर्वक मनाया जाने लगा और भारतीय एकता का...
स्वतंत्रता दिवस के बाद सबसे उल्लेखनीय राजनीतिक फैसला 26 अक्तूबर 1947 को यह हुआ कि महाराजा हरी सिंह ने जम्मू-कश्मीर रियासत की बागडोर स्वतंत्र भारत के हाथों सौंपकर स्वयं को गौरवान्वित किया था। तब से यह दिन समारोहपूर्वक मनाया जाने लगा और भारतीय एकता का प्रतीक बन गया। विलय की बात से पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को बिलबिलाना ही था और उन्होंने इसे धोखाधड़ी कहते हुए हमेशा के लिए भारत से शत्रुता की ऐसी नींव डाली कि आज तक 2 पड़ोसी दुश्मनी निभा रहे हैं। उनमें कभी-कभार दिखावटी दोस्ती दिखाई देती है जिसका जल्दी ही पर्दाफाश हो जाता है।
अंग्रेजों का पाकिस्तान से याराना : महाराजा ने जम्मू में मध्य रात्रि को अपनी नींद में खलल पडऩे पर भी इस समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसे अगले दिन विशेष दूत द्वारा लार्ड माऊंटबेटन को सौंप दिया गया। उन्होंने महाराजा का धन्यवाद करते हुए पत्र लिखा कि शीघ्र ही भारत इस क्षेत्र से हमलावरों का सफाया कर शांति स्थापित करने में सफल होगा। हालांकि करार में साफ लिखा है कि यह विलय अंतिम है और वे रियासत की अवाम की तरफ से इसे अंजाम दे रहे हैं लेकिन अंग्रेज तो भारत को टूटते हुए देखने का सपना पाले हुए थे तो लाट साहब ने पत्र में नागरिकों की सहमति की बात भी कर दी।
अंग्रेजों और उनके सहयोगी अमरीकियों के गुट की मक्कारी इससे बढ़कर क्या होगी कि वे अगले कुछ साल तक इस विलय को इनवैलिड यानी गैर-कानूनी ही मानते रहे। पाकिस्तान इस बात की दुहाई देता रहा कि महाराजा तो यह कर ही नहीं सकते क्योंकि उन्होंने पाकिस्तान के साथ स्टैंड स्टिल यानी जैसा है वैसा ही रहेगा का एग्रीमैंट किया हुआ है। महाराजा ने जिन्ना के दबाव में न आने का निर्णय किया और यह राज्य भारत का अभिन्न अंग बन गया। पाकिस्तान को अपना मनचाहा मकसद तब पूरा होने की उम्मीद हो गई जब इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाया गया और वहां रैफरैंडम यानी अपनी मर्जी बताने के बाद शामिल होने की बात पर मोहर लगाने की कोशिश हुई जिसका खामियाजा हम अब तक भुगत रहे हैं। पाकिस्तान ने दूसरा काम यह किया कि वह अपने यहां के खूंखार लोगों को राज्य में भेजकर आतंकवादियों की खेप तैयार करने लगा जो भारत में रहकर और सरकार द्वारा दी जा रही सभी सुख-सुविधाओं का लाभ तो लें लेकिन दिल में पाकिस्तान का जाप करते रहें।
देशद्रोह का समर्थन : दुर्भाग्य इस बात का रहा है कि हमारे ही कुछ दलों के नेता अपने राजनीतिक लाभ के लिए मुट्ठी भर आतंकी कश्मीरियों के पाकिस्तान प्रेम को भुनाने लगते हैं। इतने वर्षों में यह स्थिति तो स्पष्ट हो गई है कि स्थानीय लोगों की समझ में आने लगा है कि उनका फायदा किस बात में है। वे भारतीय संघ और संविधान तथा विधान को मानते हुए वहां बसे रहना चाहते हैं और अपने को खुशहाल देखने के लिए शांति चाहते हैं। हालांकि आज धारा 370 नहीं रही और वहां पहले की तुलना में शांतिपूर्ण ढंग से चुनाव भी हो चुके हैं लेकिन फिर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो पाकिस्तान को अपना वतन मानते हैं। इसका कारण यह है कि राज्य की सत्ता किसी के भी हाथ में रही हो, गद्दी पर किसी तरह कब्जा हासिल कर लेने वाले नेता स्वयं को पाकिस्तान के हाथ की कठपुतली बनने से रोक नहीं पाते। यही कारण है कि जम्मू हो या कश्मीर अथवा चीन से लगा लद्दाख हो, आतंकवाद की छाया खत्म नहीं हो पाती। आतंकी सरगना बुरहान वानी की बरसी हो या कोई और अवसर, उनकी घोषित शत्रु भारत की सेना उनके निशाने पर रहती है। दूसरा नंबर उन नेताओं का होता है जो उनका समर्थन नहीं करते और उनकी हत्या हो जाती है।
समाधान की पहल करनी होगी : जम्मू-कश्मीर की नव-निर्वाचित सरकार से अपेक्षा की जा सकती है कि वह पाकिस्तान के मंसूबों पर पानी फेरने का काम करेगी और इस सीमावर्ती राज्य तथा दुनिया भर में सबसे अधिक खूबसूरती समेटे प्रदेश को देश का गौरव बनाने का काम करेगी। उसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि मुस्लिम बहुल प्रदेश में हिंदू तथा अन्य धर्मों के अल्पसंख्यक लोग जो यहां पीढिय़ों से रह रहे हैं, उनकी सुरक्षा का कवच तैयार है।
धार्मिक संघर्ष और तनाव के स्थान पर भाईचारे की वही बयार बहने का प्रबंध करना होगा जो कभी इस क्षेत्र की पहचान थी। जिन परिवारों ने जीवन भर हिंसा का नंगा नाच देखा है, उन्हें आश्वस्त करना होगा कि वे सुरक्षित हैं। यह काम गुजरात में हुआ है। वहां दंगा पीड़ित मुस्लिम समुदाय के लोगों ने जब सरकार को अपना भली-भांति पोषण करते हुए पाया तो वे दंगों को भूल गए और आगे बढऩे में कामयाब हुए। यही नीति जम्मू-कश्मीर में अपनानी होगी ताकि यहां के हिंदू निवासी भूले सी भी यह याद न करें कि वे कभी हिंसा का शिकार हुए थे। बुजुर्ग पीढ़ी का स्थान युवा पीढ़ी ले रही है, चाहे राजनीति हो या व्यवसाय, उसे पाकिस्तान के बहकावे में आने से रोकना संभव है। इसके लिए ऐसे उपाय हों कि आत्मविश्वास और भरोसे के तंत्र और मंत्र उसके सपनों की उड़ान में कोई बाधा नहीं आने देंगे।-पूरन चंद सरीन