अफगानिस्तान: आखिर औरतें कहां जाएं

Edited By ,Updated: 07 Jan, 2025 05:57 AM

afghanistan where should the women go

जब सारी दुनिया नए साल के जश्न में डूबने वाली थी, तब अफगानिस्तान की स्त्रियों के बारे में ऐसी दो खबरें आ रही थीं कि दिल दहल रहा था। तालिबानों ने पहले से ही अपने यहां की स्त्रियों के बाहर बोलने पर रोक लगा दी थी। हुक्म था कि औरतें जब बाहर निकलें, तो...

जब सारी दुनिया नए साल के जश्न में डूबने वाली थी, तब अफगानिस्तान की स्त्रियों के बारे में ऐसी दो खबरें आ रही थीं कि दिल दहल रहा था। तालिबानों ने पहले से ही अपने यहां की स्त्रियों के बाहर बोलने पर रोक लगा दी थी। हुक्म था कि औरतें जब बाहर निकलें, तो अपने पूरे शरीर को ही नहीं, बल्कि चेहरे को मोटे कपड़े से हमेशा ढंककर रखें जिससे कि आदमियों को किसी तरह का आकर्षण न हो। बाहर उनकी आवाज सुनाई नहीं देनी चाहिए। 

यही नहीं, घर के अंदर भी वे जोर से न गाएं, न जोर से कोई किताब पढ़ें। इस तरह की पाबंदियां युवा और वृद्ध हर उम्र की स्त्रियों पर लागू की गई हैं। औरतों की आवाज और बोलने से इतना डर क्यों है। लेकिन अफगानिस्तान के शासकों का मानना है कि औरतों के सार्वजनिक स्थानों पर बोलने से उनका बाहरी पुरुषों से इंटीमेसी का डर रहता है। है न दिलचस्प। मान लिया गया है कि बाहर निकलती औरतें बस पुरुषों से संबंध बनाने निकलती हैं। इसलिए हर पाबंदी उन्हीं पर लगाई जानी चाहिए। अकेली औरत दुश्चरित्र ही होती है।  इसके अलावा स्त्रियां अपने पति और खूनी रिश्तों के अलावा किसी और पुरुष की तरफ  सीधे देख भी नहीं सकतीं। यदि वे बात को नहीं मानेंगी, तो कठोर दंड मिलेगा। उनकी शिक्षा और किसी गंभीर रोग होने पर भी उन्हें किसी पुरुष डाक्टर को देखने पर तो पहले ही रोक लगाई जा चुकी है। यही नहीं अगर कोई टैक्सी चालक उस स्त्री को अपनी टैक्सी में बिठाएगा जो किसी मर्द के बिना अकेली है, तो उस चालक को भी कठोर रूप से दंडित किया जाएगा। औरतों के डाक्टर बनने, नर्स बनने और अन्य चिकित्सकीय क्षेत्र की पढ़ाई करने पर भी रोक लगा दी गई है। 

एक तरफ  स्त्रियां किसी पुरुष डाक्टर की मदद नहीं ले सकतीं और दूसरी तरफ  वे खुद डाक्टर नहीं बन सकतीं। नर्स नहीं बन सकतीं तो जब औरतें बीमार होंगी तो वे कहां जाएंगी, सिवाय घर की चारदीवारियों में दम तोडऩे के। नए नियमों के अनुसार न वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकती हैं, न पार्कों में जा सकती हैं। न वे गा सकती हैं, न कविता-कहानी पढ़ सकती हैं। आखिर वे कर क्या सकती हैं, सिवाय बच्चे पैदा करने के। नए साल से कुछ पहले दो फरमान और भी नजर आए। एक में अब घरों में ऐसी खिड़कियां नहीं बनाई जा सकेंगी जिनसे कि रसोई में काम करती स्त्रियों, कुंओं से पानी भरती स्त्रियों को देखा जा सकता हो जिन घरों में ऐसी खिड़कियां हैं, उन्हें बंद करना होगा। तालिबानों का कहना है कि ऐसी खिड़कियां अश्लीलता को बढ़ावा दे सकती हैं। तालिबानों ने अफगानिस्तान में काम करने वाली उन स्वयंसेवी संस्थाओं को भी बंद करने की धमकी दी है, जो औरतों के लिए काम करती हैं या कुछ औरतें उनमें काम करती हैं। उनका कहना है कि यहां औरतें अपने को ढंककर नहीं रखतीं। इसलिए चाहे देसी हों या विदेशी इन संस्थाओं को बंद कर दिया जाएगा। 

2021 में तालिबानों का शासन जब से दोबारा लौटा है,  वे अपने और अधिक कट्टर रूप में सामने आ रहे हैं। औरतों को इस तरह पीटकर वे किस धर्म की रक्षा कर रहे हैं, कोई बताए। आखिर अपनी ही औरतों से इतना डर कैसा। और अगर इतना डर है तो एक ही बार में खात्मा कर दो। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। सारा शाह की फिल्म याद आती है। जो उन्होंने पहले जब तालिबानों का शासन था, तब बनाई थी। किस तरह दंड के रूप में किसी स्त्री को गोली मारी जाती है, यह दिखाया गया था। सारा ने अपनी जान पर खेलकर इस फिल्म को बनाया था। आज ऐसा कहने वालों की कमी नहीं है कि ये दूसरे देश का मामला है, हम क्यों बोलें। वहां की औरतें अपनी लड़ाई खुद लड़ें। यदि इसी तर्क को मान  लें तो क्या कल किसी वियतनाम पर हमला हो, तो दुनिया में कोई और न बोले।  दूसरा हिरोशिमा -नागासाकी हो  तो सब चुप रहें क्योंकि यह दूसरे देश का मामला है। 

यह कैसी दुनिया बनाई जा रही है, जिसमें एक तरफ  तो पुरुषों का वर्चस्व इतना है कि स्त्रियों को किसी तरह के अधिकार नहीं। दूसरी तरफ  दक्षिण कोरिया से लेकर अमरीका में भी आंदोलन चल रहा है, जहां औरतें कह रही हैं कि उन्हें पुरुष न किसी पति के रूप में चाहिए, न  ब्वायफ्रैंड के रूप में, न बेटा, न मित्र। औरतें किधर जाएं। वे अतिवाद की दो तरह की चक्की में पिस रही हैं। सबसे अफसोस की बात यह है कि स्त्री विमर्श की तमाम धाराएं जो भारत में भी बहुत मुखर हैं, उनके विमर्श से अल्पसंख्यक  औरतें, उनके अधिकार, सिरे से गायब क्यों हैं। क्या ये औरतें नहीं। क्या इनकी परेशानियां, तमाम अन्य परेशानियों से कम हैं या कि स्त्री विमर्श भी नेताओं और राजनीतिक दलों की तरह उसी अवसरवाद का शिकार हो चला है, जिसमें लाभ-हानि का गणित लगाकर मुंह खोलना पड़ता है। सबसे ज्यादा आश्चर्य अंतर्राष्ट्रीय एजैंसीज की चुप्पी पर होता है।

वे बयान भी देते हैं, तो इतने धीरे से कि शायद ही किसी को सुनाई देता है। वे लोग जो स्त्रियों के हालात पर रात-दिन शोर मचाते हैं, उन्हें अफगानिस्तान में रहने वाली औरतें क्यों नहीं दिखतीं।  वे हर तरह और हर तरफ  से कैद की जा रही हैं, लेकिन इसे धार्मिक मामला कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है। सारे धर्मों को औरतें ही क्यों इतनी दोयम दर्जे की नागरिक लगती हैं कि हर तरह का कहर उन पर ही टूटता है। भारत में भी चुनी हुईं चुप्पियां और चुना हुआ शोर शक पैदा करता है कि क्या वाकई हम अल्पसंख्यक स्त्रियों के बारे में सोचते भी हैं।-क्षमा शर्मा 
 

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