Edited By ,Updated: 14 Jun, 2024 05:41 AM
पुरातन काल से ही सामाजिक व्यवस्थाओं का अभिन्न अंग रहा लेन-देन अपने बदले हुए प्रारूप सहित आज भी विद्यमान है।
पुरातन काल से ही सामाजिक व्यवस्थाओं का अभिन्न अंग रहा लेन-देन अपने बदले हुए प्रारूप सहित आज भी विद्यमान है। आवास, शिक्षा, व्यावसायिक, कृषि आदि सर्च का एक बटन दबाते ही लोन लेने के ढेरों विकल्प हमारे सम्मुख उपस्थित हो जाएंगे। समस्त औपचारिकताएं पूर्ण होने के पश्चात ऋण प्राप्ति संभव होने से भी कहीं कठिन है अपनी विश्वसनीयता कायम रखते हुए अविलंब कर्ज चुकता कर पाना। उधारी का बोझ जी का जंजाल बन जाए तो इसे जानलेवा बनते भी देर नहीं लगती। विगत 23 मई को तमिलनाडु स्थित शिवाकाशी के निकट थिरुथांगल में घटित प्रकरण पर ही दृष्टि डालें, कथित रूप से कर्ज का बोझ एक परिवार के 5 सदस्यों द्वारा सामूहिक आत्महत्या करने का सबब बन बैठा।
ऐसा ही समाचार 24 मई को फरीदाबाद के सैक्टर-37 से प्राप्त हुआ, जहां करोड़ों के कर्ज में डूबे एक व्यापारी ने सपरिवार आत्मघात का प्रयास किया। घटना में परिवार के 70 वर्षीय मुखिया की जान चली गई जबकि 5 सदस्यों की हालत गंभीर है। कथित तौर पर 40 करोड़ की कर्ज वसूली हेतु सूदखोर, रिकवरी एजैंट तथा बदमाशों का परिवार को धमकाना ही घटना को अंजाम देने का कारण बना। सूदखोरों के लिए अक्सर मुनाफे का धंधा साबित होने वाले कर्ज की फितरत ही कुछ ऐसी है कि कब ब्याज राशि जुड़कर भारी-भरकम देय रकम में तबदील हो जाए, पता ही नहीं चलता। दिग्गज कारोबारियों की लुटिया डुबोने से लेकर नामचीन हस्तियों तक को दीवालिया बनाने के अनेकों उदाहरण देश-विदेश में आए दिन देखने में आते ही रहते हैं।
अच्छा-खासा ऋण लेकर उडऩ छू होने के किस्से भी जग जाहिर हैं तो ब्याज वसूली के नाम पर बोटी-बोटी नोच डालने वाले खलनायक भी समाज में बहुतेरे मिल जाएंगे। आॢथक विपन्नता में अपशब्दों की भरमार सहित जब सामाजिक उत्पीडऩ भी शुमार होने लगे तो नि:संदेह, कर्जदार की मानसिक स्थिति उस स्तर तक पहुंचते देर नहीं लगती, जहां सर्वपक्षीय मुक्ति के रूप में केवल प्राणान्त ही विकल्प सूझे। एन.सी.आर.बी. की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2022 के दौरान देश में हुई 1,70,924 आत्महत्याओं के कुल मामलों में 4.1 प्रतिशत आत्महत्याएं आॢथक तंगी व कर्ज के चलते हुईं।
कृषि क्षेत्र पर ही दृष्टिपात करें तो देश भर में 15.5 करोड़ किसानों पर 21 लाख करोड़ का कर्ज है। पिछले 2 दशकों के दौरान हजारों की संख्या में तनावग्रस्त किसानों ने आत्महत्याएं कीं। एक अध्ययन के मुताबिक, 2017 से 2021 के मध्य घटित 1000 किसान-आत्महत्याओं में 88' मामलों के पीछे भारी कृषि ऋण जिम्मेदार रहा। प्रति व्यक्ति औसत मासिक आय में दूसरे स्थान पर होने के बावजूद पंजाब के अधिकतर किसान भारी कर्ज के बोझ तले दबे हैं। कर्ज का यह मकडज़ाल पीढ़ी-दर-पीढ़ी पैठ बनाता जा रहा है।
आजीविका चलाने अथवा मूलभूत सुविधाएं जुटाने हेतु कर्ज लेना जहां निर्धन की मजबूरी है, वहीं ऐश्वर्यशाली जीवन जीने की आकांक्षा पालने वाले सामान्य लोगों के लिए ऋण साधन सम्पन्न बनने का पर्याय भी बन चुका है। दूसरे शब्दों में, उधारी का घी पीने के लोभ ने हमारी ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ वाली पारम्परिक जीवनशैली को काफी हद तक बदलकर रख दिया है। एस.बी.आई. की सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक, वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान परिवारों पर कर्ज का बोझ दोगुना से भी अधिक होकर 15.6 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया।
रिपोर्ट के अनुसार, घरेलू बचत से निकासी का एक बड़ा हिस्सा भौतिक संपत्तियों में चला गया तथा 2022-23 में इन पर कर्ज भी 8.2 लाख करोड़ रुपए बढ़ गया। परिवारों की घरेलू बचत करीब 55' गिरकर सकल घरेलू उत्पाद के 5.1 प्रतिशत पर सिमट गई, जोकि पिछले पांच दशक में सबसे कम है। ऋणभार के संदर्भ में देश की स्थिति आंकें तो भारत के 33 फीसदी से अधिक राज्यों तथा विधायिका वाले केंद्र शासित प्रदेशों ने वर्ष 2023-24 के अंत तक, अपने कर्जों को उनके जी.एस.डी.पी. के 35 फीसदी को पार करने का अनुमान लगाया है।
विगत वर्ष अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपनी वाॢषक रिपोर्ट में भारत को बढ़ते संप्रभु कर्ज (केंद्र व राज्य सरकारों का कुल कर्ज भार) के प्रति सचेत करते हुए, इससे दीर्घकालिक जोखिम बढऩे की आशंका भी व्यक्त की थी, हालांकि भारत सरकार द्वारा आई.एम.एफ. के विश्लेषणात्मक अनुमानों पर तथ्यात्मक रूप से असहमति प्रकट करना एक अलग मुद्दा है। बड़े-बुजुर्गों की समझाइश के अनुरूप यदि ‘चादर देखकर ही पैर पसारने’ की आदत हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन जाए तो कर्ज लेने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। अपरिहार्य कारणों के चलते ऋण लेना निहायत जरूरी हो तो जांच-परखकर विश्वसनीय स्रोतों के माध्यम से ही लिया जाए।
कर्ज चुकता होने की संभावनाएं वहीं पनपती हैं, जहां अपनी देनदारियों के प्रति संजीदगी-ईमानदारी हो। कर्ज लेने की सार्थकता उसके प्रत्येक अंश के सदुपयोग में निहित है। सरकारी योजनाओं हेतु आबंटित राशि में भी यही बात लागू हो तो मानवीय पूंजी एवं प्राकृतिक संसाधनों के संवद्र्धन का एक भी मौका बेकार न जाए। कर्ज दिया है तो वापस मिलने की आस रखना भी स्वाभाविक है किंतु कर्जदार की आॢथक स्थिति जानते-बूझते हुए भी उसे आत्मघात की ओर धकेला जाए तो यह व्यवहार मानवीयता-कानून के आधार पर कहीं भी खरा नहीं उतरता। -दीपिका अरोड़ा