हिमाचल: सुधारों के साथ आत्मनिर्भर बनाने की योजनाओं पर देना होगा ध्यान

Edited By ,Updated: 11 Sep, 2024 05:09 AM

attention will have to be given to plans to make people self reliant

तंगहाल हिमाचल का ‘वैतरणी’ नदी गुजरने का वक्त चल रहा है। प्रदेश में कांग्रेस की सुखविंद्र सरकार को देश भर में ‘कंगाल’ व असफल राज्य के रूप में प्रस्तुत किए जाने से छोटे पहाड़ी राज्य की गरिमा को ठेस भी लगी है।

तंगहाल हिमाचल का ‘वैतरणी’ नदी गुजरने का वक्त चल रहा है। प्रदेश में कांग्रेस की सुखविंद्र सरकार को देश भर में ‘कंगाल’ व असफल राज्य के रूप में प्रस्तुत किए जाने से छोटे पहाड़ी राज्य की गरिमा को ठेस भी लगी है। लेकिन यह बवाल यूं ही नहीं मचा, 53 वर्षीय हिमाचल को खुद के पैरों पर खड़ा  करने की धीमी कोशिश का ही नतीजा है। इसमें विरोध और उथल-पुथल होनी स्वाभाविक है। ऐसा नहीं है कि यहां पर हालात बंगलादेश या श्रीलंका जैसे हो गए हों। दरअसल सुक्खू ने सत्ता में आते ही ‘व्यवस्था परिवर्तन’ का नारा दिया। यानी जो कुछ ठीक नहीं है, उसकी मुरम्मत करनी है। इसी फार्मूले पर वित्तीय प्रबंधन आ गया तो वहीं चुनावी कसमें, परिवर्तन की राह में रोड़ा बन गईं। 

फिजूल खर्ची रोकने, अपने हक वापस लेने जैसे बिंदुओं पर जो नट कसे गए, उनसे प्रदेश की झोली झटपट कितनी भरेगी, यह कांग्रेस के इस शासन में संभव नहीं लेकिन पिछले वर्षों में कई सरकारों व मुख्यमंत्रियों के फैसलों से कर्ज में डूबे राज्य को बाहर निकालने का सुक्खू का प्रयास, कर्मचारियों के हौसले बुलंद कर रहा है। तभी विरोध के स्वर उठने लगे हैं। शायर कतिल शिफाई की पंक्तियां इन हालात को समझने को काफी हैं- ‘सूरज के हमसफर जो बने हो तो सोच लो, इस रास्ते पे प्यास का दरिया आएगा।’

वास्तव में सुक्खू ने सत्ता में आते ही कई ऐसे फैसले लिए, जो प्रदेश को चलाने के लिए व्यावहारिक तो थे लेकिन आमजन को कड़वे लगने  ही थे। रिसोर्स मोबिलाइजेशन के नाम पर बिजली जैसी मुफ्त स्कीमें बंद हुईं, मुफ्त यात्रा बंद, किराया महंगा, पानी की दरें बढऩा, स्कूलों का बंद होना, सरकारी कर्मियों के रैस्ट हाऊसों की कीमतें बढ़ाना, व्यवस्था परिवर्तन का मजबूत हिस्सा जितना बनीं, उतना ही जनता की नापसंदगी का भी। आखिर मुफ्त का मिलना किसे बुरा लगता है?

यह तो था खर्च को कम करना या हिमाचल के अपने हकों को वापस मांगना। लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है कि प्रदेश के खुद के राजस्व संसाधन बढ़ाना, जिससे लोगों को नौकरियां मिलें। ऐसी शिक्षा मिले, जिससे रोजगार जुड़ा हो। लेकिन यह सब करना चुटकी में जादू की छड़ी चलाने जैसा नहीं  है। प्रदेश की वित्तीय स्थिति तीन दशकों में बिगड़ी है, तो तीन वर्ष में होना  संभव ही नहीं है। लिहाजा कांग्रेस की सुक्खू सरकार का विरोध होना ही है क्योंकि पहली सरकारों ने ऐसे कोई फैसले नहीं लिए, जो व्यावहारिक हों। इसलिए कर्ज का आंकड़ा बढ़ता गया। बचत हुई नहीं और  मुफ्त की आदत जनता को लग गई। 

आर्थिक स्थिति को लेकर रुख : बता दें कि जैसे नरेंद्र मोदी केंद्र में कहते हैं कि भारत 2047 तक विकसित बनेगा, वैसे ही सुक्खू कहते हैं कि हिमाचल 2032 तक संपन्न बनेगा। उनका दावा है कि उनके फैसलों से प्रदेश में एक वर्ष में 20 प्रतिशत इकॉनोमी को सुधारा है। अब इन सब के लिए उनके हिसाब से पैसा आएगा- हिमाचल के बी.बी.एम.बी. के प्रोजैक्ट के 4,000 करोड़ शेयर के हिस्से का, टैक्स प्रक्रिया को बदल कर, शानन हाईड्रोपावर प्रोजैक्ट को वापस लेकर, नए पावर प्रोजैक्ट बनाकर, नई खनिज पॉलिसी के माध्यम से और पैट्रोल-डीजल  की खपत को कम करके। वहीं अपने हकों को वापस लेने में केंद्र से सुक्खू सरकार ने एन.पी.एस.  के 9200 करोड़ रुपए वापस मांगे हैं। कुल मिलाकर तुरंत धन लेने के लिए अपने हिस्से का हक मांगने और बचत पर काम तो  हुआ है। लेकिन 90,000 करोड़ के कर्ज लेने के बाद कांग्रेस सरकार को पर्यटन की ओर तुरंत ध्यान देना होगा।

उद्योगों को निमंत्रण देना होगा, जो लगे हैं उन्हें सहेजना होगा। यह वह क्षेत्र है, जहां निवेश आए तो बेरोजगारी दूर होगी। इसलिए इन क्षेत्रों के लिए विशेष इन्सैंटिव देने होंगे- चाहे जमीन की रियायत नियमों में लचीलापन हो या इन्वैस्टर-फ्रैंडली निर्णय। हां, पर्यावरण व वन के क्षेत्र से भी रास्ता निकाला जा सकता है। ग्रीन सैस हो या वन कटान का कानूनी रास्ता, त्वरित आय का संसाधन बनेगा लेकिन सरकारी नौकरियों का बोझ कम करना होगा। खास तौर पर बैक डोर एंट्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना होगा। 

पैंशन देने के फैसले से संकट में पड़ी सुक्खू सरकार को जिस तरह से कर्मचारियों ने आंखें दिखाई हैं, वह आग में घी का काम करेगी। या तो कर्मचारियों का भी व्यवस्था परिवर्तन किया जाए, छंटनी की जाए या फिर सचिवालय, राजभवन, विधानसभा, संवैधानिक दफ्तरों से कर्मियों को तबादला नीति के तहत लाकर ट्रांसफर  करने का प्रावधान किया जाए। वर्ना एक ही जगह जमे कुछ कर्मचारियों की हालत राज्य चयन आयोग हमीरपुर में घपले-घोटाले करने की हालत का उदाहरण भर है। 

वास्तव में वीरभद्र सिंह सरकार हो या धूमल या जयराम ठाकुर की, पहले ठेके या अनुबंध पर कर्मचारियों को रखने व फिर बगैर प्रवेश परीक्षा के नियमित करने और फिर तबादले न कर पाने का ही नतीजा है कि वे सत्तासीन सरकार को ही घेरने की हिमाकत  कर सके। व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में सुक्खू ने कानूनी बिलों में संशोधन का ताॢकक तुरुप भी चला है। चाहे विश्वविद्यालयों में नियुक्तियां हों, स्कूल बंद करने हों  या बर्खास्त विधायकों के भत्ते-पैंशन काटना लेकिन इन सभी से व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता तो निकलता है, पर व्यवस्था ‘विकास’ का नहीं। खास कर इस कार्यकाल में। 

जाहिर है कि पूर्व सरकारों के वर्ष 2005 से आगे बढ़ते कर्ज, 2007 : 1977 करोड़, 2012 : 25598, 2017 : 46385, 2022 : 69,122, 2024 : 86,589 और अब 95,000 करोड़ रुपए के कर्ज से निकलने के लिए सुधार काफी नहीं, बल्कि नए आयामों को तलाशना होगा। पानी, बिजली, शिक्षा, ट्रांसपोर्ट आम व गरीब व्यक्ति से जुड़े हुए मामले हैं, इन्हें छेड़ कर देनदारियों से निकल पाना संभव नहीं। इसलिए पर्यटन, उद्योग एवं ऊर्जा संयंत्रों पर ध्यान देना होगा। -डा. रचना गुप्ता

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