Edited By ,Updated: 02 Mar, 2025 05:41 AM
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बिना उकसावे के युद्ध किसी बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए नहीं बल्कि पक्षपातपूर्ण विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए होते हैं। भाजपा को बिना उकसावे के झगड़ा शुरू करने का शौक है। नागरिकता संशोधन अधिनियम (सी.ए.ए.) और समान नागरिक संहिता (यू.सी.सी.) इसके...
बिना उकसावे के युद्ध किसी बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए नहीं बल्कि पक्षपातपूर्ण विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए होते हैं। भाजपा को बिना उकसावे के झगड़ा शुरू करने का शौक है। नागरिकता संशोधन अधिनियम (सी.ए.ए.) और समान नागरिक संहिता (यू.सी.सी.) इसके उदाहरण हैं। इन्हें किसी जरूरत को पूरा करने के लिए नहीं बनाया गया था। सी.ए.ए. और यू.सी.सी. दोनों को आर.एस.एस-भाजपा ने हिंदू और गैर-हिंदू समुदायों के बीच मतभेद पैदा करने के लिए आगे बढ़ाया।
केंद्र सरकार ने एक और बिना उकसावे के युद्ध का बिगुल फूंका है जो इस बार भाषा पर है। तथाकथित ‘तीन भाषा फार्मूला’(टी.एल.एफ..) को सबसे पहले राधाकृष्णन समिति ने पेश किया था। यह आते ही धराशायी हो गया। किसी भी राज्य ने कभी टी.एल.एफ.. को लागू नहीं किया। टी.एल.एफ .प्राथमिकता नहीं : इसके कई कारण थे। पहली प्राथमिकता स्वाभाविक रूप से स्कूलों के निर्माण और शिक्षकों की नियुक्ति को दी गई। दूसरी प्राथमिकता सार्वभौमिक नामांकन और बच्चों को स्कूल में बनाए रखना था। अगला काम था शिक्षण की गुणवत्ता में सुधार करना। न केवल भाषाओं का बल्कि गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल और सामाजिक अध्ययन जैसे अन्य समान रूप से महत्वपूर्ण विषयों का भी। स्वतंत्रता के 78 वर्षों के बाद भी ये कार्य अधूरे हैं।
भाषा ‘शिक्षा’ के कारण नहीं बल्कि संविधान के अनुच्छेद 343 के कारण विस्फोटक मुद्दा बन गई। इसने घोषित किया कि हिंदी संघ की आधिकारिक भाषा होगी लेकिन अंग्रेजी का उपयोग 15 वर्षों की अवधि के लिए जारी रहेगा। 15 वर्ष 1965 में समाप्त हो गए। एक अविवेकी सरकार ने घोषणा की कि 26 जनवरी,1965 से हिंदी एकमात्र आधिकारिक भाषा होगी। प्रतिक्रिया तत्काल और स्वत: स्फूर्त थी। तमिलनाडु में विद्रोह हुआ और एक द्रविड़ पार्टी सत्ता में आई। जवाहरलाल नेहरू ने वादा किया था कि जब तक गैर-ङ्क्षहदी भाषी लोग चाहेंगे, तब तक अंग्रेजी सह-आधिकारिक भाषा के रूप में जारी रहेगी। 1965 के संकट के चरम पर, केवल इंदिरा गांधी में ही कट्टरपंथियों को चुनौती देने और वादा दोहराने का साहस और बुद्धि थी। वादे से ज्यादा, प्रशासन की जरूरतों ने केंद्र सरकार को द्विभाषी होने के लिए बाध्य किया। ङ्क्षहदी, अन्य भारतीय भाषाओं की तरह विज्ञान, कानून, अर्थशास्त्र, इंजीनियरिंग, विदेशी व्यापार, विदेशी संबंध, अंतर्राष्ट्रीय निकायों आदि की मांगों का सामना करने के लिए पर्याप्त बहुमुखी नहीं थी। राज्य सरकारें भी द्विभाषी हैं और कानून पारित करने और प्रशासन के कई पहलुओं के लिए अंग्रेजी पर निर्भर हैं।
इस बीच, दूरगामी परिणामों वाले 3 घटनाक्रम हुए हैं। एक, 1975 में,‘शिक्षा’ को राज्य सूची से समवर्ती सूची में स्थानांतरित कर दिया गया, जिससे स्कूली शिक्षा के मामले में राज्यों की स्वायत्तता खत्म हो गई। दूसरा, भारत ने 1991 में उदारीकरण और वैश्वीकरण को अपनाया और अनिवार्य रूप से अंग्रेजी को अपनाया। तीसरा, माता-पिता की ओर से अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की मांग थी और यह बढ़ती जा रही है।
तीसरी भाषा कौन सी है? : वर्तमान संघर्ष नई शिक्षा नीति (2020) और विशेष रूप से टी.एल.एफ. के पहलुओं पर है। क्षेत्रीय/राज्य भाषा स्कूलों में ‘प्रथम’ भाषा है। अंग्रेजी द्वितीय भाषा है लेकिन ‘तीसरी’भाषा कौन सी है?
केंद्रीय शिक्षा मंत्री के पास एक सरल तर्क है। एन.ई.पी. एक राष्ट्रीय नीति है और प्रत्येक राज्य संवैधानिक रूप से नीति को अपनाने के लिए बाध्य है। इसके अलावा जबकि एन.ई.पी. तीसरी भाषा के शिक्षण को अनिवार्य बनाता है, यह निर्धारित नहीं करता है कि तीसरी भाषा हिंदी होनी चाहिए। धर्मेंद्र प्रधान ने मासूमियत का दिखावा करते हुए पूछा कि तमिलनाडु सरकार एन.ई.पी. और तीसरी भाषा के शिक्षण का विरोध क्यों कर रही है?
उत्तर सरल हैं : (1) एन.ई.पी. वर्तमान केंद्र सरकार की नीति है और संविधान द्वारा अनिवार्य नहीं है और (2) तमिलनाडु में लगातार सरकारों की आधिकारिक नीति रही है कि सरकारी स्कूलों में 2 भाषाएं (तीन नहीं) पढ़ाई जाएंगी। तमिलनाडु सरकार ने निजी स्कूलों में ङ्क्षहदी को एक विषय के रूप में पढ़ाने में कोई बाधा नहीं डाली है।
कई राज्यों में एक भाषा : जहां तक एन.ई.पी. का सवाल है, एन.ई.पी. में अच्छी और अस्वीकार्य दोनों विशेषताएं हैं। विवादास्पद विशेषताओं में से एक है टी.एल.एफ.। टी.एल.एफ. को हिंदी भाषी राज्यों में लागू नहीं किया गया है लेकिन गैर-हिंदी भाषी राज्यों में इसे लागू करने की कोशिश की गई है। यह रिकॉर्ड में है कि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा के सरकारी स्कूल प्रभावी रूप से केवल हिंदी की एक भाषा नीति का पालन करते हैं। जिन कुछ स्कूलों में तीसरी भाषा पढ़ाई जाती है वहां हमेशा संस्कृत होती है। पंजाब, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में तीसरी भाषा हिंदी है लेकिन यह सर्वविदित है कि पंजाबी, गुजराती और मराठी का हिंदी से गहरा संबंध है। इसके अलावा, पढ़ाई जाने वाली अंग्रेजी की गुणवत्ता बहुत खराब है। जिन सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाई जाती है, वहां पढऩे वाले बच्चे अंग्रेजी कक्षा के बाहर शायद ही अंग्रेजी बोल पाते हैं। यह सभी राज्यों के लिए सच है, जिसमें तमिलनाडु भी शामिल है। सरकार अंग्रेजी, जो कि स्वीकृत दूसरी भाषा है, पढ़ाने में विफल रही है या सरकार को तीसरी भाषा पढ़ाने में सफल होने की महत्वाकांक्षा क्यों है?-पी. चिदम्बरम