Edited By ,Updated: 21 Feb, 2025 06:08 AM
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पिछले साल लोकसभा चुनाव में 303 से 240 सीटों पर सिमट जाने के झटके से भाजपा 8 महीने में पूरी तरह उबर गई है। 4 जून, 2024 को आए लोकसभा चुनाव परिणाम भाजपा के विजय रथ की राह में बड़े ‘स्पीड ब्रेकर’ की तरह थे। 2014 में उसने 282 सीटों के साथ, 3 दशक बाद किसी...
पिछले साल लोकसभा चुनाव में 303 से 240 सीटों पर सिमट जाने के झटके से भाजपा 8 महीने में पूरी तरह उबर गई है। 4 जून, 2024 को आए लोकसभा चुनाव परिणाम भाजपा के विजय रथ की राह में बड़े ‘स्पीड ब्रेकर’ की तरह थे। 2014 में उसने 282 सीटों के साथ, 3 दशक बाद किसी एक दल को, स्पष्ट बहुमत का कमाल किया था, तो 2019 में अपनी सीटें बढ़ा कर 303 तक ले गई थी। इसलिए ‘अबकी बार, 400 पार’ के नारे के बीच पिछले साल लोकसभा चुनाव में अपने दम पर बहुमत से भी वंचित हो जाना बड़ा झटका था, पर तीसरी बार, तेलुगु देशम पार्टी और जद-यू जैसे सहयोगियों के समर्थन से, सरकार बनाने के बाद भाजपा अपने विजय रथ को फिर से पुरानी रफ्तार देने में सफल नजर आती है।
बेशक पिछले साल लोकसभा चुनावों के साथ हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा पहली बार ओडिशा में सरकार बनाने में सफल रही थी। आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी की सत्ता में वापसी में भी वह गठबंधन- भागीदार थी, लेकिन उसके विजय रथ को रफ्तार मिली हरियाणा और महाराष्ट्र की चुनावी जीत से, जिसे अब दिल्ली में 27 साल बाद सत्ता में वापसी से और भी पंख लग गए। बेशक 2 दर्जन विपक्षी दलों द्वारा ‘इंडिया’ गठबंधन बनाने तथा संविधान और आरक्षण को खतरे जैसे मुद्दे उठाने से 18वीं लोकसभा का चुनाव भाजपा के लिए कठिन साबित हुआ, लेकिन उसके बाद वह तेजी से चुनावी रणनीति और समीकरण बदलने में सफल रही है। लोकसभा चुनाव तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम और चेहरा ही भाजपा का सबसे बड़ा चुनावी ‘ट्रंप कार्ड’ रहा। लोकसभा चुनाव के बीच ही भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने एक इंटरव्यू में यहां तक कह दिया कि शुरूआत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद पर निर्भर रही पार्टी अब समर्थ हो गई है, लेकिन उसके बाद उसकी चुनावी रणनीति में बड़ा परिवर्तन नजर आता है।
बेशक मोदी की लोकप्रियता अभी भी भाजपा का सबसे बड़ा सकारात्मक पक्ष है, लेकिन अब वह बहुआयामी चुनावी रणनीति के तहत चुनावी जंग में उतरती है। लोकसभा चुनाव में भाजपा को लगे झटके के 3 प्रमुख कारण माने गए। एक, नड्डा की टिप्पणी से संघ की नाराजगी। दो, राज्य नेतृत्व की चुनाव में नगण्य भूमिका। तीन, विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ द्वारा उठाए गए संविधान और आरक्षण को खतरे के मुद्दे। इसलिए भाजपा ने संघ से समन्वय और बेहतर संबंध बनाते हुए विधानसभा चुनावों में प्रदेश नेतृत्व को भी चुनावी मोर्चे पर आगे रखा। साथ ही वर्ष 2023 के अंत में खासकर मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में ‘गेम चेंजर’ साबित हुई ‘लाड़ली बहना’ योजना से प्रेरित हो कर ‘मुफ्त रेवड़ी राजनीति’ को भी चुनावी रणनीति का खास अंग बनाया। बेशक भाजपा की हालिया चुनावी सफलताओं में ‘इंडिया’ में बढ़ता असंतोष तथा संविधान और आरक्षण के मुद्दों कांग्रेस से इतर दलों की आक्रामकता में कमी भी मददगार रही है, लेकिन मोदी की भाजपा ने फिर से ‘चुनाव जिताऊ’ मंत्र खोज लिया लगता है।
बेशक दिल्ली में तो भाजपा लगातार तीसरी बार सभी 7 लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही थी, लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र में, सत्तारूढ़ होने के बावजूद, उसे जबरदस्त झटका लगा था। उसके बाद ही भाजपा ने राज्यों के चुनावों में स्थानीय नेतृत्व और मुद्दों पर ज्यादा फोकस करना शुरू किया। महाराष्ट्र तो इस मामले में मिसाल है, जहां क्षेत्रवार चुनावी रणनीति बनाई गई। बेशक हरियाणा में भी भाजपा अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने में सफल रही, लेकिन महाराष्ट्र में उसने इतिहास ही रच दिया।
मध्य प्रदेश की तर्ज पर ‘लाड़ली बहना’ योजना समेत रिकॉर्ड संख्या में लोक लुभावन योजनाएं घोषित की गईं तो महायुति के मित्र दलों की जीत की भी बिसात बिछाई गई। हरियाणा और महाराष्ट्र में शानदार जीत के बावजूद देश की राजधानी दिल्ली में भाजपा की राह आसान नहीं थी। आखिर लोकसभा चुनाव में सातों सीटें जिताने के बावजूद दिल्ली के मतदाता उसे राज्य की सत्ता के पास भी नहीं फटकने दे रहे थे और आप उनकी पहली पसंद बनी हुई थी।
दरअसल दिल्ली में ‘आप’ ने एकछत्र राज-सा कायम कर लिया था। 2013 के विधानसभा चुनाव में तो 28 सीटें जीती ‘आप’ को 8 सीटों वाली कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनानी पड़ी, लेकिन 2015 और 2020 में उसने क्रमश: 67 और 62 सीटें जीत कर देश और दुनिया को चौंका दिया। विश्व की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा क्रमश:3 और 8 सीटों पर सिमट गई तो देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस खाता भी नहीं खोल पाई। शराब घोटाले और शीश महल के आरोपों से घिरे अरविंद केजरीवाल के विरुद्ध भाजपा ने जहां बेहद आक्रामक अभियान चलाया, वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सघन जन संपर्क के जरिए बड़ी भूमिका निभाई। ‘आप’ के संयोजक केजरीवाल को चुनावी रणनीति में बेहद चतुर माना जाता रहा है, लेकिन उन्हें भी उनके गढ़ में ही करारी मात देकर भाजपा ने विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के लिए चुनावी खतरे की घंटी बजा दी है।
पंजाब की परिस्थितियां पूरी तरह अलग हैं, लेकिन दिल्ली की सत्ता गंवाने के बाद आप के लिए दिल्ली नगर निगम में भी अपनी सत्ता बचा पाना आसान नहीं होगा। जाहिर है, फिर से रफ्तार पकड़ चुके भाजपा के विजय रथ से मुकाबला अंतर्कलह से ग्रस्त विपक्ष के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण होगा।-राज कुमार सिंह