बुलडोजर न्याय : न्यायिक व्यवस्था को लेकर गंभीर चिंता

Edited By ,Updated: 02 Apr, 2025 05:22 AM

bulldozer justice serious concern about the judicial

तापमान बढऩे के साथ राजनीतिक भारत में भी गर्मी बढ़ रही है और इसका कारण अभूतपूर्व बुलडोजर राजनीति है। इस भारी भरकम मशीन ने गौरव प्राप्त कर लिया है क्योंकि भाजपा ने बुलडोजर की शक्ति को न केवल एक निर्जीव मशीन की शक्ति के रूप में, अपितु एक राष्ट्रवादी...

तापमान बढऩे के साथ राजनीतिक भारत में भी गर्मी बढ़ रही है और इसका कारण अभूतपूर्व बुलडोजर राजनीति है। इस भारी भरकम मशीन ने गौरव प्राप्त कर लिया है क्योंकि भाजपा ने बुलडोजर की शक्ति को न केवल एक निर्जीव मशीन की शक्ति के रूप में, अपितु एक राष्ट्रवादी राजनीति के विचार के रूप में प्रस्तुत किया है और यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि यह एक सुदृढ़, निर्णायक, अच्छे और प्रभावी शासन का अंग है और इस तरह उसने कानून के शासन को कानून द्वारा शासन में बदल दिया है। इस भारी भरकम बुलडोजर को राजनीतिक चर्चा में लाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी बनाम बुलडोजर बाबा को जाता है और वर्ष 2017 से वहां सांप्रदायिक दंगाइयों और अपराधियों के विरुद्ध इसका उपयोग किया जा रहा है। अल्पसंख्यक समुदायों के घरों को तोडऩे में इसकी सफलता के चलते अन्य भाजपा शासित राज्यों में भी इसका समर्थन होने लगा है। 

मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री खट्टर को क्रमश: बुलडोजर मामा और बुलडोजर ताऊ के रूप में जाना जाता है। उसके बाद दिल्ली, असम, गुजरात, उत्तराखंड, महाराष्ट्र और पंजाब ने भी राज्य प्रतिकार के रूप में बुलडोजर मॉडल को अपना लिया है। इसका कारण क्या है? मुंबई और नागपुर में सांप्रदायिक झड़पों के बाद मुस्लिमों के स्वामित्व वाली संपत्तियों को तोड़ा गया। पटियाला, लुधियाना, मोहाली में तस्कर मादक द्रव्यों को बेचकर घर बना रहे हैं। यही नहीं, विपक्ष शासित राज्यों में भी धु्रवीकरण बढ़ गया है। कांग्रेस शासित हिमाचल के शिमला के संजोली में एक मस्जिद को गिराया गया और इसी तरह कर्नाटक के हुबली में दंगाइयों के घरों को तोड़ा गया। 

वर्ष 2022-23 में बुलडोजर द्वारा 1,53,820 और वर्ष 2024 में 7,407 घर गिराए गए और इनमें सबसे अधिक संख्या उतर प्रदेश में है। उसके बाद दिल्ली, गुजरात और असम का स्थान आता है। गिराए गए घरों में 37 प्रतिशत घर मुसलमानों के हैं या मुस्लिम क्षेत्रों के हैं। इस बुलडोजर राजनीति ने एक बड़ा विवाद भी पैदा किया। विपक्ष इसे संविधान का उपहास बता रहा है और कह रहा है वर्ष 2014 से सत्ता में आने के बाद मुसलमानों को निशाने पर लेने के लिए यह घृणा की राजनीति का न्यायेत्तर औजार है। निरंकुश कानूनों के अंतर्गत सुनियोजित दमन किया जा रहा है। यहां पर लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का न केवल दमन किया जा रहा है, अपितु ऐसा करने के बाद उत्साह का वातावरण भी तैयार किया जा रहा है। ऐसे नारे लगाए जा रहे हैं कि देश की सुरक्षा में जो बनेगा रोड़ा, बुलडोजर बनेगा हथौड़ा। 

प्रश्न उठता है कि क्या यह राजनीतिक बाहुबल और दादागिरी का प्रदर्शन है या यह कानूनी है और दंगाइयों के विरुद्ध एक प्रतिरोधक है। हमारी लोकतांत्रिक जागरूकता इतनी कमजोर बन गई है कि ऐसे उदाहरण मानदंड और सिद्धांत बनते जा रहे हैं और स्थापित कानूनी सिद्धांतों का इस भारी भरकम मशीन द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है और यह एक राजनीतिक औजार बन रहा है जिसका उपयोग एक मजबूत नेता की छवि बनाने के लिए भी किया जा रहा है और इससे सामाजिक मतभेद भी बढ़ रहे हैं। 

उच्चतम न्यायालय ने एक उल्लेखनीय निर्णय देकर बुलडोजर कार्रवाई पर अंकुश लगाने का प्रयास किया है। न्यायालय ने कहा कि कानून की उचित प्रक्रिया का उपयोग किए बिना कथित आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होने के आधार पर किसी व्यक्ति की संपत्ति को गिराना असंवैधानिक है और यह नैसॢगक न्याय के सिद्धान्तों तथा मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। इसके लिए संबंधित व्यक्ति को 15 दिन का नोटिस देना होगा और उसकी बात सुननी होगी। किंतु विभिन्न राज्यों की सरकारें न्यायालय के निर्णय को नजरअंदाज कर रही हैं। इससे न्यायिक व्यवस्था के बारे में गंभीर चिंता पैदा होती है। इससे भी अधिक ङ्क्षचता की बात यह है कि कार्यपालिका न्यायालय के निर्णयों का पालन करने में विफल रही है। इससे न केवल कानून का शासन कमजोर हो रहा है अपितु न्यायालय की अवमानना के लिए एक खतरनाक पूर्वोदाहरण स्थापित हो रहा है। कुछ लोगों का कहना है कि न्याय के इस स्वरूप में न तो उचित प्रक्रिया के लिए सम्मान है और न ही समय। इस संस्थागत कदम से न केवल कानून के शासन को खतरा पैदा हो रहा है अपितु इसके अंतर्गत दमनकारी नीतियों को भी अपनाया जा रहा है जो लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक स्वतंत्रता के विरुद्ध है।

इससे प्रश्न उठता है कि यदि राज्य बुलडोजर न्याय जारी रखते हैं तो उच्तचम न्यायालय के निर्णय से उन लोगों को कितनी राहत मिलेगी जिनकी संपत्ति गिराई गई है क्योंकि यह कानूनी या प्रशासनिक चिंताओं का निराकरण करने की बजाय सामूहिक दंड देने का औजार बन गया है। यदि इस प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगाया गया तो कार्यपालिका की शक्ति पर अंकुश लगाने की न्यायपालिका की भूमिका कमजोर हो जाएगी और इससे संवैधानिक व्यवस्था ही खतरे में पड़ जाएगी। कुछ लोगों का तर्क है कि यह सब इसलिए हो रहा है कि हमारी दांडिक न्याय प्रणाली विफल हो गई है और पुलिस का दमन जारी है, जहां पर अनधिकृत निर्माण के नाम पर या विनियमों का पालन न करने के नाम पर घरों को गिराकर लोगों को आतंकित किया जा रहा है। या कई बार इसका कारण यह भी बताया जाता है कि राष्ट्र विकास के उद्देश्य के लिए ऐसी कुछ संपत्तियों को गिराना आवश्यक है, जिससे इन्हें न्यायालय में चुनौती देना भी कठिन हो जाता है। तथापि बुलडोजर राजनीति राजनीतिक विचारधारा में एक बदलाव लाई है, जिसमें नागरिकों के दायित्वों के साथ उनके कत्र्तव्य भी हैं। मौलिक कत्र्तव्यों, भाईचारा, सांझी संस्कृति, सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा आदि को जोड़ दिया गया है, ताकि नागरिक अपने कृत्यों के लिए अपने अधिकारों की शरण न लें। 

फलत: ऐसे वातावरण में, जहां पर सुशासन और उत्तरदायित्व सरकार का मुख्य दायित्व है, वहां पर राज्य जब यह कहता है कि नागरिकों की भी अपनी जिम्मेदारियां, कत्र्तव्य और राष्ट्र के प्रति दायित्व है, उचित है। यह जमीनी स्तर पर समाज को सुदृढ़ करने के लिए आवश्यक है। नि:संदेह दंगाइयों को दंड अवश्य मिलना चाहिए। लोग भी अपनी सोच बदलें और यह समझें कि मौलिक अधिकारों के साथ-साथ राष्ट्र के प्रति हमारे मौलिक कत्र्तव्य भी हैं। राष्ट्र को स्ट्रीट पावर तथा कत्र्तव्यों और उत्तरदायित्वों के बीच एक संतुलन बनाना होगा जो एक शांतिपूर्ण स्वतंत्र भारत की दिशा में पहला कदम होगा।-पूनम आई. कौशिश
 

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