Edited By ,Updated: 24 Sep, 2023 04:38 AM

अंग्रेजी के कई प्रथमाक्षरों के मेल से बने विपक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन में जितने और जैसे दल साथ आए हैं वहां की काफी खबरें खुद भी आती हैं और शासक जमात तथा उसके भक्तों द्वारा लाई भी जाती हैं। जाहिर तौर पर कुछ खबरें सही होंगी कुछ बनावटी या सुनी-सुनाईं।
अंग्रेजी के कई प्रथमाक्षरों के मेल से बने विपक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन में जितने और जैसे दल साथ आए हैं वहां की काफी खबरें खुद भी आती हैं और शासक जमात तथा उसके भक्तों द्वारा लाई भी जाती हैं। जाहिर तौर पर कुछ खबरें सही होंगी कुछ बनावटी या सुनी-सुनाईं। सब पर चर्चा होती रही है और होगी भी। पर एक खबर सुनी-सुनाई लगकर भी खास चर्चा के योग्य है। सुनी-सुनाई इसलिए कि इस बारे में आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं कहा गया है और जिन लोगों को लेकर यह चर्चा उड़ी है उनकी या उनके भक्त गणों की तरफ से भी कुछ खास नहीं कहा गया है जिससे इसे पक्की मान लिया जाए।
पर सुनी-सुनाई होकर भी यह खबर पक्की लगती है कि इस विपक्षी गठबंधन के सूत्रधार नीतीश कुमार जातीय जनगणना की मांग को इंडिया गठबंधन का मुख्य एजैंडा बनाकर भाजपा को बैकफुट पर लाना चाहते थे जबकि ‘इंडिया’ नाम देने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के विरोध से यह प्रस्ताव अटक गया। दोनों के स्वभाव, दोनों की राजनीति और ऐसे मामलों में कांग्रेस का पंच बन जाने की आदत के चलते हम इस खबर को भरोसे लायक मानकर यह चर्चा कर रहे हैं।
नीतीश कुमार की 50 साल की राजनीति में जाति और आरक्षण एक बड़ा क्या संभवत: सबसे बड़ा मुद्दा रहा है तो बंगाल की राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे धुरंधर भी जाति के तत्व को एक सीमा से ज्यादा प्रमुखता न दिला पाए और इस चक्कर में अब भाजपा बंगाल में तेजी से गिर रही है। भाजपा के रणनीतिकार पहले धर्म पर तो बाद में माटुआ जैसी जाति के बहाने बंगाल में जाति का डिस्कोर्स लाना चाहते थे जो न हो सका। पर अब खबर आ रही है कि ममता बनर्जी भी जातीय जनगणना के सवाल पर नरम पड़ी हैं क्योंकि कांग्रेस इसे मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के चुनाव में मुद्दा बनाना चाहती है और इसका असर होता दिख रहा है। इन चार राज्यों के चुनाव 2024 के लोकसभा चुनाव का असली रंग तय करेंगे और ममता रंग में भंग करने का दोषी बनना नहीं चाहतीं।
जातीय ध्रुवीकरण के हिसाब से हिन्दी पट्टी के ये तीनों ही राज्य तब भी सुप्तावस्था में ही थे जब मंडल ने देश की राजनीति को झकझोरा था। लेकिन धीरे-धीरे इन पर भी मंडल का रंग चढ़ा और गाढ़ा हुआ है। माना जाता है कि ऐसा करने में उमा भारती, बाबूलाल गौर, शिवराज सिंह चौहान, अशोक गहलोत और भूपेश बघेल की भूमिका है। और मंडल मामले या जाति के सवाल को सबसे ऊपर न मानने वाली भाजपा चाहकर भी शिवराज को हटा न पाई तो उसका सबसे बड़ा कारण उनका पिछड़ा होना है। होने को तो स्वयं प्रधानमंत्री पिछड़ा समुदाय से आते हैं और देवेगौड़ा के बाद इस पद पर आने वाले दूसरे प्रधानमंत्री हैं। लेकिन आज भी उनकी छवि में हिन्दू, गुजराती और कार्पोरेट माडल के विकास वाले तत्व जितने प्रबल हैं उतना उनका पिछड़ा होना नहीं है। और वे कई बार चुनाव में पिछड़ा कार्ड जरूर खेलते हैं लेकिन खुद उनकी पसंद, संघ की उनकी ट्रेनिंग और भाजपा की राजनीति जाति के आधार से अलग रही है।
मंडल आने का वक्त तो काफी पहले बीता है अभी हाल तक संघ प्रमुख ने जो कुछ कहा उसे लेकर ही बिहार चुनाव में लालू-नीतीश ने भाजपा को घेर लिया था। अभी भी अकेले बिहार भाजपा ही वहां की जातीय जनगणना पर मुश्किल से हां कर पाई। उत्तर प्रदेश में तो खास तौर से योगी जी खिलाफ हैं और बोलते भी रहते हैं। यही नहीं इस मसले पर भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो हल्फनामा दिया और अगले दिन बदला वह भी सरकार की मंशा को बताने के साथ विपक्ष को हथियार देने जैसी भूल ही थी। पर राजनीतिक लड़ाई में माहिर नरेंद्र मोदी ने तत्काल भूल सुधार भी किया और ज्यादा तैयारी से किया। लाल किले के अपने भाषण में उन्होंने विभिन्न हुनरों से समाज और अर्थव्यवस्था में योगदान देने वाली जातियों के लोगों के लिए विश्वकर्मा योजना शुरू करने का ऐलान भी किया था जिसकी विधिवत शुरूआत विश्वकर्मा जयंती के दिन हो भी गई।
छोटी-बड़ी और उपयोगी के साथ ही गांव घर में स्वायत्त रूप से चल सकने वाली इंजीनियरिंग वाले इन कामों-लोहार, मोची, कुम्हार, बढ़ई, बुनाई, कताई वगैरह के लिए शुरू इस योजना में सिर्फ जाति और आरक्षण की चर्चा हुई और इसके सहारे राजनीतिक ध्रुवीकरण करने की जगह इन छोटे-छोटे कामों के लिए छोटे ऋण और सहायता देकर उनकी मदद करना और उत्पादक कामों में सहयोग करके अर्थव्यवस्था को मदद करना हो सकता है। अब यह अलग बात है कि आज सरकार जिस अर्थनीति को चला रही है उसमें इन पेशों का भविष्य अंधकारमय ही दिखता है।
जब तक उन नीतियों में इनके लिए गुंजाइश नहीं छोड़ी जाएगी और सरकारी खरीद में प्रोत्साहन देकर इन पेशों को बढ़ावा नहीं दिया जाएगा, यह योजना भी काफी हद तक वोट बटोरू ही कहलाएगी। सरकार, भाजपा और मोदी जी चुनाव में विपक्ष द्वारा उठाए जाति के कार्ड का मुकाबला करने में इस योजना का सहारा लेंगे ही और भाजपा ने मंडल की भूमि रही बिहार और उत्तर प्रदेश में भी राजनैतिक मैदान छोड़ा नहीं है। उत्तर प्रदेश तो उसका सबसे बड़ा गढ़ है और इसमें उसने मंडल को ही आधार बनाने वाली सपा और बसपा दोनों को मात दी है। जाति के साथ उसका ध्रु्रवीकरण होना भी महत्वपूर्ण है और यह एक राजनीतिक काम है, मंत्र जपने का नहीं। राजनीतिक कामों में नीतीश कुमार, अखिलेश यादव और मायावती जैसे पिछड़े नेता कितने काबिल हैं और राज्य या अपनी मानद के बाहर कितना काम करते हैं यह भी देखना होगा। लेकिन ज्यादा दिलचस्प मुकाबला जातीय जनगणना बनाम विश्वकर्मा योजना का होगा।-अरविन्द मोहन