Edited By ,Updated: 10 Sep, 2021 03:47 AM
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भारतीय लड़ाकू विमानों को धराशायी करने की हसरत अब न तो चीन की पूरी होने वाली है और न ही पाकिस्तान जैसे मुल्क की क्योंकि रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन यानी डी.आर.डी.ओ. ने राडार
भारतीय लड़ाकू विमानों को धराशायी करने की हसरत अब न तो चीन की पूरी होने वाली है और न ही पाकिस्तान जैसे मुल्क की क्योंकि रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन यानी डी.आर.डी.ओ. ने राडार और मिसाइलों को चकमा देने वाली वह तकनीक विकसित कर ली है, जिसे लड़ाकू विमानों का सबसे बड़ा रक्षा कवच माना जा रहा है।
एडवांस्ड चैफ टैक्नोलॉजी का विकास डी.आर.डी.ओ. की जोधपुर की रक्षा प्रयोगशाला और पुणे की उच्च ऊर्जा सामग्री अनुसंधान प्रयोगशाला (एच.ई.एम.आर.एल.) ने मिलकर किया है। चैफ तकनीक लड़ाकू विमानों को दुश्मन के राडार से बचाएगी। सबसे पहले इस तकनीक का इस्तेमाल जगुआर जैसे लड़ाकू विमानों में किया जाएगा, क्योंकि जगुआर विमानों पर ही इसका ट्रायल पूरा किया गया है। वायु सेना से हरी झंडी मिलने के बाद मिराज, सुखोई समेत दूसरे लड़ाकू विमानों में इसका इस्तेमाल किया जाएगा।
दुनिया में ब्रिटेन की तीन कंपनियां ही चैफ तैयार कर रही हैं। डी.आर.डी.ओ. चैफ के निर्माण के लिए इस तकनीक को स्वदेशी कंपनियों को ट्रांसफर करेगा। खास बात यह है कि डी.आर.डी.ओ. द्वारा विकसित चैफ कार्टिलेज दुनिया में सर्वश्रेष्ठ तकनीक है। इससे पहले दुनिया में विकसित चैफ को राडार बेस मिसाइलें भेद भी सकती हैं लेकिन भारत के चैफ को नहीं। यानी इस चैफ तकनीक के जरिए भारत के लड़ाकू विमान दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित हो जाएंगे। चैफ फाइटर विमानों में लगने वाला काऊंटर मेजर डिस्पैंडिंग यानी दुश्मन के राडार आधारित मिसाइल से बचाने वाला उपकरण है, जो विमान को इंफ्रारैड और एंटी राडार से बचाता है।
असल में यह चैफ फाइबर होता है। बाल से भी पतले इस फाइबर की मोटाई महज 25 माइक्रोन होती है। डी.आर.डी.ओ. ने करोड़ों फाइबर से 20 से 50 ग्राम का एक कार्टिलेज तैयार किया है। चैफ को विमान के पिछले हिस्से में लगाया जाता है। जैसे ही लड़ाकू विमान के पायलट को दुश्मन मिसाइल से लॉक होने का सिग्नल मिलता है, तब उसे चैफ कार्टिलेज को हवा में फायर करना पड़ता है। सैकेण्ड के 10वें हिस्से में इससे करोड़ों फाइबर निकलकर हवा में अदृश्य बादल बना देते हैं और मिसाइल लड़ाकू विमान को छोड़कर इसे अपना टारगेट समझ कर हमला कर देती है और विमान बच निकलता है। डी.आर.डी.ओ. ने चैफ विकसित करने के लिए 4 साल की समय सीमा निर्धारित की थी लेकिन महज ढाई साल में ही इसे विकसित कर लिया।
अभी तक एयर फोर्स को इस तकनीक के आयात पर करीब 100 करोड़ रुपए सालाना खर्च करने पड़ रहे हैं। अब न सिर्फ इसके आधे दामों पर वायु सेना को यह तकनीक मिलेगी, बल्कि भारत अपने मित्र देशों को निर्यात करने पर भी विचार कर सकता है। इस एडवांस्ड चैफ टैक्नोलॉजी के 3 प्रकार हैं, पहला कम दूरी की मारक क्षमता वाला चैफ रॉकेट, जिसे एस.आर.सी.आर. कहते हैं, दूसरा मध्यम रेंज चैफ रॉकेट एम.आर.सी.आर. और तीसरा लंबी दूरी की मारक क्षमता वाला चैफ रॉकेट एल.आर.सी.आर.। हाल ही में भारतीय नौसेना ने अरब सागर में अपने युद्धपोतों से इन तीनों प्रकार के रॉकेटों का प्रायोगिक परीक्षण किया, जिसमें इस तकनीक का प्रदर्शन अच्छा रहा।
वर्तमान इलैक्ट्रॉनिक युग में शत्रु के आधुनिक राडारों से अपने लड़ाकू विमानों को बचाना चिंता का विषय है। लड़ाकू विमान या कोई भी उड़ती हुई वस्तु राडार की नजर में आ जाती है। राडार माइक्रोवेव तरंगें छोड़ता है, जो वस्तु की दिशा व स्थिति बता देती हैं। चैफ टैक्नोलॉजी में राडार को भ्रमित किया जाता है। स्वदेश में निर्मित इस तरह की तकनीक भारत को सामरिक रूप से तो सफल बनाती ही है, साथ ही यह आत्मविश्वास भी पैदा होता है कि विश्व मानकों के अनुरूप टैक्नोलॉजी का विकास करने में भारत भी सक्षम है। बड़ी मात्रा में इसका उत्पादन करने के लिए अब इस प्रौद्योगिकी को उद्योग में स्थानांतरित कर दिया गया है।-रंजना मिश्रा