Edited By ,Updated: 10 Sep, 2024 05:27 AM
कई बार बहुत सी चीजें चकित करती हैं। पिछले कुछ सालों से सिम्बोलिज्म या प्रतीकात्मकता बढ़ती ही जा रही है। हाल ही में बंगाल में एक युवा डाक्टर के साथ जिस तरह से दुष्कर्म किया गया और उसकी हत्या कर दी गई, उसने पूरे देश को उद्वेलित किया।
कई बार बहुत सी चीजें चकित करती हैं। पिछले कुछ सालों से सिम्बोलिज्म या प्रतीकात्मकता बढ़ती ही जा रही है। हाल ही में बंगाल में एक युवा डाक्टर के साथ जिस तरह से दुष्कर्म किया गया और उसकी हत्या कर दी गई, उसने पूरे देश को उद्वेलित किया। हाथरस कांड और निर्भया के वक्त भी ऐसा ही हुआ था। बंगाल में उस अभागी लड़की को अभया कह कर पुकारा जाने लगा। आप कह सकते हैं कि चूंकि दुष्कर्म पीड़िता का नाम जग जाहिर करना कानूनी अपराध है , ऐसा इसलिए किया गया। फिर वहां जो नया दुष्कर्म कानून आया उसे भी अपराजिता कह कर पुकारा गया। एक लड़की अभया हो सकती है , निर्भया हो सकती है, यानी कि उसे किसी से डर नहीं लगता।
वह अपराजिता भी हो सकती है कि किसी से पराजित न हो। मगर लड़कियों के जीवन में इस तरह के सांकेतिक नाम रखने से क्या बदलता है। क्या उनके प्रति अपराध होने से रुक जाते हैं। निर्भया का मामला 2012 में हुआ था। कहा गया था कि दुष्कर्म के खिलाफ ऐसा कठोर कानून बनाया जाए, जिससे कि अपराधी ऐसा करने की हिम्मत न कर सकें लेकिन क्या ऐसा हो सका। क्या कठोर कानून के बावजूद बलात्कार के मामलों में कमी आई। एन.सी.आर.बी. के आंकड़ों को देखें तो लगता है, ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ। 2021 यानी कि निर्भया मामले के 9 साल बाद, दिल्ली में सबसे अधिक दुष्कर्म हुए जिनकी संख्या 1221 थी। राज्यों में राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश का नम्बर था। 2021 में ही जयपुर में देश में सबसे अधिक दुष्कर्म हुए थे और कोलकाता में सबसे कम। लेकिन पिछले दिनों कोलकाता के मामले ने ही सबको परेशान कर दिया। ऐसा क्यों है कि एक ओर लड़कियों को पूजते हैं, मातृ-शक्ति को सबसे बड़ा मानते हैं और दूसरी तरफ मौका मिलते ही उनके प्रति किसी भी कुकृत्य को करने से बाज नहीं आते।
यहां तक कि नजदीकी रिश्तेदार तक ऐसा करते हैं। बहुत पहले केरल में एक रिपोर्ट आई थी जिसमें बताया गया था कि बहुत से नजदीकी रिश्तेदार अपनी रिश्तेदार उम्रदराज महिलाओं को भी नहीं बख्शते। सुनने में यह भयावह लगता है कि हमारी बुजुर्ग नानी-दादियां भी इस तरह के अपराधों का शिकार हों। इस रिपोर्ट को जानकर उस समय के केरल के मुख्यमंत्री भी विचलित हो उठे थे। हाल ही में एक खबर ने परेशान किया था कि राजस्थान में गांव में रहने वाले एक मां-बेटे शादी से लौट रहे थे। बेटे ने खूब शराब पी रखी थी। एक सुनसान जगह देखकर बेटे ने मां के साथ दुष्कर्म जैसे अपराध को अंजाम दिया। मां अपने मां होने की दुहाई देती रही, लेकिन वह न माना। नशा उतरने के बाद उसने खुद अपराध स्वीकार किया। शराब के बारे में यों ही नहीं कहा जाता कि उसे पीने के बाद लोग होश खो बैठते हैं। लेकिन जरूरी नहीं कि शराब पीने के बाद ही ऐसे अपराध किए जाते हों।
हद तो यह है कि छोटे बच्चे भी इस तरह के अपराधों में शामिल पाए जाते हैं। हम समझते हैं कि लड़कियों और महिलाओं के प्रति अपराध बाहर वाले ही करते हैं, मगर हमेशा ऐसा सच नहीं है। बचपन में जब घर की बुजुर्ग महिलाएं कहती थीं कि घर के पुरुषों के सामने दुपट्टा ओढ़कर जाओ, तो बहुत बुरा लगता था, लेकिन आज समझ में आता है कि वे ऐसा क्यों कहती थीं। वे उन वृत्तियों को पहचानती थीं, जिनसे अपराध जन्म लेते हैं। लेकिन यह भी सच है कि किसी ने कैसे कपड़े पहने हैं , यह देखकर लोग उसके प्रति अपराध करने को प्रेरित हों। लगता तो यह है कि लड़कियां और स्त्रियां कैसे भी कपड़े पहनें , वे घर से बाहर रहें या अंदर, वे हमेशा अपराधों की जद में होती हैं और यह सिर्फ हिन्दुस्तान की बात नहीं है। वे देश जो महिला सुरक्षा और महिलाओं की बराबरी को लेकर दूसरे देशों को बहुत ज्ञान बांटते रहते हैं, वहां की आबादी और दुष्कर्म के मामले देखिए, तो वे बहुत बड़ी संख्या में नजर आते हैं।
सोचने की बात यही है कि आखिर ऐसा कैसे हो कि महिलाएं अपने घरों ्रमें और बाहर सुरक्षित रह सकें। जहां वे काम करती हैं, वहां तो सुरक्षा और भी जरूरी है। कोलकाता की डाक्टर के साथ अपराध उसी अस्पताल में हुआ, जहां वह काम करती थी। आप लाख कानून बना लीजिए, कठोर से कठोर दंड दे दीजिए, लेकिन अपराध नहीं रुकते। निर्भया के प्रति जिन लड़कों ने अपराध किया था, उन्हें फांसी दी ही गई थी। लेकिन सवाल औरतों के प्रति हमारे नजरिए का है। जब तक औरत होने का मतलब किसी से कमजोर होना है, उसके शरीर मात्र को देखकर हमलावर होना है और किसी तरह का पछतावा भी न हो, तो सारे कानून और सारा हो-हल्ला व्यर्थ सा लगता है। किसी पीड़िता का नाम अभया रख लीजिए, निर्भया रख लीजिए, अपराजिता पुकारिए लेकिन अगर सोच न बदले, औरतों के प्रति वह दृष्टिकोण न बदले, तो कानून किसी काम के नहीं हैं। वे एक मनोवैज्ञानिक सहारा तो दे सकते हैं, लेकिन यह भी तो सच है कि अधिकांश गरीब, साधनहीन स्त्रियों की पहुंच उन तक नहीं होती। औरतों के प्रति नजरिया बदलने पर ही उनके प्रति अपराध रुक सकते हैं।-क्षमा शर्मा