बिहार की राजनीति में शतरंज के मोहरे

Edited By ,Updated: 27 Aug, 2024 05:37 AM

chess pieces in bihar politics

बिहार में विधानसभा चुनाव के लिए शतरंज की बिसात अभी बिछी नहीं है लेकिन राजनीति के खिलाड़ी चाल चलने को आतुर होने लगे हैं। राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय महासचिव श्याम रजक का पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा इसका एक नमूना है।

बिहार में विधानसभा चुनाव के लिए शतरंज की बिसात अभी बिछी नहीं है लेकिन राजनीति के खिलाड़ी चाल चलने को आतुर होने लगे हैं। राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय महासचिव श्याम रजक का पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा इसका एक नमूना है।श्याम रजक ने आरोप लगाया है कि पार्टी में उनकी उपेक्षा हो रही थी। किसी नेता को चुनाव लडऩे के लिए टिकट नहीं मिले तो आजकल की राजनीति में बात उपेक्षा वाली हो ही जाती है। रजक ने अपने इस्तीफे में आरोप लगाया कि लालू यादव उनके साथ शतरंज की चाल चल रहे थे। 

रजक एक समय तक लालू यादव का दाहिना हाथ माने जाते थे। अब सवाल यह है कि राजद के नए सुप्रीमो और लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव राजनीति की बिसात पर कमजोर पड़ रहे हैं? क्रीमी लेयर और आबादी के हिसाब से आरक्षण की मांग जैसे-जैसे तेज हो रही है वैसे-वैसे पार्टियों में अति दलित और अति पिछड़ों की पूछ बढ़ रही है। ऐसे में रजक जैसे अति दलित नेता के पार्टी छोडऩे का नतीजा क्या होगा? इसकी गणना क्या तेजस्वी नहीं कर पाए? या फिर रजक की उपेक्षा एक सोची-समझी राजनीति का हिस्सा है? 

आरक्षण बड़ा मुद्दा : हाल के 2-3 फैसलों ने बिहार में आरक्षण पर राजनीति को फिर सुलगा दिया है। पटना हाईकोर्ट ने जाति आधारित आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से बढ़ा कर 65  फीसदी करने के बिहार सरकार के फैसले को हाल में रद्द कर दिया। सभी जातियों के गरीबों के लिए 10 फीसदी मिला कर कुल आरक्षण 75 फीसदी कर दिया गया था जिसे अदालत ने संविधान के खिलाफ माना। अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सहित सभी पार्टियों के नेता बिहार में आरक्षण को संविधान की नौवीं सूची में डालने की मांग कर रहे हैं ताकि अदालत इस पर सुनवाई नहीं कर सके। सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने आरक्षण प्राप्त बड़ी जातियों को डरा दिया है। सर्वोच्च कोर्ट ने कहा है कि आरक्षण प्राप्त जातियों का वर्गीकरण किया जा सकता है। इसका मतलब है कि जिन जातियों के लोग आरक्षण का भरपूर  लाभ उठा चुके हैं उनका हिस्सा कम करके उन जातियों का हिस्सा बढ़ाया जा सकता है जो अब तक आरक्षण का लाभ उठाने में पीछे छूट गए हैं। 

समृद्ध पिछड़ी और दलित जातियों के नेता आरक्षण में वर्गीकरण का भी विरोध कर रहे हैं। नीतीश कुमार ने अति पिछड़े और अति दलित को संगठित करके ही लालू यादव को चुनौती दी थी। कांग्रेस और भाजपा लंबे समय तक बड़ी जातियों के दबाव से निकल नहीं पाईं इसलिए कांग्रेस का सफाया हो गया और भाजपा को अपना अस्तित्व बचाने के लिए बार-बार नीतीश कुमार की शरण में जाना पड़ा। नीतीश ने अति पिछड़ों को साध कर लालू को किनारे कर दिया लेकिन अपने बूते पर बहुमत तक पहुंचना उनके बस में भी नहीं था। अति पिछड़ों में उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश सैनी जैसे नेता खड़े हुए लेकिन अपनी जातियों और गिने-चुने चुनाव क्षेत्रों तक सीमित रह गए। रामविलास पासवान ने  दलितों और सवर्णों को जोड़ कर अपनी अलग पहचान बनाई लेकिन उनका कार्य क्षेत्र पूरे बिहार में नहीं फैल सका। उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे चिराग पासवान उनके किले को बचा पाने में सफल रहे हैं। बिहार में दलितों और पिछड़े नेताओं की जो खेप अभी शीर्ष पर है वह 1974 के बिहार छात्र आंदोलन में तैयार हुई थी। उसके बाद सन्नाटा हो गया। पुराने नेताओं के परिवार से ही कुछ नेता सामने आए। 

भाजपा का दाव : श्याम रजक छात्र आंदोलन की उपज हैं। जब से ‘जिसकी जितनी संख्या उसका उतना हिस्सा’ का नारा तेज हुआ है तब से नीतीश और तेजस्वी भी संख्या देख कर चलने लगे हैं। रजक 2009 तक लालू के साथ थे। फिर नीतीश के पाले में चले गए। 2020 के विधानसभा चुनावों के पहले नीतीश से उनकी खटपट हो गई तब राजद में पहुंच गए। 2020 में उन्हें विधानसभा का और  2024 में लोकसभा का टिकट नहीं मिला। विधान परिषद और राज्यसभा से भी वंचित होने के बाद उनका राजद से मोह भंग तो हुआ लेकिन नीतीश के खेमे में भी उनका तपाक से स्वागत नहीं हुआ। 

नीतीश बनाम तेजस्वी : बिहार में जाति जनगणना के बाद से चुनाव की तस्वीर बदलती नजर आ रही है। दलितों की बात करें तो एक बार फिर साफ हो गया कि आबादी के हिसाब से सबसे बड़ी जाति चमार है जिसके नेता जग जीवन राम एक समय पर देश की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। उनके बाद उनकी बेटी मीरा कुमार लोकसभा के अध्यक्ष पद तक तो पहुंचीं लेकिन जन नेता नहीं बन पाईं। इस वर्ग से उत्तर प्रदेश में मायावती के कद का कोई बड़ा नेता बिहार में नहीं निकल पाया।  दलितों की दूसरी बड़ी जाति दुसाध है ,जिसके प्रतिनिधि राम विलास पासवान के बेटे चिराग हैं। कांग्रेस के दौर में बिहार के मुख्यमंत्री बने भोला पासवान शास्त्री इसी वर्ग से थे। राम विलास के भाई पशुपति पारस अलग पार्टी चला रहे हैं। बिहार में आगे की राजनीति पर अति दलितों और अति पिछड़ों का दबदबा हो सकता है। हाल में नीतीश ने अपनी पार्टी में व्यापक फेरबदल किया। इसका एक मकसद अति पिछड़ों और अति दलितों को अपने खेमे में बनाए रखना भी लगता है। तेजस्वी के सामने अति दलितों और अति पिछड़ों को साथ रखना बड़ी चुनौती है।-शैलेश कुमार
 

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