Edited By ,Updated: 20 Aug, 2024 05:21 AM
सत्गुरु रविदास जी का कथन है, ‘ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न। छोट-बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न।’’ हमारी सभी की सोच इसी के अनुरूप होनी चाहिए। तमाम राजनीतिक दलों का घोषणापत्र भी यही हो। मगर ऐसा हो नहीं रहा।
सत्गुरु रविदास जी का कथन है, ‘ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न। छोट-बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न।’’ हमारी सभी की सोच इसी के अनुरूप होनी चाहिए। तमाम राजनीतिक दलों का घोषणापत्र भी यही हो। मगर ऐसा हो नहीं रहा। आरक्षण शब्द ऐसे तीर की तरह है, जो बिना चले ही बहुतों की बुद्धि को चीर कर निकल जाता है। वास्तव में विडम्बना यह है कि जातिवाद को किसी व्यवस्था की तरह नहीं, बल्कि गुलामी और बीमारी की तरह फैलाया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति महादलित (वाल्मीकि/मजहबी समाज या मुसहर या मादिगा या चाक्कीलिया या अरुन्थाथियार) के बारे में 1 अगस्त, 2024 को दिए फैसले के बाद इतना अकल्पनीय रूप उभर कर सामने आया, जिसकी किसी ने इससे पहले कल्पना भी नहीं की थी। सामाजिक मान्यता रही है कि कोई विवाद हो जाए तो दरवेश विद्वान के पास चले जाओ। शायद यहीं से पांच पंच और पंच से पंचायत और पंचायत से आगे बढ़कर न्यायपालिका का निर्माण हुआ होगा। मगर आज अगड़े दलित नेता और विद्वान सारी मर्यादाओं को ताक पर रख कर समता के विपरीत खड़े हो गए हैं। जब अगड़े दलित नेता और विद्वान यह तर्क देते हैं कि महादलितों को पढऩा-लिखना था और बराबर आ जाते, उस वक्त लगता है 1930-32 के आरक्षण विरोधियों ने अपना खंजर आज के अगड़े दलितों के हाथ में थमा दिया कि लो अम्बेडकर के सीने में घोंप दो।
कैसी विचित्र और मजाकिया बात है। जैसे संख्याबल दिखाने के लिए हम हिन्दू माने जाते हैं। बाद में अछूत और शूद्र। ऐसे ही ‘जात-पात तोड़ो, समाज जोड़ो’ का नारा देने वाले अगड़े दलित पिछड़े अति दलितों को हिस्सा देने को तैयार नहीं। फिर कैसे ‘जितनी जिसकी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी’ का नारा लगाते हैं? अब स्वाभाविक सवाल पर बात कर लेते हैं, कि जब सभी दलित जातियां वर्षों से शोषित और पीड़ित रहीं, फिर कोई आगे और कोई पीछे कैसे रह गया? इसकी एक मिसाल तो माननीय मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ जी ने दी कि भरी रेलगाड़ी में खुद धक्का-मुक्की करके चढऩे वाला आदमी दूसरे को चढऩे से रोकता है। दूसरा, दलितों में अति या महादलित भी सामाजिक व्यवस्था के चलते बने हैं। सफाई कर्मचारी को समाज ने हमेशा समाज से दूर रखा। बाजार में भले सड़क के किनारे मगर जूता बनाते या गांठते यह दलित वर्ग समाज और बाजार यानी मोल-भाव करना सीख गया। यहीं से यह आगे और दूसरा पीछे छूट गया।
भले अगड़े दलितों में बहुतों की स्थिति बहुत अच्छी हो गई हो, मगर वे भी अन्य समाज के बराबर नहीं आए। यह बात सभी भली-भांति जानते हैं, इसलिए अभी क्रीमी लेयर जैसा कोई प्रावधान नहीं होना चाहिए। मगर महादलितों के उत्थान के लिए आरक्षण में वर्गीकरण होना अति आवश्यक है। यह कोई धमकी नहीं, बल्कि भविष्य की दिखाई दे रही भयानक तस्वीर को बयां कर रहा हूं, कि अगर अगड़े दलित नेता और विद्वान इसी तरह बिना सोचे-समझे बयानबाजी करते रहे, तो फुट की खाई इतनी गहरी हो जाएगी कि युगों तक उस खाई को कोई पाट नहीं पाएगा।
महादलितों और अगड़े दलितों के बीच की खाई कहें या दूरी, इसका खमियाजा सर्वप्रथम अगड़े दलितों को ही भोगना पड़ेगा। जिस पायदान पर अति दलित आज खड़ा है, उससे नीचे जाने की तो कोई गुंजाइश है नहीं, अलबत्ता अगड़े दलितों के फिसल कर नीचे गिरने की सम्भावना ज्यादा है। भारत को मुट्ठी भर विदेशी लुटेरे लूट कर इसलिए ले जाते थे, कि वर्ण व्यवस्था में बंटे भारत का न ब्राह्मण शास्त्र उठा कर किसी को ललकार सकता था, न बनिया हथियार लेकर लड़ सकता था। रहा दलित, वह क्षत्रिय की तरह हथियार उठाने की सोच भी नहीं सकता था। फिर हार निश्चित थी।
वहीं दलित था दबा-कुचला, मगर जब सिख पंथ ने उसे तलवार पकड़ा दी तो वही लुटेरे दोबारा भारत की ओर नहीं आए। अब इस दलित में वह कौन था? वह था आज का अतिदलित वाल्मीकि/मजहबी, जिसे पीठ पीछे चूहड़ा-भंगी भी कहते हैं। याद कीजिए, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण पर जब कभी हमला हुआ, उसका मुंहतोड़ जवाब सफाई कर्मचारी (वाल्मीकि/ मजहबी) ने सड़कों पर आकर दिया। मुझे याद है 1981 का वो समय, जब गुजरात से आरक्षण के खिलाफ आंदोलन चला। डा. चंडोला ने इस आंदोलन का केन्द्र लुधियाना रेलवे स्टेशन बना लिया। कई दलित संगठन बहुत दिनों तक जूझते रहे मगर हुआ कुछ नहीं। जैसे ही लुधियाना की सफाई कर्मचारी यूनियन दलबल के साथ धरना स्थल पर पहुंची, सारे आरक्षण विरोधी दुम दबा कर भागते नजर आए।
इस बात को दोनों तरह के दृष्टिकोण से समझा जा सकता है। एक, दलित एकता को भंग किया जा रहा है, दूसरा, हम किसी हमले का सामना करने के लायक नहीं रहेंगे। फिर उस वक्त किए जाने वाले तमाम प्रयास निरर्थक साबित होंगे। आप सभी लोग बुद्धिजीवी, लेखक व प्रकाशक भी हैं, सोच लीजिए। जब कभी भी दलित सम्मेलनों या दलित प्रकाशनों में जाने का अवसर मिलता है, आप भी देखते होंगे, सभी स्पीकर और तमाम किताबों में दलित के शोषण, पीड़ा व अत्याचार को मुख्य मुद्दा बनाया होता है। दिल में तड़प और शब्दों में अंगारे होते हैं। फिर क्यों सीवर में उतरता हुआ जिन्दा मानव और बाहर आती उसकी लाश अगड़े दलितों विशेषकर मंचों के नेताओं और विद्वानों को आज नजर नहीं आती? आप तो शासन-प्रशासन से आगे बढ़कर व्यावसायिक एम्पायर के मालिक भी बन गए। सफाई कर्मचारी हेला, बांसफोड़, मुसहर, वाल्मीकि, धानुक, डॉम, डुमार मादिगा, चाक्कीलिया, अरुन्थाथियार अपना पक्का रोजगार भी खो चुका है। होना तो यह चाहिए था कि आप ‘नाखुदा’ बनकर सामने आते, मदद का हाथ आगे बढ़ाते।
अतिदलित हेला, बांसफोड़, मुसहर, वाल्मीकि/मजहबी, धानुक, डॉम, डुमार मादिगा, चाक्कीलिया, अरुन्थाथियार की हिस्सेदारी का विरोध करके आपने यह साबित कर दिया कि आप में भी मनुवाद के कीटाणु व्यापक रूप में प्रवेश कर गए हैं। जैसा कि तमाम कहानियों, भारतीय फिल्मों में एक सच दिखाया जाता था, कि बड़ा भाई परिवार को अपने पैरों पर खड़ा करते-करते अपनी सारी जवानी गंवा देता था, आज महादलित जातियां भी महसूस करती हैं कि सड़कों पर पिट कर जिस आरक्षण की वर्षों रक्षा की, आज उसमें हिस्सेदारी को सहन नहीं किया जा सकता। हजारों नहीं, लाखों निजी कम्पनियां, फैक्ट्रियां बन रही हैं, जिनमें आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं। होना तो यह चाहिए था कि हम सभी साथ मिल कर सारे राजनीतिक दलों और सरकारों को मजबूर करते कि भारत की भूमि पर चलने वाले हर उपकरण में हमारी हिस्सेदारी (आरक्षण) रखी जाए।-दर्शन ‘रत्न’ रावण