वायु प्रदूषण से लड़ाई में सामूहिक नाकामी

Edited By ,Updated: 05 Nov, 2024 05:16 AM

collective failure in the fight against air pollution

दिल्ली -एन.सी.आर. के निवासियों को मौसम का आभारी होना चाहिए कि पहले चक्रवात ‘दाना’ और फिर तेज हवा की बदौलत उनकी दीवाली इस बार पहले जितनी दमघोंटू साबित नहीं हुई, वर्ना सरकारी तंत्र की नाकामी और समाज की गैर-जिम्मेदारी ने तो कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।

दिल्ली -एन.सी.आर. के निवासियों को मौसम का आभारी होना चाहिए कि पहले चक्रवात ‘दाना’ और फिर तेज हवा की बदौलत उनकी दीवाली इस बार पहले जितनी दमघोंटू साबित नहीं हुई, वर्ना सरकारी तंत्र की नाकामी और समाज की गैर-जिम्मेदारी ने तो कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। दीवाली अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला पर्व है, पर कुछ लोगों को लगता है कि जानलेवा प्रदूषण फैलाने वाली पटाखेबाजी के बिना यह नहीं मनाया जा सकता। अत:, सुप्रीम कोर्ट के प्रतिबंध और सरकारी निर्देशों को धत्ता बता कर दीवाली पर जम कर पटाखे चलाए जाते हैं।  

फिर भी दिल्ली-एन.सी.आर. का एयर क्वालिटी इंडैक्स यानी ए.क्यू.आई. 339 तक ही यानी ‘बहुत खराब’ की श्रेणी में ही पहुंचा तो उसका श्रेय तेज हवा को दिया जाना चाहिए, जिससे प्रदूषण छाने की बजाय उड़ गया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल दीवाली के अगले दिन यह 358 था, जबकि 2022 में 302, 2021 और 2020 में ए.क्यू.आई. क्रमश: 462 और 435 था। वैसे 1 नवंबर की सुबह 9 बजे दिल्ली का ए.क्यू.आई. 362 था, जिसे तेज हवाओं ने कम कर दिया और औसत ए.क्यू.आई. 339 बताया गया। दिल्ली के 39 में से 37 निगरानी केंद्रों ने वायु गुणवत्ता को ‘बहुत खराब’ बताया।

इस साल अपेक्षाकृत बेहतर रहा ए.क्यू.आई. भी सेहत के लिए कितना खतरनाक है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 0 से 50 ए.क्यू.आई. तक की हवा ही ‘स्वच्छ’ होती है। उसके बाद 51-100 तक ‘संतोषजनक’, 101-200 ‘मध्यम’, 201-300 ‘खराब’, 301-400 ‘बहुत खराब’ और 401-500 ए.क्यू.आई. वाली हवा ‘गंभीर’ श्रेणी में आती है। फिर जनस्वास्थ्य को जोखिम में डालने का यह आत्मघाती खेल क्यों चल रहा है?

पिछले लगभग एक दशक से दिल्ली-एन.सी.आर. निवासी सॢदयों की आहट के साथ ही जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हो जाते हैं, पर सत्ताधीशों से कुछ तात्कालिक राहत वाली पाबंदियों और आश्वासनों के सिवाय उन्हें कुछ नहीं मिलता। दिल्लीवासियों को गिने-चुने दिन ही स्वच्छ हवा नसीब होती है। यही विडंबना एन.सी.आर. के ज्यादातर शहरों की है। देश का सबसे स्वच्छ शहर बताए जाने वाले इंदौर में तो ए.क्यू.आई. 400 पार यानी ‘गंभीर’ श्रेणी में पहुंच गया। ये आंकड़े जनस्वास्थ्य के प्रति सरकारी तंत्र की सजगता पर तो सवालिया निशान लगाते ही हैं, समाज को भी कठघरे में खड़ा करते हैं।

स्वास्थ्य विशेषज्ञ चेताते रहे हैं कि दिल्ली-एन.सी.आर. की जहरीली हवा सांस संबंधी रोग बढ़ा रही है, जिससे कैंसर भी हो सकता है। वायु प्रदूषण बच्चों एवं बुजुर्गों के लिए और भी ज्यादा खतरनाक है। भारत में हर साल वायु प्रदूषण से 20 लाख मौतें होती हैं। देश में होने वाली मौतों का यह 5वां बड़ा कारण है। इसके बावजूद दमघोंटू हवा का दोष पराली और पटाखों के सिर मढ़ कर अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है, तो यह संवेदनहीनता और निष्क्रियता की पराकाष्ठा ही है। 

सुप्रीम कोर्ट ने पराली जलाने से रोकने में नाकामी पर पंजाब सरकार पर सख्त टिप्पणी की कि उसे खुद को ‘असमर्थ’ घोषित कर देना चाहिए। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग भी अपनी जिम्मेदारी के निर्वाह में अभी तक तो नाकाम ही नजर आता है। दिल्ली-एन.सी.आर. में वायु प्रदूषण बढ़ते ही श्वास और आंखों संबंधी रोगों के मरीज बढऩे लगते हैं। डॉक्टर सुबह की सैर बंद करने और अनावश्यक रूप से बाहर न निकलने की सलाह देते हैं। जो आम आदमी दो वक्त की रोटी और परिवार चलाने के लिए ही सुबह से देर रात तक चकरघिन्नी बना रहता है, सुबह की सैर शायद उसकी प्राथमिकता में नहीं है, पर अपने काम-धंधे के लिए तो उसे बाहर निकलना ही पड़ता है। 

23 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट ने सख्त टिप्पणी की कि शुद्ध हवा न मिलना प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने के लोगों के मौलिक अधिकार का हनन है, पर प्रश्न अनुत्तरित है कि इस अधिकार का लगातार हनन करने के जिम्मेदार लोगों को सही मायने में दंडित कौन करेगा? बेशक पराली जलाने से रोकने के लिए सरकारों को किसानों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए कुछ व्यावहारिक कदम उठाने होंगे। वैसा करने के दावे तो बहुत किए जाते हैं, पर वांछित परिणाम नजर नहीं आते। दिल्ली-एन.सी.आर. के वायु प्रदूषण में पराली और पटाखों का योगदान अवधि और मात्रा की दृष्टि से सीमित है।  

भू-विज्ञान मंत्रालय के एक रिसर्च पेपर के मुताबिक, वायु प्रदूषण में 41 प्रतिशत हिस्सेदारी वाहनों की है। भवन निर्माण आदि से उडऩे वाली धूल 21.5 प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर है। दिल्ली परिवहन विभाग के आंकड़े के मुताबिक पिछले 30 साल में वाहन और उनसे होने वाला प्रदूषण 3 गुणा बढ़ गया है। फिर भी मैट्रो के धीमे विस्तार के अलावा पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम को बेहतर और विश्वसनीय बनाने की दिशा में कुछ खास नहीं किया गया।  
 

नवंबर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त टिप्पणी की थी : दिल्ली नरक से भी बदतर हो गई है, पर लगता नहीं कि उसके बाद भी कुछ बदला है। भविष्य में भी सुधार का दावा कोई नहीं कर सकता क्योंकि जो वैसा करने में सक्षम हैं, उनके एजैंडे पर तो यह समस्या नजर ही नहीं आती। -राज कुमार सिंह

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