Edited By ,Updated: 04 Oct, 2024 05:49 AM
तो जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हो गए और यह पुराना जम्मू-कश्मीर नहीं है। क्योंकि इसके चुनाव पर देश दुनिया की नजर लगी थी और लगी हुई है।
तो जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हो गए और यह पुराना जम्मू-कश्मीर नहीं है। क्योंकि इसके चुनाव पर देश दुनिया की नजर लगी थी और लगी हुई है। पर शांतिपूर्ण ढंग से और एकदम नई हवा के झौंके के बीच चुनाव का पूरा हो जाना भी एक ऐतिहासिक पड़ाव है। अब सरकार के गठन वाला दौर भी कुछ नई दिलचस्प स्थितियों को जन्म दे सकता है और भाजपा तथा देश की राजनीति पर असर डालेगा इसलिए उस पर भी देश और दुनिया की नजर होगी।
धारा 370 की समाप्ति, इस सीमांत प्रदेश को 3 हिस्सों में बांटना और फिर जम्मू-कश्मीर विधान सभा सीटों के पुनर्गठन ने चुनाव को ज्यादा दिलचस्प बना दिया था। जब से कश्मीर ने भारत में विलय को स्वीकार किया था तब से 370 ही इस जुड़ाव का आधार माना जाता था। पर धीरे-धीरे उसे भी एक तमाशा बना दिया गया था और अपनी राजनीतिक नाकामियों या कमजोरियों को ढंकने के लिए उसका इस्तेमाल होने लगा था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ/भारतीय जनता पार्टी का एक समांतर विमर्श लगातार चलता रहा और उससे देश भर में वह अपनी राजनीति को आगे बढ़ाती गई लेकिन खुद कश्मीर में भी श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शहादत से लेकर काफी कुछ हुआ था। उस लिहाज से यह चुनाव एक प्रभावी और आम विमर्श (धारा 370 के पक्ष वाला) के मुकाबले पहली बार संघीय विमर्श के ऊपर आने के बाद का चुनाव था। लेकिन विधानसभा चुनाव से पूर्व हुए लोकसभा चुनाव में इस पहलू ने दम तोड़-सा दिया क्योंकि भाजपा ने घाटी में अपने उम्मीदवार उतारे ही नहीं और बहुत साफ ढंग से गठबंधन करके किसी और दल या निर्दलीय को समर्थन भी नहीं दिया।
उसका समर्थन किन लोगों को रहा इसके इशारे बहुत साफ थे। लेकिन बाकी ही क्यों भाजपा के लोग भी तब निराश हुए जब इस बार के चुनाव में भी पार्टी ने घाटी की ज्यादातर सीटें न लडऩे का फैसला किया और निर्दलीय तथा छोटे दलों से गठबंधन को लेकर भी कोई साफ राजनीति नहीं की। इंडिया गठबंधन को भी 3 बड़ी पाॢटयों को संभालकर चुनाव लडऩे में दिक्कत हुई और न सिर्फ महबूबा मुफ्ती की पार्टी पी.डी.पी. अलग होकर लडऩे उतरी बल्कि कांग्रेस और नैशनल कांफ्रैंस में गठबंधन रहने के बावजूद अनेक सीटों पर ‘दोस्ताना’ मुकाबला हुआ। तब भी इसी गठजोड़ को आगे माना जाता रहा।
यह जरूर हुआ कि आखिर तक आते-आते और चुनाव के मुख्य रूप से जम्मू क्षेत्र में पहुंचने पर इस गठजोड़ को ज्यादा मुश्किल आने की बात हवा में आने लगी। जिस निर्दलीय सांसद इंजीनियर राशिद पर भाजपा का आदमी होने की मोहर कैसे लगती गई, उनका मानना था कि अगर उनको एक हफ्ता पहले पैरोल मिल जाती तो वे राज्य में सरकार बनाने/बनवाने की स्थिति में होते। राशिद इंजीनियर की बात अपनी जगह है और पिछले चुनाव में जेल से ही उमर अब्दुल्ला को 2 लाख से ज्यादा मतों से हराने का रिकार्ड उनकी ताकत को बताता है लेकिन बीच चुनाव में उनको पैरोल मिलने से उनको और अनेक निर्दलीयों/छोटे दल वालों को भाजपा का एजैंट कहे जाने का स्वर चुनाव के दौरान प्रबल हुआ है और उनके लिए इस छापे को छुड़ाना ही बहुत मेहनत का काम रहा।
जम्मू इलाके में भाजपा काफी मजबूत रही है और पुनर्गठन के क्रम में जम्मू क्षेत्र की सीटें घाटी से ज्यादा हो गई हैं। जब तक चुनाव मुख्य रूप से घाटी में था और इंजीनियर राशिद की रिहाई या जमाते इस्लामी वाले उम्मीदवारों के आने का क्रम चला तब तक यह स्वर कुछ मंदा रहा पर चुनाव का अंत आते आते यह प्रबल हुआ। कई लोग इसे चुनाव के दौरान हवा बदलना भी बताते हैं। उनके दावों पर मतदान के बाद कुछ कहने का मतलब नहीं है क्योंकि चुनाव में जनता वाला ‘खेल’ खत्म हो गया है। अब जनप्रतिनिधियों, सत्ता के सूत्रधार राजनेताओं और कई बार अघोषित रूप से होने वाला थैलीशाहों का खेल शुरू होगा। और कश्मीर का मामला हो तो इसमें बाहरी शक्तियां भी छोटी बड़ी भूमिका निभाने पहुंच जाती हैं भले उनकी ज्यादा चले या न चले।
भाजपा की तरफ से और मीडिया के एक वर्ग द्वारा इस चुनाव में बहुत कुछ अपूर्व और रिकार्ड कहा गया पर अभी मतदान में भी 2014 का रिकार्ड मुंह चिढ़ा रहा है। इस बार ज्यादा शांत और भागीदारी वाला चुनाव हुआ जिसे एक उपलब्धि मान सकते है। न बायकाट का आह्वान हुआ न बम फूटे, न पत्थरबाजी हुई न मतदान केंद्र पर ताबूत रखा गया और न हाथ काटने की धमकी सुनाई दी। चुनाव प्रचार के समय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का यह दावा महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से जितनी मदद (करीब 9 अरब डालर) मिली उससे कहीं ज्यादा (करीब 10.6 अरब डालर) की मदद हमने जम्मू-कश्मीर में की है। पर यह सब गिनने गिनाने की आखिरी तारीख खत्म हो चुकी है। अब इंतजार कीजिए सरकार बनने-बनाने वाले दौर का। -अरविंद मोहन