राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों में टकराव, समाधान क्या

Edited By ,Updated: 08 Jan, 2025 05:16 AM

conflict between governors and chief ministers what is the solution

जब से पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी रवि को तमिलनाडु का राज्यपाल नियुक्त किया गया, तब से उनके मुख्यमंत्री स्टालिन की सरकार के साथ संबंध सुचारू नहीं हैं और कल तब अभूतपूर्व टकराव देखने को मिला, जब राज्यपाल अपना पारंपरिक अभिभाषण दिए बिना राज्य विधानसभा सत्र...

जब से पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी रवि को तमिलनाडु का राज्यपाल नियुक्त किया गया, तब से उनके मुख्यमंत्री स्टालिन की सरकार के साथ संबंध सुचारू नहीं हैं और कल तब अभूतपूर्व टकराव देखने को मिला, जब राज्यपाल अपना पारंपरिक अभिभाषण दिए बिना राज्य विधानसभा सत्र से चले गए। इसका कारण क्या है? 

राष्ट्रगान का खुल्लमखुल्ला अपमान। राज्य गान के बाद राष्ट्रगान नहीं गाया गया। स्टालिन ने इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि यह बचकानी हरकत है। वह निरंतर लोगों का अपमान करते रहते हैं। जब उन्हें अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन नहीं करना है तो फिर वह राज्यपाल के पद से क्यों चिपके हुए हैं। इससे पूर्व भी राज्यपाल विधानसभा से यकायक चले गए थे क्योंकि मुख्यमंत्री ने उन्हें अभिभाषण के पाठ से अलग भाषण दिया था। 

रवि द्वारा विभिन्न विभागों के कार्यकरण के बारे में ब्यौरा मांगकर शासन के मामलों में दिन-प्रतिदिन हस्तक्षेप के मुद्दे पर मंत्री पहले से नाराज हैं और वह राज्यपाल पर आरोप लगा रहे हैं कि वे राज्य में समानांतर सरकार चला रहे हैं। नवंबर में द्रमुक ने एक ज्ञापन सौंपकर उन्हें हटाने की मांग की और शिकायत की कि वे राज्य सरकार की नीतियों का खुलेआम विरोध करते हैं और 20 विधेयकों को स्वीकृति देने में अनुचित विलंब कर रहे हैं। आग में घी का कार्य रवि द्वारा स्टालिन के बेटे द्वारा सनातन धर्म को समाप्त करने के बारे में दी गई विवादास्पद टिप्पणी करने के लिए उनकी आलोचना ने किया। हाल ही में रवि ने गिरफ्तार मंत्री सेंथिल बालाजी को बर्खास्त करने का निर्णय किया, किंतु बाद में उन्हें अपना निर्णय वापस लेना पड़ा। शायद इसका कारण द्रमुक द्वारा ऐतिहासिक दृष्टि से राज्यपाल की भूमिका पर प्रश्न चिह्न उठाना और संघवाद की वकालत करने से है। पार्टी के संस्थापक अन्नादुरई ने राज्यपाल की भूमिका की तुलना एक बकरे की दाढ़ी से की थी और कहा था कि दोनों अनावश्यक हैं। 

अनेक बार उच्चतम न्यायालय ने राज्यपालों द्वारा विधेयकों को स्वीकृति न देने, राज्य द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों में उपकुलपतियों की नियुक्ति करने, विपक्ष शासित राज्यों में शिक्षा और दिन-प्रतिदिन के प्रशासन में हस्तक्षेप करने आदि को लेकर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त की और राज्य सरकारें न्यायिक हस्तक्षेप के लिए उच्चतम न्यायालय जाने के लिए बाध्य हुईं। इससे एक मूल प्रश्न उठता है कि क्या राज्यपाल स्वयं में कानून बन गए हैं? क्या विपक्ष शासित राज्यों में विधायिकाएं उनकी दया पर निर्भर हैं? क्या इससे देश का संघीय ढांचा कमजोर नहीं होगा? राज्यपाल द्वारा नियमों और कानूनों की गलत व्याख्या और अपने निष्कर्ष निकालने के अनेक उदाहरण हैं, ताकि वे और केन्द्र में उनके आका खुश हो सकें। इसके अलावा मुख्यमंत्रियों के साथ टकराव के अनेक उदाहरण हैं, जैसे दिल्ली में सक्सेना, केजरीवाल और आतिशी, महाराष्ट्र में पूर्व राज्यपाल कोश्यारी और ठाकरे, पश्चिम बंगाल में बोस-ममता, तेलंगाना में सौंदर्यराजन और चन्द्रशेखर राव, केरल में खान-पिनाराई आदि। 

केन्द्र में जिस पार्टी की सरकार होती है, वह राज्यपाल के पद का उपयोग, दुरुपयोग और कुप्रयोग करती है और उन्होंने राज्यपाल के पद को केन्द्र की कठपुतली बनाया है, जो केन्द्र के इशारों पर हमेशा राज्य सरकार को अस्थिर करने के लिए तैयार रहता है। विसंगति देखिए। एक राज्यपाल अपने पद से त्यागपत्र देकर सक्रिय राजनीति में लौट आता है और इस तरह उस परिपाटी और परंपरा को बदल देता है। कांग्रेस के शिंदे ने नवंबर 2004 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दिया और उन्हें उसी दिन आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया। दो वर्ष बाद वह पुन: राजनीति में आए और उन्हें कांग्रेस ने यू.पी.ए. सरकार में केन्द्रीय विद्युत मंत्री तथा उसके बाद 2012 में केन्द्रीय गृह मंत्री बनाया। 

यही स्थिति मिजोरम में भाजपा के राज्यपाल राजशेखरन की है, जिन्होंने 2019 में राज्यपाल पद से त्यागपत्र दिया और केरल से लोकसभा का चुनाव लड़ा। इस वातावरण में राज्यपाल के पद पर नियुक्ति इस आधार पर नहीं की जाती कि वह व्यक्ति अपनी सत्यनिष्ठा, निष्पक्षता के लिए जाना जाता है, अपितु राज्यपाल के पद पर नियुक्ति सेवानिवृत्त हो रहे नौकरशाहों के लिए राजनीतिक लॉलीपाप के रूप में विदाई उपहार तथा असुविधाजनक प्रतिद्वंद्वियों के लिए एक सुविधाजनक पद के रूप में की जाती है और वर्तमान में ऐसे राज्यपालों की संख्या 60 प्रतिशत से अधिक है। उसकी नियुक्ति का मूल मानदंड यह है कि क्या वह एक चमचा बन सकता है और इसीलिए विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपाल केन्द्र का एक सुविधाजनक औजार बन गया है जहां पर वह परोक्षी के माध्यम से सरकार चलाता है। इसके अलावा राज्यपाल का उपयोग अक्सर केन्द्र द्वारा राज्य में किसी भी कीमत पर अपनी सरकार स्थापित करने के लिए एक सुविधादाता के रूप में भी किया जाने लगा है और जिससे यह पद बदनाम हुआ है। यह सब कुछ एक स्वस्थ लोकतंत्र के अनुकूल नहीं है। 

समय आ गया है कि राज्यपाल उस कार्य को करें, जिसके लिए वे नियुक्त किए गए हैं अर्थात वे एक निगरानीकत्र्ता के रूप मेें हैं और उन्हें निष्पक्षता से कार्य करना चाहिए। यदि वे अपने संवैधानिक दायित्वों को त्याग दें और अपनी अंतरात्मा को केन्द्र में अपने आकाओं के पास गिरवी रख दें तो इस पद की जरूरत नहीं है। राज्यपाल की नियुक्ति के लिए एक नई विधि ढूंढी जानी चाहिए, जिसमें राज्य सरकारों से परामर्श पर्याप्त नहीं है क्योंकि कुछ राज्य सरकारें केन्द्र का समर्थन कर सकती हैं। इसकी बजाय राज्यसभा को नियुक्ति से पहले राज्यपाल पद के उम्मीदवार की पृष्ठभूमि और उसकी उपयुक्तता की जांच की जानी चाहिए। राष्ट्रपति को भी राज्यपाल पद पर नियुक्ति के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित करने चाहिएं, जिससे उन्हें किसी व्यक्ति के बारे में उसकी राजनीतिक संबद्धता और राजनीति के संबंध में गुमराह नहीं किया जा सके और केवल वे, जो राजनीतिक दृष्टि से तटस्थ हों। 

इस बात को देखते हुए कि क्षेत्रीय दलों का तेजी से उदय हो रहा है और कुछ दलों में राष्ट्रीय दृष्टिकोण का अभाव है और वे संकीर्ण तथा पहचान की राजनीति करते हैं, अच्छे लोकतांत्रिक राज्यपालों की नियुक्ति और भी महत्वपूर्ण बन जाती है। अत: हमारे नेताओं और दलों, जो संविधान की कसम खाते रहते हैं, उन्हें उस बात को भी व्यवहार में भी लाना चाहिए, जिसका वे अक्सर उपदेश देते हैं।-पूनम आई. कौशिश
 

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