राजनीतिक मजबूरी का नाम हैै ‘उप मुख्यमंत्री’

Edited By ,Updated: 31 Dec, 2024 05:50 AM

deputy chief minister is the name of political compulsion

समर्थकों के बीच ‘दादा’ के संबोधन से लोकप्रिय अजित पवार का मुख्यमंत्री बनने का सपना तो पता नहीं कब साकार होगा, लेकिन सबसे ज्यादा 6 बार उप मुख्यमंत्री बनने का राष्ट्रीय रिकॉर्ड साल 2024 में उनके नाम हो गया। आश्चर्यजनक यह कि अजित पवार और  एकनाथ शिंदे...

समर्थकों के बीच ‘दादा’ के संबोधन से लोकप्रिय अजित पवार का मुख्यमंत्री बनने का सपना तो पता नहीं कब साकार होगा, लेकिन सबसे ज्यादा 6 बार उप मुख्यमंत्री बनने का राष्ट्रीय रिकॉर्ड साल 2024 में उनके नाम हो गया। आश्चर्यजनक यह कि अजित पवार और  एकनाथ शिंदे ने भी शपथ ‘उप मुख्यमंत्री’ के रूप में ली, जबकि ‘उप मुख्यमंत्री’ या ‘उप प्रधानमंत्री’ पद का कोई प्रावधान संविधान में नहीं है। 

1989 में जब चौधरी देवीलाल ने विश्वनाथ प्रताप सिंह मंत्रिमंडल में शपथ लेते हुए अपने लिए ‘उप प्रधानमंत्री’ पदनाम पढ़ा तो तत्कालीन राष्ट्रपति ने उन्हें टोक दिया था। दरअसल उप प्रधानमंत्री या उप मुख्यमंत्री जैसा कोई पद संविधान में न होने के चलते उनकी हैसियत एक कैबिनेट मंत्री की ही होती है। इसलिए उन्हें उसी रूप में शपथ भी लेनी चाहिए, पर दुनिया भर में आदर्श शासन प्रणाली माने जाने वाले लोकतंत्र को भी हमारी राजनीति ने सत्ता का खिलौना बना दिया है। भारत के संविधान में उप मुख्यमंत्री पद न होने पर भी राज्य-दर-राज्य उप मुख्यमंत्रियों की संख्या बढ़ती जा रही है। जाहिर है, यह संवैधानिक नहीं, बल्कि राजनीतिक मजबूरी है। 

देश के कुल 28 में से 16 राज्यों में इस समय कुल मिला कर 26 उप मुख्यमंत्री हैं। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मेघालय, नागालैंड और ओडिशा में 2-2 उप मुख्यमंत्री हैं, जबकि हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु और अरुणाचल में एक-एक उप मुख्यमंत्री है। तमिलनाडु में तो मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने बेटे उदयनिधि को ही उप मुख्यमंत्री बना दिया। ऐसा करने वाले वह पहले राजनेता नहीं। प्रकाश सिंह बादल ने भी पंजाब का मुख्यमंत्री रहते हुए अपने बेटे सुखबीर सिंह बादल को उप मुख्यमंत्री बना दिया था। ऐसा भी नहीं कि किसी प्रदेश के बड़े आकार के मद्देनजर जनता को बेहतर शासन देने के मकसद से उप मुख्यमंत्री का पद सत्ताधीशों ने गढ़ लिया है, क्योंकि 294 विधानसभा सीटों वाले पश्चिम बंगाल में एक भी उप मुख्यमंत्री नहीं, जबकि 90 विधानसभा सीटों वाले छत्तीसगढ़ में 2 उप मुख्यमंत्री हैं। 

आधे-अधूरे राज्य दिल्ली में भी मनीष सिसोदिया उप मुख्यमंत्री होते थे, जिन्हें शराब घोटाले में गिरफ्तारी के चलते इस्तीफा देना पड़ा। आंध्र प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री जगन मोहन रैड्डी ने तो 5 उप मुख्यमंत्री बना दिए थे। जनादेश नहीं मिला, वरना हरियाणा में कांग्रेस की भी मंशा 4 उप मुख्यमंत्री बनाने की थी।दरअसल आजादी के समय ही बिहार में अनुग्रह नारायण सिंह, देश में बनने वाले पहले उप मुख्यमंत्री थे। कभी राजनीतिक वरिष्ठता और गठबंधन राजनीति के दबावों से बनी जो ‘व्यवस्था’ अपवाद स्वरूप नजर आती थी, वह अब सत्ता के बंदरबांट का फॉर्मूला बन गई है। एक ही दल को स्पष्ट बहुमत मिलने पर भी उप मुख्यमंत्री बना कर क्षेत्रीय और जातीय समीकरण साधते हुए चुनावी बिसात बिछाई जा रही है। मुख्यमंत्री एक वर्ग का बना कर अन्य प्रमुख वर्गों से उप मुख्यमंत्री बना देने को चुनावी जीत का नया फॉर्मूला मान लिया गया है। मसलन, उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री राजपूत हैं तो ब्राह्मण और ओ.बी.सी. उपमुख्यमंत्री बना दिए गए हैं। क्या इससे हमारे राजनीतिक दल इस खतरनाक सोच को ही बढ़ावा दे रहे हैं कि जाति -समुदाय विशेष का व्यक्ति ही अपने समुदाय के हित में काम कर सकता है और उसके वोट दिलवा सकता है।

अगर नौकरशाही को भी लोग इसी नजर से देखने लगें, तब क्या होगा? ऐसी सोच संविधान के तहत ली जाने वाली उस शपथ का भी उल्लंघन है, जिसमें बिना राग-द्वेष सभी के प्रति समान भाव रखते हुए दायित्व निर्वाह की बात कही जाती है। अगर कहीं उस भावना का क्षरण दिख रहा है तो उसे ठीक करने की जरूरत है, न कि उसे बढ़ावा देने की। फिर यह सब चल कैसे रहा है? जाहिर है, सभी राजनीतिक दल सत्ता के ही खिलाड़ी हैं। इसीलिए वैचारिक मतभेदों के बावजूद उनमें सत्ता के ऐसे खेल पर मौन सहमति है। देश में इस समय जो 26 उप मुख्यमंत्री हैं, उनमें से सबसे ज्यादा 15 राजग के हैं। इनमें अकेले भाजपा के 13 हैं, जबकि राष्ट्रीय राजनीति में हाशिए पर जा चुकी कांग्रेस के 3।

सुप्रीमकोर्ट ने साफ कर दिया कि अतिरिक्त राजनीतिक महत्व देने के लिए भले ही किसी को उप मुख्यमंत्री कह दिया जाए, पर वास्तव में वह होता मंत्री ही है, और वह किसी अतिरिक्त अधिकार या सुविधा का पात्र नहीं है। बेशक तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 3 सदस्यीय पीठ के फैसले से समस्या का निराकरण नहीं हुआ, पर यह प्रवृत्ति बेनकाब अवश्य हो गई कि अपने राजनीतिक हित साधने के लिए सत्ता के खिलाड़ी संविधान को भी नजरअंदाज करने में संकोच नहीं करते। याचिका में कहा गया था कि संविधान के अनुच्छेद 164 में सिर्फ राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री और फिर उसकी सलाह पर मंत्रियों की नियुक्ति का ही प्रावधान है। संभव है कि देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा यह याचिका खारिज कर दिए जाने के बाद फिर इस प्रवृत्ति को कानूनी चुनौती न दी जाए और यह तेजी से बढ़े भी, लेकिन यह है तो सत्तालोलुप राजनीति द्वारा लोकतंत्र के साथ किया जा रहा खिलवाड़ ही, जिसमें कमोबेश सभी राजनीतिक दल शरीक हैं।-राज कुमार सिंह
 

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