थाली में खाना न छोड़ें

Edited By ,Updated: 24 Dec, 2024 06:28 AM

do not leave food on the plate

इन दिनों शादियों का मौसम है। देखने में आता है कि जितना दिखावा उत्तर भारत और खास तौर से हिंदू समाज की शादियों में होता है, वह शायद और कहीं नहीं। ईसाइयों, मुसलमानों और सिखों में शादियां बहुत सादगी से होती हैं। यह बात काबिले तारीफ है।

इन दिनों शादियों का मौसम है। देखने में आता है कि जितना दिखावा उत्तर भारत और खास तौर से ङ्क्षहदू समाज की शादियों में होता है, वह शायद और कहीं नहीं। ईसाइयों, मुसलमानों और सिखों में शादियां बहुत सादगी से होती हैं। यह बात काबिले तारीफ है। एक तरफ दहेजमुक्त भारत के सपने देखे जाते हैं और दूसरी ओर शादियों में इतना दिखावा बढ़ गया है कि युवा नौकरी की शुरुआत में ही इतना बड़ा कर्ज उठा लेते हैं कि दशकों तक उसे चुकाते हैं।

शादियों के बारे में जब से कार्पोरेट द्वारा अपने उत्पादों को लोकप्रिय करने की अवधारणा फैलाई गई है तब से माना जाने लगा है कि अगर दूल्हा-दुल्हन के पास अमुक ब्रांड के कपड़े नहीं, गहने नहीं, डेस्टीनेशन वैडिंग नहीं, प्री-वैडिंग शूट, पांच सितारा होटल या फार्म हाऊस नहीं तब तक शादियां जैसे हो ही नहीं सकतीं। यही सब करके सोचा जाता है कि शादी को लोग हमेशा याद रखेंगे। मगर सच्चाई यह है कि शादी के प्रांगण से बाहर निकलते ही सब भुला दिया जाता है, हमेशा याद रखने की बात तो दूर है। यूं भी जिन दिनों शादियां बड़े पैमाने पर टूट रही हों, उन दिनों एक दावत को कौन याद रखता है।  

यही हाल खाने का है। आजकल शादियों में इतनी प्रकार के व्यंजन परोसे जाते हैं कि कायदे से आप सभी का एक-एक चम्मच भी नहीं खा सकते। ऐसा भी होता है कि लोग प्लेटों में खूब खाना परोसते हैं और आधा खाया, आधा छोड़ देते हैं। इस तरह भारी मात्रा में खाना बर्बाद होता है जबकि अपने ही देश में न जाने ऐसे कितने लोग हैं जिन्हें एक वक्त का खाना भी नसीब नहीं। कहा जाता है कि एक बार संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में प्रतिवर्ष 40 प्रतिशत खाना बर्बाद हो जाता है। अगर इसके पैसे का हिसाब लगाया जाए तो यह लगभग 88000 करोड़ रुपए बैठता है। यदि यह पैसा बचे तो और कितने काम आ सकता है। अच्छी बात यह है कि राजस्थान के शहर जोधपुर में 5 साल पहले एक मुहिम शुरू की गई कि थाली में खाना न छोड़ें। इसकी शुरुआत समदड़ी के कुंजुनाथ जैन मंदिर से हुई थी। वहां जयंती लाल पारेख ने इसकी शुरुआत की। बताते हैं कि इसकी प्रेरणा उन्हें महाराष्ट्र से मिली। 

पारेख ने ऐसी 1000 थालियां बनवाईं जिनमें मोटे अक्षरों में लिखा था कि थाली में जूठन न छोड़ें। पारेख का मानना था कि थालियों पर ऐसा लिखवाने से लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ता है और वे सोच-समझकर खाना लेते हैं। जल्दी ही इस मुहिम ने जोर पकड़ लिया और इसकी शुरुआत जोधपुर जैसे शहर में हुई। इसकी पहल जैन, महेश्वरी और खांची समाज के लोगों ने की।  इसे लोगों और शादियों में काम करने वाले कैटरर्स का भी समर्थन मिला। वहां थालियों में लेजर की मदद से मोटे अक्षरों में लिखवाया गया कि कृपया जूठा न छोड़ें। शादियों या किसी उत्सव पर कुछ लोग भी आने वाले मेहमानों से बहुत विनम्रता से इसकी प्रार्थना करते हैं। इसका असर यह हुआ कि  एक ही माह के भीतर इस प्रकार की 10,000 थालियां बनवाई गईं।

स्टील का काम करने वाले व्यापारियों ने इस तरह की थालियों के चित्र सोशल मीडिया पर डाले थे, इसके बाद लगातार इस तरह की थालियों को बनवाने के आर्डर आए और मुहिम की सफलता बढ़ती गई। बहुत से कैटरर्स और अन्य शहरों के लोग भी इस तरह की थालियों को बनवाने लगे। बड़े- बड़े आयोजनों में  जहां हजारों की संख्या में लोग आते, उन्हें ऐसी ही थालियों में भोजन परोसा जाता। एक-एक व्यक्ति से अनुरोध किया जाता  कि वे थाली में भोजन न छोड़ें। कई बार जो लोग थाली में भोजन छोड़ते, उनके सामने ही दूसरे लोग उसे खाने लगते, इसका भारी असर होता। यही नहीं कई लोग अगर तब भी नहीं मानते तो उनका नाम स्टेज से एनाऊंस किया जाता। 

मगर दिल्ली जैसे शहर या अन्य महानगरों में ऐसा कब होगा। यहां न जाने कितना खाना बर्बाद होता है। यदा-कदा ऐसी खबरें आती हैं कि युवा अपने विवाह में तामझाम करने के मुकाबले इस पैसे का इस्तेमाल किसी सामाजिक कार्य के लिए करते हैं, जो प्रशंसा करने लायक बात है। दिल्ली में कई स्वयंसेवी संस्थाएं शादियों, उत्सवों और होटलों से बचा हुआ खाना इकट्ठा करती हैं और वे इसे जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाती हैं लेकिन प्लेटों में बचा हुआ जूठा खाना तो कूड़े में ही जाता है। इसलिए जरूरी है कि अपनी थाली या प्लेट में उतना ही खाना परोसें, जितना खा सकें। यदि एक बार में पेट न भरे तो बजाय इसके कि ढेर सारा खाना परोस कर फिर उसे छोड़े दें, दोबारा ले सकते हैं। आखिर आयोजन कत्र्ताओं को भोजन पर बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है। फिर खाने की बर्बादी करने से लाभ भी क्या मिलता है। अपने यहां तो वैसे भी अन्न के अपमान को बुरा माना जाता है। यह कहावत भी यही सोचकर बनी होगी कि लोग भोजन को बर्बाद न करें, उसका सम्मान करें। हम भी अपने-अपने तरीके से इसकी पहल कर सकते हैं। बच्चों को बचपन से ही सिखाया जा सकता है कि थाली या प्लेट में खाना छोडऩा अनुचित है।-क्षमा शर्मा  
 

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