इसे ‘फ्रीबीज’ या रेवड़ी मत कहिए

Edited By ,Updated: 16 Nov, 2024 05:39 AM

don t call it  freebies  or  rewadi

अभी तक इंगलिश शब्द फ्रीबीज का अनुवाद कहीं खैरात नजर नहीं आया है। (खैरात खाने या लेने को बुरा माना जाता है। पहले तो बहुत बुरा माना जाता था और अब भी माना जाता है।) इसमें खैरात देने वाले को पुण्य मिलने और खाने वाले को उसके पापों में हिस्सेदारी आ जाने...

अभी तक इंगलिश शब्द फ्रीबीज का अनुवाद कहीं खैरात नजर नहीं आया है। (खैरात खाने या लेने को बुरा माना जाता है। पहले तो बहुत बुरा माना जाता था और अब भी माना जाता है।) इसमें खैरात देने वाले को पुण्य मिलने और खाने वाले को उसके पापों में हिस्सेदारी आ जाने का भाव माना जाता है। चुनाव के समय दिए जाने वाली लोक-लुभावन सरकारी खैरातें या सरकार बनने पर दिए जाने वाले लाभों के वायदे को अंग्रेजी में फ्रीबीज कहा जाता है और मीडिया ने उसके अर्थ के काफी आसपास का शब्द रेवड़ी इस्तेमाल करना शुरू किया है। सरकारें और राजनीतिक दल खैरात का प्रयोग करने से बचें। यह तो स्वाभाविक है क्योंकि वे क्यों स्वीकार करेंगे कि वे अपने पापों का बोझ हल्का करने के लिए ऐसे कदम उठा रहे हैं या उसका वायदा करके चुनाव लड़  रहे हैं। मीडिया अगर ज्यादा ईमानदार होता तो राजनेताओं और सरकारों की इच्छा की परवाह न करता। 

दक्षिण की राजनीति में, खासकर तमिलनाडु में  फ्रीबीज का चलन काफी समय से था लेकिन देश के स्तर पर कोरोना के दौर में सरकार द्वारा 5 किलो मुफ्त राशन देने के फैसले के बाद इसका चलन अचानक बढ़ा है क्योंकि कोरोना के बाद हुए चुनाव में भाजपा को इस फैसले का लाभ मिलने का रुझान बहुत साफ दिखा। पर कोरोना के समय गरीब लोगों को राशन उपलब्ध कराना और साथ ही अनाज से भरे सरकारी गोदामों में खाद्यान्नों को सड़ाने की जगह बांटने का विकल्प बहुत बढिय़ा था और अगर बोनस में नरेंद्र मोदी और भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी तो उससे किसी को शिकायत नहीं होनी चाहिए।

अगर लॉकडाऊन का फैसला गलत था और उससे खास तौर से प्रवासी मजदूरों को बहुत कष्ट हुआ तो अनाज बांटने का सही फैसला करने का श्रेय भी देना चाहिए। लेकिन एक बार चुनावी लाभ देख लेने के बाद लगातार मुफ्त अनाज बांटने का फैसला निश्चित रूप से राजनीति का हिस्सा है और इसको अलग नजरिए से देखना चाहिए। यह अलग बात है कि उसके बाद से महिलाओं को, बेरोजगारों को, दलितों-आदिवासियों को, किसानों को (मुफ्त बिजली और कर्ज माफी समेत) बेहतर खरीद मूल्य देने, सालाना सहायता देने और कर्मचारियों को पुरानी पैंशन योजना न जाने किस-किस तरह के लाभ देने की घोषणा करने की होड़ शुरू हो गई। और हालत यह हो गई कि कई जगहों से इन वायदों को पूरा करने लायक बजट न होने, योजनाओं के बीच में लटकने और शुरू भी न हो पाने की खबरें आनी शुरू हो गई हैं। इनसे और कुछ हुआ या नहीं भाजपा और कांग्रेस को एक-दूसरे पर औकात से ज्यादा बड़े वायदे करने और वायादाखिलाफी करने का आरोप लगाने का अवसर मिल गया। वायदों की राजनीति एक है और वायदाखिलाफी  की राजनीति दूसरी।

लेकिन यह गंभीर मसला है और इसे सिर्फ राज्यों या केंद्र के बजट, घाटे, कर्ज जैसे राजकोषीय प्रबंधन वाली शब्दावली में उलझना गलत है। खैरात (राजनेताओं के अपराधबोध और पाप का भागीदार बनकर उनको माफ कर देना अर्थात रेवड़ी पाकर वोट देना) का तत्व होने के बावजूद इनको खैरात या मुफ्त की रेवड़ी कहना गलत है और बड़े-बड़े वायदे करने वाले राजनेताओं को हल्का मान लेना गलत है। हमारे यहां यह सब वायदे और फैसले बड़ी पार्टियां, बड़े नेता और केंद्र तथा राज्य सरकारें कर रही हैं और इनमें ऐसा कोई भी नहीं है जो आज वायदे करे, कल वोट ले और परसों रफूचक्कर हो जाए। मोदी सरकार से जुड़े तमाम विवादों और वादाखिलाफी के बाद भी उसकी विश्वसनीयता इतनी है कि जब वे किसानों को साल में 6000 रुपए देने का वायदा करते हैं (और देते हैं) तो लोग उन पर भरोसा करते हैं और राहुल गांधी द्वारा 6000 रुपए प्रति माह देने के वायदे पर भरोसा नहीं करते। मोदी और राहुल का ग्राफ अगर ऊपर-नीचे होता है तो उसमें इन चुनावी वायदों और चालाकियों का भी हाथ है। हिमाचल और कर्नाटक में कांग्रेस की जीत और लोकसभा चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन की बेहतर सफलता के पीछे उनके वायदों पर बढ़ता भरोसा रहा। 

मोदी के खिलाफ एंटी-इंकम्बैन्सी भी थी। राहुल लाख झोंपडिय़ों में जाएं, मोची का काम सीखें, रोड साइड सैलून में मालिश कराएं लेकिन उनकी पदयात्रा भी सैंकड़ों वातानुकूलित छावनियों और बसों-गाडिय़ों वाली ही होती है। गरीब दलित/आदिवासी के घर पहुंचने पर उनके मन में भी अपराधबोध या अब तक की कांग्रेसी नीतियों की सीमाएं समझ आती होंगी। उनको मोदी जी की गलतियां दिखती हैं और मनमोहन सरकार की न दिखती हों, यह नहीं हो सकता।

और यह सोचने के बाद अगर हम फ्रीबीज पर विचार करेंगे तो यह खैरात, रेवड़ी और नेताओं/दलों का गैर-जवाबदेही वाला वायदा भर नहीं लगेगा। तब यह इन चीजों के हल्के प्रभाव भर का मामला दिखेगा। साफ लगेगा कि यह हमारी अब तक चली सरकारी नीतियों की विफलता का एक कोर्स करैक्शन है। यह सरकारों द्वारा अपनी नाकामी स्वीकारना है। अगर नई आॢथक नीतियां हमारे योजनाबद्ध विकास के समाजवादी माडल या मिश्रित अर्थव्यवस्था की विफलता से पैदा हुई लगेंगी तो यह बदलाव डायरैक्ट बैनीफिट ट्रांसफर का लगेगा। सब कुछ गंवाकर अब उसे यही मिल रहा है तो आप उसे फ्रीबीज या रेवड़ी मत कहिए।-अरविंद मोहन 
 

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