Edited By ,Updated: 15 Jun, 2024 05:28 AM
जीवन के 3 पड़ाव हैं। सबसे पहले पढ़ाई लिखाई, फिर उसके बल पर मनचाही या जैसी-तैसी नौकरी या कोई काम-धंधा और फिर ऐसा समय जिसमें अब तक जो हुआ उसे याद करने, संस्मरण सुनते-सुनाते प्रतीक्षा करते रहना कि कब परलोक सिधारने का समय आ जाए। यही हकीकत है।
जीवन के 3 पड़ाव हैं। सबसे पहले पढ़ाई लिखाई, फिर उसके बल पर मनचाही या जैसी-तैसी नौकरी या कोई काम-धंधा और फिर ऐसा समय जिसमें अब तक जो हुआ उसे याद करने, संस्मरण सुनते-सुनाते प्रतीक्षा करते रहना कि कब परलोक सिधारने का समय आ जाए। यही हकीकत है।
योग्यता का पैमाना : इसे इस घटना से समझते हैं देश के संस्थान एन.ई.ई.टी. अर्थात विभिन्न व्यवसायों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए सरकारी संस्थानों में प्रवेश की योग्यता सिद्ध करने वाला उपक्रम नीट। इसके अंतर्गत ठेका सिद्धांत के आधार पर एन.टी.ए. या राष्ट्रीय स्तर पर इच्छुक विद्याॢथयों की परीक्षा लेने वाली एजैंसी का गठन हुआ ताकि युवा वर्ग को इधर-उधर भटकना न पड़े और वे निश्चिंत होकर अपना निर्धारित लक्ष्य या सपना पूरा कर सकें। चिकित्सा के क्षेत्र में जाने के लिए लालायित युवा वर्ग एक बहुत ही कड़े और पारदर्शी कहे जाने वाले इम्तिहान की तैयारी में जुट जाता है। स्कूल में जो पढ़ा, वह नाकाफी होने से ऐसी दुकानों का खुलना अनिवार्य हो गया जहां सभी तरह के व्यवसायों की समझ दिलाने और फिर अगर कोई प्रतियोगिता होती है तो उसमें उत्तीर्ण होने की गारंटी दी जा सके।
इनका पनपना निश्चित था क्योंकि सरकार की तरफ से कोई इंतजाम न था। ऐसे में उन लोगों की पौ बारह हो गई जिन्होंने अपनी घोंसलेनुमा दुकान या बेकार पड़ी बड़ी हवेली की काट-छांट कर क्लास रूम, होस्टल में परिवर्तित कर उसके आंगन में सोना-चांदी बरसने का प्रबंध कर लिया। वहां काल्पनिक योग्यता के आधार पर शिक्षकों की नियुक्ति हुई जिन्हें लक्ष्य दिया गया कि चाहे जो कुछ करना पड़े, उनके यहां पढऩे वाले केवल पास ही नहीं बल्कि मैरिट हासिल करें ताकि उनका दाखिला बड़े और प्रतिष्ठित संस्थानों में संभव हो जाए।
यदि विद्यार्थी इस योग्य है कि मार्गदर्शन से सही दिशा तक पहुंच सकता है तो इन्हें पढ़ाने वालों को अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता है। अगर ऐसा नहीं है तो ऐसे उपाय अपनाए जाते हैं कि काबिलियत को भाड़ झोंकना पड़ जाए और पैसे के बल पर प्रथम आने वालों की भीड़ लग जाए। इनके लिए एग्जामिनेशन सैंटर पर सांठ-गांठ हो जाती है, प्रश्नपत्र लीक कर रटवाने और नकल करने की सुविधा अतिरिक्त चार्ज पर उपलब्ध कर दी जाती है। जो अपनी दिन-रात की मेहनत और परिवार को आर्थिक रूप से कंगाल तक कर देने के बल पर इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने का सपना देखते हैं, वे पीछे रह जाते हैं।
लाखों युवाओं को निराशा, अवसाद और मानसिक तनाव के दौर से गुजरना पड़ता है। कोङ्क्षचग इतनी महंगी कि माता-पिता से एक और चांस लेने की बात कह नहीं पाते और जो भी रोजगार मिल जाए, उसकी कोशिश में लग जाते हैं। इस बात में संदेह नहीं है कि इन सब विकट परिस्थितियों के होते हुए भी कुछ प्रतिभाशाली अपना मनचाहा कोर्स करने में सफल हो जाते हैं। विडंबना यह है कि उन्हें उनसे कम्पिटिशन करने के लिए विवश होना पड़ता है जो धन, बल और सिफारिश के दम पर इन स्थानों में उनसे आगे बैठे होते हैं। ये सब मुन्नाभाई हर जगह सफल होते रहते हैं और वे सब पद पा लेते हैं जिन पर किसी दूसरे का अधिकार था।
उल्लेखनीय यह है कि यह परंपरा आजादी के बाद से अब तक अनवरत चल रही है। इसे तोडऩा या बदलना मुश्किल ही नहीं असंभव लगता है क्योंकि हमारी राजनीतिक व्यवस्था और सामाजिक सोच ऐसी है कि यदि थोड़ी सी पहुंच, खानदानी रुतबे और पैसा फैंक कर तमाशा देखने को मिल जाए तो इसमें बुराई क्या है शिक्षा के क्षेत्र में चाहे व्यापम घोटाला हो या पेपर लीक, ग्रेस मार्क देने और करोड़ों रुपए के लेन-देन की पृष्ठभूमि हो, कुछ नहीं बदला है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले भी कितनी अहमियत रखते हैं, किसी से छिपा नहीं है, उन्हें अपने स्वार्थ के अनुसार तोडऩे-मरोडऩे वालों की कमी नहीं है।
इसी के साथ ऐसे युवाओं की भी संख्या कम नहीं होने वाली जो यहां की प्रणाली से भरोसा उठ जाने के कारण किसी भी तरह से विदेश जाकर पढऩे और फिर कभी न लौटकर आने के संकल्प की दृढ़ता पर विश्वास करने लगते हैं। जहां तक ग्रेस मार्क की बात थी, उसका बहुत आसान हल यह था कि जितना समय किसी सैंटर पर व्यर्थ गया, उसकी भरपाई अतिरिक्त समय देकर कर ली जाती। लेकिन खेल तो यह था ही नहीं, वह तो सैंकड़ों करोड़ की कमाई का था और शायद इसका कभी खुलासा ही न हो और कहीं किसी एक और कब्र में यह भी दफन हो जाए!-पूरन चंद सरीन