Edited By ,Updated: 21 Nov, 2024 05:41 AM
महाराष्ट्र और झारखंड में उम्मीदवारों की किस्मत तय होने के साथ ही, एक कटुु और बेबाक प्रचार अभियान का अंत हो गया है। दोनों राज्यों में चुनावों का अंतिम परिणाम चाहे जो भी हो, यह प्रचार अभियान इतिहास में अब तक के सबसे सांप्रदायिक और विभाजनकारी अभियानों...
महाराष्ट्र और झारखंड में उम्मीदवारों की किस्मत तय होने के साथ ही, एक कटुु और बेबाक प्रचार अभियान का अंत हो गया है। दोनों राज्यों में चुनावों का अंतिम परिणाम चाहे जो भी हो, यह प्रचार अभियान इतिहास में अब तक के सबसे सांप्रदायिक और विभाजनकारी अभियानों में से एक के रूप में दर्ज किया जाएगा। मुझे याद है कि मैंने पिछले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव और पिछले लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के समाप्त होने के ठीक बाद भी ऐसा कहा था। दुर्भाग्य से, खासकर सांप्रदायिक रंग के साथ राजनीतिक बयानबाजी का स्तर बद से बदतर होता जा रहा है और अभी-अभी सम्पन्न हुए चुनाव अभियान को अब सबसे ज्यादा सांप्रदायिक कहा जा सकता है।
दोनों राज्यों, खासकर महाराष्ट्र में हुए चुनावों में भाजपा और उसके गठबंधन सहयोगियों तथा कांग्रेस एवं उसके गठबंधन सहयोगियों दोनों के लिए बहुत कुछ दाव पर लगा था। हरियाणा चुनावों के आश्चर्यजनक परिणाम, जिसमें भाजपा ने सभी को गलत साबित कर दिया और कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया, ने महाराष्ट्र में भाजपा के नेतृत्व वाले अभियान को बढ़ावा दिया। हालांकि, जाहिर है कि भाजपा देश के सबसे समृद्ध और दूसरे सबसे बड़े राज्य को जीतने के लिए कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती थी। कांग्रेस और अन्य गठबंधन दलों को अतीत में नरेंद्र मोदी के लिए ‘मौत का सौदागर’ जैसे नारे लगाने के लिए दोषी ठहराया जाना चाहिए, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नेता अपने सांप्रदायिक बयानों और नारों से मीलों आगे हैं।
उनके नारे जैसे ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ और ‘एक हैं तो सेफ हैं’ में स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक रंग है जिसे एक बच्चा भी समझ सकता है। अधिक बच्चे पैदा करने वाले या जिनके सदस्य ‘घुसपैठिया’ हैं और जो मंगलसूत्र, जमीन और सोना छीन लेंगे, उनका संदर्भ स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक रंग देता है।
इससे पहले लोकसभा चुनावों के दौरान, मोदी ने दावा किया था कि विपक्ष को मिलने वाला हर वोट हिंदुओं द्वारा अर्जित धन का उपयोग उन मुसलमानों को वितरित करने के लिए किया जाएगा जिनके अधिक बच्चे हैं और जो घुसपैठिए हैं, उन्होंने आगे कहा कि कांग्रेस मुसलमानों को हिंदू महिलाओं के ‘मंगलसूत्र’ भी वितरित कर सकती है। सांप्रदायिक पहलू को एक कदम और आगे बढ़ाते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह अपने भाषणों में ‘घुसपैठियों’ को दीमक बताते रहे हैं और आदिवासियों से कहते रहे हैं कि वे अपनी मासूम बेटियों को अपनी तीसरी या चौथी पत्नी बना लेंगे।
विडंबना यह है कि पार्टी के नेता जाति जनगणना की मांग को लेकर कांग्रेस और कुछ अन्य दलों की आलोचना करते रहे हैं और कहते रहे हैं कि यह ‘विभाजनकारी’ है और इससे सामाजिक तनाव पैदा होगा। सबसे मुखर और सबसे सांप्रदायिक नेताओं में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा शामिल हैं। वे कभी भी विकास या प्रगति या यहां तक कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारों की उपलब्धियों के बारे में बात नहीं करते हैं। उनका एकमात्र लक्ष्य मुस्लिम समुदाय है और वे हर बार चुनाव प्रचार के लिए बाहर निकलते समय और भी गहराई में उतर जाते हैं। दुर्भाग्य से न तो सर्वोच्च न्यायालय और न ही भारत के चुनाव आयोग ने इस ज्वार को रोकने के लिए कदम उठाया है। उन्होंने चुनावों के इस तरह के सांप्रदायिकरण पर आंखें मूंद ली हैं या कान बंद कर लिए हैं।
हाल ही में चुनाव आयोग ने हस्तक्षेप किया सांप्रदायिक रंगत को रोकने के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक दलों से विकलांग लोगों के लिए समावेशिता को बढ़ावा देने के लिए कहा, जिसमें राजनीतिक विमर्श में गूंगा, बहरा, लंगड़ा जैसे शब्दों का इस्तेमाल न करना शामिल है। यह एक अच्छा और उचित निर्देश था, लेकिन यह उन राजनेताओं को बाहर निकालने से क्यों कतरा रहा है जो स्थिति को सांप्रदायिक बनाने और समाज को विभाजित करने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं। दोनों राज्यों में सबसे लोकप्रिय पार्टी या गठबंधन को चुनाव जीतने दें, लेकिन राजनीतिक नेताओं को देश के सर्वोत्तम हित में नई गहराई में जाने से बचना चाहिए।-विपिन पब्बी