Edited By ,Updated: 25 Jun, 2024 05:52 AM
देश अंग्रेजी दास्ता से मुक्त हुआ तो यह उम्मीद जगी कि भारत अब प्रताडऩा के दंश से मुक्त होगा। लेकिन देश के आजाद होने के लगभग 2 दशक बाद 1975 से 1977 तक जनता को ऐसी प्रताडऩा झेलनी पड़ी जो प्रताडऩा की पराकाष्ठा थी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के इतिहास...
देश अंग्रेजी दास्ता से मुक्त हुआ तो यह उम्मीद जगी कि भारत अब प्रताडऩा के दंश से मुक्त होगा। लेकिन देश के आजाद होने के लगभग 2 दशक बाद 1975 से 1977 तक जनता को ऐसी प्रताडऩा झेलनी पड़ी जो प्रताडऩा की पराकाष्ठा थी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के इतिहास का वह एक काला अध्याय था। 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक 21 महीने की अवधि में भारत प्रताडऩा के दौर में रहा।
स्वतंत्र भारत के इतिहास का यह सबसे अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक एवं राजनीतिक अत्याचार का काल था। देश में सभी चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। मानवाधिकारों को कुचल दिया गया। तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया। अभिव्यक्ति की आजादी समाप्त कर दी गई। प्रैस की स्वतंत्रता समाप्त कर उसको भी प्रतिबंधित कर दिया गया।
कोई भी समाचार पत्र सरकार की अनुमति के बिना कुछ भी प्रकाशित नहीं कर सकता था। चार न्यूज एजैंसियों को एक कर उसे सरकारी नियंत्रण में ले लिया गया था। लगभग 4 हजार अखबारों को जब्त कर लिया गया तथा 327 पत्रकारों को मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। 250 अखबारों का विज्ञापन बंद कर दिया गया तथा 7 विदेशी पत्रकारों को देश से निकाल दिया गया। दर्जन भर विदेशी पत्रकारों के भारत में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई तो कई को भारत से बाहर निकाल दिया गया। ऐसी अलोकतांत्रिक कार्रवाई करने वाली कांग्रेस पार्टी आज संविधान और अभिव्यक्ति की आजादी की बात करती है तो हास्यास्पद लगती है। लोकनायक जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवानी, जननायक कर्पूरी ठाकुर समेत विपक्ष के तमाम नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
आपातकाल की घोषणा के बाद पंजाब में विरोध मुखर हुआ। सिख नेतृत्व ने भी कांग्रेस की इस करतूत का विरोध किया। अमृतसर में बैठकों का आयोजन किया गया जहां उन्होंने कांग्रेस की फासीवादी प्रवृत्ति का विरोध करने का संकल्प किया। इस तरह देश के सभी राज्यों में केंद्र सरकार की तानाशाही के खिलाफ आंदोलन मुखर होता गया। राज्य की विधानसभाओं से विपक्षी विधायकों ने इस्तीफा देना शुरू कर दिया। 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में दी गई चुनौती के बाद से देश में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर शुरू हुआ। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में माना कि इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया।
इस समय देश में ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ का माहौल बना दिया गया था। ऐसे माहौल में इंदिरा के होते किसी और को प्रधानमंत्री कैसे बनाया जा सकता था। इंदिरा गांधी अपनी ही पार्टी में किसी पर भी विश्वास नहीं करती थीं। उन्होंने तय किया कि वह इस्तीफा देने की बजाय 3 हफ्तों की मिली मोहलत का फयदा उठाते हुए इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दें।
सुप्रीम कोर्ट ने भी हाई कोर्ट के फैसले पर पूर्ण रोक लगाने से इंकार कर दिया। बिहार और गुजरात में कांग्रेस के खिलाफ छात्रों का आंदोलन उग्र हो रहा था। बिहार में इस आंदोलन का नेतृत्व लोकनायक जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की रैली थी। उन्होंने इंदिरा गांधी पर देश में लोकतंत्र का गला घोंटने का आरोप लगाया और रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता के अंश ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ का नारा बुलंद किया था।
इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने का सबसे बड़ा बहाना जयप्रकाश नारायण द्वारा बुलाया गया असहयोग आंदोलन था। इसी आधार पर 26 जून 1975 की सुबह राष्ट्र के नाम अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा कि जिस तरह का माहौल देश में एक व्यक्ति अर्थात जयप्रकाश नारायण द्वारा बनाया गया है, उसमें यह जरूरी हो गया है कि देश में आपातकाल लगाया जाए। इसके साथ ही तत्कालीन भारतीय संविधान की धारा 352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर दी गई। 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में खुद इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं। जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने।
इस नई सरकार में जननेता अटल बिहारी वाजपेयी ने विदेश मंत्री के रूप में दुनिया के सामने भारत की जो तस्वीर पेश की, उसे आज भी लोग याद कर रहे हैं। देश में लगाए गए आपातकाल को भारत के राजनीतिक इतिहास की एक कलंक कथा के रूप में याद किया जाता है। जेल में कैद के दौरान भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं में उस समय की स्थिति का आकलन है
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