Edited By ,Updated: 31 Mar, 2025 05:00 AM

यह बात समझ में आती है कि सार्वजनिक पदों पर बैठे राजनेता अपने आलोचकों को चुप कराने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि, यह पूरी तरह से अस्वीकार्य है कि एक लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया संविधान द्वारा सभी नागरिकों को गारंटीकृत भाषण और...
यह बात समझ में आती है कि सार्वजनिक पदों पर बैठे राजनेता अपने आलोचकों को चुप कराने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि, यह पूरी तरह से अस्वीकार्य है कि एक लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया संविधान द्वारा सभी नागरिकों को गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इस तरह की कटौती को नजरअंदाज करे, यहां तक कि उसे उचित भी ठहराए। फिर भी, ऐसा बार-बार हुआ है। बिना किसी अपवाद के, प्रत्येक राजनीतिक दल आलोचकों से निपटने में सत्ता के दुरुपयोग का दोषी है, विशेषकर तब जब आलोचना उस स्थान पर चोट करती है जहां चोट पहुंचती है।
स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा के साथ उत्पीडऩ का मामला इसका सबसे ताजा उदाहरण है जो राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में है। नई दिल्ली से लेकर कोलकाता और लखनऊ से लेकर हैदराबाद तक सत्ता में बैठे राजनेताओं के आलोचकों की गिरफ्तारी या उत्पीडऩ के ऐसे कई अन्य प्रकरण हुए हैं। इसलिए,कांग्रेस पार्टी के सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ गुजरात पुलिस की शिकायत से जुड़े मामले में न्यायमूर्ति अभय ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ द्वारा पिछले सप्ताह दिए गए फैसले का व्यापक रूप से स्वागत किया जाना चाहिए। प्रत्येक नागरिक अधिकार संगठन को इस फैसले की एक प्रति देश भर के प्रत्येक मुख्यमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री को भेजनी चाहिए। निर्णय स्पष्ट था। ‘‘हमारे गणतंत्र के 75 वर्षों के बाद भी, हम अपने मूल सिद्धांतों के मामले में इतने कमजोर नहीं दिख सकते कि महज एक कविता या किसी भी प्रकार की कला या मनोरंजन जैसे स्टैंड-अप कामेडी के माध्यम से विभिन्न समुदायों के बीच दुश्मनी या घृणा पैदा करने का आरोप लगाया जा सके।’’
न्यायाधीशों ने आगे कहा, ‘‘जब बी.एन.एस. (भारत न्याय संहिता)की धारा 196 (शत्रुता को बढ़ावा देने वाले कार्यों/भाषण को दंडित करना) के तहत कोई अपराध दर्ज किया जाता है तो बोले गए या लिखे गए शब्दों के प्रभाव पर उचित, मजबूत दिमाग वाले, दृढ़ और साहसी व्यक्तियों के मानकों के आधार पर विचार करना होगा, न कि उन लोगों के जो हमेशा असुरक्षा की भावना रखते हैं या जो आलोचना को अपनी शक्ति या स्थिति के लिए खतरा मानते हैं।’’ ये देश की सर्वोच्च अदालत की महत्वपूर्ण टिप्पणियां हैं और इन्हें देश भर के हर पुलिस स्टेशन और निचली अदालतों में लगाया जाना चाहिए। सत्ता के पिरामिड के सभी स्तरों पर सत्ता में बैठे लोग हमेशा ‘असुरक्षा की भावना’ प्रदर्शित करते हैं और उन्हें हमेशा अपनी सत्ता खोने का डर बना रहता है। यह बीमारी गहरी है और हाल के वर्षों में व्यापक हो गई है।
समस्या की जड़ नि:संदेह संविधान के प्रासंगिक प्रावधानों की शब्दावली में निहित है जो वास्तव में नागरिकों की वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं। अनुच्छेद 19(1)(ए), जो सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, अनुच्छेद 19(2)द्वारा परिसीमित है जो स्टेट को निम्नलिखित हितों में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर ‘उचित प्रतिबंध’ लगाने की अनुमति देता है(1)भारत की संप्रभुता और अखंडता, (2) राज्य की सुरक्षा, (3) विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, (4) सार्वजनिक व्यवस्था, (5) शालीनता या नैतिकता, (6)अदालत की अवमानना, (7) मानहानि और (8) अपराध के लिए उकसाना। इसके साथ समस्या यह है कि प्रत्येक प्रावधान, जिसके तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ‘उचित प्रतिबंध’ लगाए जा सकते हैं, अस्पष्ट हैं और राज्य और न्यायपालिका द्वारा उनकी स्वतंत्र रूप से व्याख्या की जा सकती है तथा नागरिक को उनकी दया पर छोड़ दिया जाता है।
उदाहरण के लिए किसी भी समय यह निर्णय कौन लेगा कि कौन-सा देश ‘मित्रवत’ है? कनाडा कल मित्रवत था, कल मित्रवत हो सकता है, लेकिन आज अमित्रवत है। क्या मैं कनाडा के बारे में अपनी शब्दावली छोड़ सकता हूं? हालांकि, औसत नागरिक के जीवन में यह एक मामूली मुद्दा है। असली समस्या तो ‘शालीनता और नैतिकता’ की है। स्टैंड-अप कॉमेडियनों को भूल जाइए, राज्य विधानसभाओं और संसद के सदस्यों द्वारा सदन में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को सुनिए। देश में कहीं भी ट्रैफिक जाम के बीच खड़े हो जाइए और अभद्र भाषा की पूरी शब्दावली का सामना कीजिए। व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए केवल राज्य और उसकी संस्थाओं को ही दोषी क्यों ठहराया जाए? केवल सत्ता में बैठे राजनेताओं को ही दोष क्यों दिया जाए? मीडिया के बारे में क्या? व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए खड़े होने, सत्ता के सामने सच बोलने तथा अमीरों और शक्तिशाली लोगों की मनमानी पर सवाल उठाने में भारतीय मीडिया का रिकॉर्ड बेहद अपर्याप्त रहा है। मीडिया ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनुचित प्रतिबंध लगाने में अपनी भूमिका निभाई है। यह देखते हुए कि मीडिया स्वयं अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में विफल रहा है, हम न्यायमूर्ति ओका और भुइयां के प्रति बहुत आभारी हैं कि उन्होंने मीडिया और हम सभी के लिए ऐसा किया।
सामान्य समय में ऐसी भावनाएं ऐसी लग सकती हैं जैसे कोई स्पष्ट बात कह रहा हो। लेकिन,ऐसे समय में जब शोधार्थी अपनी राय व्यक्त करने के कारण जेल में हैं, जब पत्रकारों की हत्या कर दी जाती है या उन्हें राजनीतिक दबाव में नौकरी से निकाल दिया जाता है, जब किसी को अपमानित करने के कारण फिल्मों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है, जब पुलिस नियमित रूप से सत्ता में बैठे लोगों के आलोचकों के पीछे पड़ जाती है, तब ये शब्द एक नया अर्थ और प्रासंगिकता प्राप्त कर लेते हैं। वे हमें रवींद्रनाथ टैगोर की प्रसिद्ध कविता, जहां मन भय रहित है, की याद दिलाते हैं। (लेखक पूर्व प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार थे)-संजय बारू