जीने का सभी को उतना ही अधिकार है जितना आपको और मुझे

Edited By ,Updated: 21 Feb, 2025 06:00 AM

everyone has as much right to live as you and i do

भारतीय  पुलिस सेवा में 36 साल बिताने के बाद, उसके बाद रोमानिया में हमारे देश के राजदूत के रूप में 4 साल बिताने के बाद मैं अपने शहर मुंबई लौट आया, जहां मेरा जन्म हुआ था और जहां मेरे पिता के पूर्वज 19वीं सदी के पहले भाग में बस गए थे। मैंने अपनी  पत्नी...

भारतीय पुलिस सेवा में 36 साल बिताने के बाद, उसके बाद रोमानिया में हमारे देश के राजदूत के रूप में 4 साल बिताने के बाद मैं अपने शहर मुंबई लौट आया, जहां मेरा जन्म हुआ था और जहां मेरे पिता के पूर्वज 19वीं सदी के पहले भाग में बस गए थे। मैंने अपनी  पत्नी की इच्छा को स्वीकार करते हुए हमारे स्थायी घर में ‘बसने’ का फैसला किया, और उन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया जिसके लिए मुझे शहर से बाहर जाना पड़ता। बुखारेस्ट से लिस्बन होते हुए लंबी यात्रा के बाद विमान से उतरने के बाद भी मेरा पहला विचार, मेरे स्थायी निवास के पीछे पुलिस लाइन में रहने वाले कांस्टेबल के लिए काम करना था।

‘पुलिस लाइन’ में एक बार जाने पर मुझे इस तथ्य का अहसास हुआ कि शराब की लत, पत्नी को पीटना और बच्चों का अनियंत्रित रूप से भागना-फिरना जैसी चिरस्थायी समस्याएं अतीत की बात हो गई थीं। कांस्टेबल बहुत अधिक शिक्षित थे और केवल स्नातक ही भर्ती हो पाते थे। एक अर्थ में यह निजी क्षेत्र में वेतन वाली नौकरियों की कमी या औद्योगिक घरानों द्वारा जूनियर स्तर पर भी आवश्यक कौशल की कमी को दर्शाता है। एक और प्रमुख विचार था जिसने पुलिसकर्मियों के बच्चों को अपने पिता के पेशे को अपनाने के लिए प्रेरित किया। वह विचार था उन पुरुषों को आश्वस्त करने की आवश्यकता का जो सेवा से सेवानिवृत्त होने वाले थे। यदि बेटे, और अब जबकि अधिक महिलाओं को बल में भर्ती किया जा रहा है, बेटियां, प्रतियोगिता से बचने में कामयाब हो जाती हैं, तो प्रचलित नीति के अनुसार पैतृक ‘खोली’  नए प्रवेशकत्र्ता को आबंटित की जाएगी। इसका मतलब यह होगा कि ‘पापा’ अपने गांव में वापस जाने की बजाय बड़े शहर में रहना जारी रखेंगे जहां उनके भाई-बहन और उनके परिवार पहले से ही बसे हुए थे।

सभी महिलाएं नौकरीपेशा नहीं हैं, लेकिन जो हैं, उन्होंने अपने जीवन स्तर और परिवार के सामाजिक दृष्टिकोण पर बहुत बड़ा प्रभाव डाला है। वे अपनी संतानों की संख्या सीमित रखती हैं और अपने इकलौते बच्चे या 2 बच्चों को ‘अंग्रेजी माध्यम’ के स्कूलों में भेजती हैं। ऐसे स्कूलोंं की चाहत होती है। एक समय, लगभग एक दशक पहले, मुझे कुछ उत्सुक अभिभावकों ने अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के प्रधानाचार्यों से पुलिस के बच्चों को अपने संस्थानों में दाखिला दिलाने की विनती करने को कहा था। कई प्रधानाचार्यों ने उनकी बात मान ली। आई.पी.एस. में मेरे सहकर्मी, शिवानंदन, जब ठाणे पुलिस के आयुक्त के रूप में तैनात थे, तो उन्होंने उस शहर में पुलिसकर्मियों के बच्चों की देखभाल के लिए पुलिस लाइन में एक स्कूल खोला था। जब वे पुलिस आयुक्त के रूप में मुंबई चले गए, तो मैंने उनसे यहां भी यही काम दोहराने का अनुरोध किया। 

इस साल 1 जनवरी को मेरे पिछले पी.एस.ओ. (निजी सुरक्षा अधिकारी) राहुल लक्ष्मण भोज और उनकी पत्नी मुझे नए साल की बधाई देने के लिए आए। वे अपने साथ अपनी इकलौती बेटी, एक लड़की को भी लाए थे। उनकी पत्नी, स्वाति, एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं, जो शायद मां बनने से पहले राहुल से ज़्यादा कमाती थीं और उन्हें काम से छुट्टी लेनी पड़ी। उनकी बेटी इरा, जो 7 साल की है और 8 साल की होने वाली है, स्पष्ट रूप से एक बहुत ही बुद्धिमान बच्ची थी, आत्मविश्वास से भरी हुई और जल्दी समझ जाने वाली। उसने मुझे बहुत प्रभावित किया। मुझे यकीन है कि मां द्वारा बच्चे को दिए जा रहे व्यक्तिगत ध्यान के साथ वह (इरा) परिवार, हमारे महाराष्ट्र राज्य और हमारे देश के लिए एक संपत्ति साबित होगी।

कार्तिक रमेश का बेटा है, जो कई सालों से उस इमारत के परिसर में झाड़ू लगाने का काम करता है, जहां सेवा में मेरे पूर्व सहकर्मी और मैं रहते हैं। उसका दाखिला एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में हुआ था, लेकिन उसे भाषा बोलने की क्षमता में बहुत सुधार की जरूरत थी। मैंने लड़के को मेरे साथ रोजाना मेरी इमारत के चारों ओर घूमने के लिए कहा और वह सिर्फ अंग्रेजी में बात करता था। उसका कौशल बेहतर हुआ। उसने विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और स्नातक होने पर उसे इवैंट मैनेजर की नौकरी मिल गई। 10 साल पहले मैं भूमिहीन मजदूर के बेटे से मिलने गया था, जिसे मेरे नाना-नानी की गोवा के गांव में जमीन पर एक छोटा सा प्लॉट आबंटित किया गया था। लड़के ने दुबई में नौकरी कर ली थी, अच्छी खासे ‘दिरहम’ कमाए थे, वापस आकर अपने रहने के स्थान के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली मिट्टी की झोंपड़ी की जगह एक अच्छा घर बनाया था। उनकी 2 बेटियों ने अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई की थी, स्नातक की उपाधि प्राप्त की, मुंबई में लिपिक की नौकरी की, शादी की और अपने वंचित माता-पिता की तुलना में अपने लिए बेहतर जीवन बनाया।

5 साल पहले जब मेरी फीमर की हड्डी टूट गई थी और उसे ठीक करने के लिए सर्जरी करवानी पड़ी थी, तब प्रसिद्ध चिकित्सक डा. फारुख उदवाडिया ने मुझे चेतावनी दी थी कि अगर मैं फिर से गिर गया तो इसके और भी बुरे परिणाम होंगे। मैंने बिहार के एक लड़के को काम पर रखा ताकि मैं गिर न जाऊं। उसने मुझे बताया कि वह ‘महादलित’ है। मैंने महाराष्ट्र में ऐसी किसी श्रेणी के बारे में नहीं सुना था। 5 महीने पहले वह आंखों में आंसू लिए मेरे पास आया क्योंकि सरकार द्वारा संचालित गांव के मैडीकल क्लीनिक में उसके हाल ही में जन्मे बेटे के दिल में छेद पाया गया था। 

प्रभारी डाक्टर ने उससे कहा कि अगर वह चाहता है कि उसका बेटा जिंदा रहे तो उसे दिल्ली या बॉम्बे ले जाए। मेरे हिसाब से यह तथ्य कि अधिकारियों ने गांवों के एक समूह में मैडीकल यूनिट खोली है, एक बड़ी प्रगति थी। एक या 2 दशक पहले दिल में छेद का पता ही नहीं चलता! मां और बेटे के लिए मुंबई जाने की व्यवस्था की गई। मेरे भतीजे, जो मुंबई के प्रमुख हृदय रोग विशेषज्ञों में से एक हैं, ने उस छोटे से इंसान की देखभाल की, जिसे जीने का उतना ही अधिकार है जितना कि आप और मुझे।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)    
 

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