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हिंसा, युद्ध और घृणा का महिमा मंडन देश की प्रगति में बाधा है

Edited By ,Updated: 22 Mar, 2025 05:57 AM

glorifying violence war and hatred is an obstacle to the progress of country

मनुष्य स्वभाव से देखी-सुनी बातों पर विश्वास करता है और उनकी तह तक जाए बिना मान लेता है कि ऐसा ही हुआ होगा। इससे होता यह है कि उसके अंदर भय, आत्मविश्वास की कमी और असुरक्षा का भाव पनपने लगता है। चाहे कोई घटना सैंकड़ों, हजारों वर्ष पहले हुई हो, उसे...

मनुष्य स्वभाव से देखी-सुनी बातों पर विश्वास करता है और उनकी तह तक जाए बिना मान लेता है कि ऐसा ही हुआ होगा। इससे होता यह है कि उसके अंदर भय, आत्मविश्वास की कमी और असुरक्षा का भाव पनपने लगता है। चाहे कोई घटना सैंकड़ों, हजारों वर्ष पहले हुई हो, उसे लगता है कि जैसे वह उसके सामने वर्तमान में ही घट रही है। वह विचलित होने लगता है, उसके अंदर क्रोध पनपने लगता है और वह कुछ ऐसा कर बैठता है जो उसके लिए सही नहीं। समाज के लिए भी हानिकारक हो जाता है। इस मन:स्थिति से बाहर निकलने के बाद वह पछतावा या पश्चाताप भले ही कर ले, लेकिन जो हो गया, उसे बदलना संभव न होने के कारण उसे अपने किए का नुकसान उठाना पड़ता है।

भावनाओं को भड़काने का खेल : भारतीय स्वभाव से हिंसक नहीं होते, इसका कारण प्राकृतिक हो या कुछ और कुछ कहा नहीं जा सकता। यह भी सत्य है कि हम तनिक-सी बात से आहत हो जाते हैं और मानसिक तनाव में आ जाते हैं। इसी बात का फायदा उठाकर बहुत से असामाजिक तत्व अपना उल्लू सीधा करने में लग जाते हैं। द्वेष, वैमनस्य, बदले की भावना और क्रोध इतना बलवती हो जाता है कि अपने पर काबू नहीं रहता और वह कर बैठते हैं जो करना तो दूर, कल्पना में भी नहीं होता। अचानक से वह ऐसे हो जाता है जैसे कोई हमें अपने नियंत्रण में रखकर करवा रहा है। यही वह खेल है जिसे समझे बिना टकराव की स्थिति बन जाती है और फिर विध्वंस शुरू हो जाता है। 

जरा सोचिए, कब औरंगजेब का शासन था, कब उसने अत्याचार किए थे और कैसे युद्ध में उसकी हार या जीत हुई थी। एक फिल्म ‘छावा’ ने ऐसा माहौल बना दिया कि मानो वह सब कुछ अभी की घटना है। हिंदू और मुस्लिम आमने-सामने आ गए और यह तक भूल गए कि कल तक हम पड़ोसी थे, भाईचारा निभाते थे, कोई अनबन नहीं थी लेकिन अचानक से एक फिल्म ने उस घटना को ऐसा ताजा कर दिया कि उन लोगों की पौ बारह हो गई जो ऐसी सामाजिक अव्यवस्था का लाभ उठाने को तैयार रहते हैं क्योंकि इससे इनका राजनीतिक हित सधता है। 

फिल्म बनाने वालों को अनुमान भी नहीं होगा कि इससे लोगों में मुस्लिम शासकों के प्रति आक्रोश और हिंदुओं के लिए सहानुभूति का यह अंजाम होगा कि हिंसक घटनाओं की वजह बन जाएगी और अराजकता फैलाने की कोशिश करने वाले भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने में सफल रहेंगे और जनमानस को गुमराह करने लगेंगे। एक बात तो है कि बहुत से दर्शक जो युद्ध की मारकाट और भयानक हिंसा से भरी फिल्में देखकर यह भी सोचते होंगे कि जो शासक रहे हों, चाहे छत्रपति शिवाजी महाराज हों या छत्रपति संभाजी महाराज, उन्होंने औरंगजेब से युद्ध के अतिरिक्त और भी अनेक ऐसे कार्य किए होंगे जो प्रगति का इतिहास बन गए और उनकी गाथा प्रेरणा का स्रोत बन गई।

विडंबना यह है कि यदि उनके शासन की बेहतरीन बातों को लेकर कोई फिल्म बनती भी है तो उसे दर्शक ही नहीं मिलेंगे। इसी तरह दूसरी फिल्में हैं जिनमें हिंसा ही हिंसा भरी होती है, बेमतलब के दृश्य होते हैं और जिन घटनाओं में कोई वास्तविकता नहीं होती उन्हें देखकर फिल्म देखते-देखते ऐसा होने लगता है कि खून में उबाल आ रहा है और अभी बाहर जाते ही पहला काम यह करेंगे कि जिसने यह सब किया, वह तो नहीं मिलेगा लेकिन उसका तथाकथित कोई वंशज भी मिल गया तो उस पर अपना पूरा गुस्सा निकाल देंगे, चाहे परिणाम कुछ भी हो।

साधु और शैतान : न जाने कितने मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और अन्य सौंदर्य तथा अनूठी कला के प्रतीक स्मारक मिट्टी में मिला दिए गए या क्रोध की भेंट चढ़ा दिए गए होंगे। असल में जब हमारे अंदर शैतान जाग जाता है तब हम किस को मार रहे हैं, इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता। एक बात और है कि जिसने कभी न तो युद्ध देखा और न कभी एक सैनिक की तरह उसमें भाग लिया, उसके लिए क्रूरता का व्यवहार करना आसान हो जाता है क्योंकि यह उसका पहला अनुभव होता है। जो लड़ाइयां लड़ चुका होता है, उसे उसकी विभीषिका का अनुमान होता है, इसलिए वह कभी आवेश में नहीं आता और चाहता है कि विनाश की स्थिति न बने लेकिन वह अपने को असहाय पाता है क्योंकि सैनिक जीवन में अपने कमांडर का आदेश उसके लिए सबसे ऊपर होता था लेकिन यहां तो अनियंत्रित भीड़ और सिरफिरे नेतृत्वहीन लोगों से मुकाबला करना है, इसलिए वह चुप रहकर सब कुछ होते हुए देखता रहता है।

यह कत्र्तव्य और आचरण का भेद है जो साधु प्रवृत्ति को दबाकर शैतानियत को अपने ऊपर हावी होने देता है। यह सही है कि युद्ध का अपना महत्व है और असमानता की तरह हिंसा भी मानव इतिहास का अंग है लेकिन क्या केवल यही हमारा अतीत है, इस पर क्यों नहीं ध्यान जाता; चाणक्य, कौटिल्य जैसे मनीषी और विद्वान भी हुए हैं, महात्मा गांधी और गौतम बुद्ध भी हुए हैं, दुनिया में भी ऐसे लोग कम नहीं हुए हैं जिन्होंने हिंसा और युद्ध के बजाय अहिंसा, प्रेम और मानव उत्थान की दिशा दिखाई है।यह सही है कि किसी के लिए हिंसा और अत्याचार का महिमा मंडन करना उसके व्यवसाय का अंग हो सकता है लेकिन आज के वैज्ञानिक और आधुनिक युग में उससे प्रभावित होकर समाज में विघटन का माहौल बना देना केवल कुछ लोगों के लिए अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने का जरिया बनने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।-पूरन चंद सरीन  
 

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