Edited By ,Updated: 10 Apr, 2025 05:03 AM
तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि को राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर ‘अवैध रूप से’ बैठने के लिए दोषी ठहराने वाला सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत जल्दी नहीं आया है। राज्यपाल ने राज्य सरकार के खिलाफ एक प्रतिकूल भूमिका निभाई थी और केंद्र के इशारे...
तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि को राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर ‘अवैध रूप से’ बैठने के लिए दोषी ठहराने वाला सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत जल्दी नहीं आया है। राज्यपाल ने राज्य सरकार के खिलाफ एक प्रतिकूल भूमिका निभाई थी और केंद्र के इशारे पर स्पष्ट रूप से पक्षपातपूर्ण व्यवहार में लिप्त रहे थे। वे न केवल 3 साल से अधिक समय से विधानमंडल द्वारा पारित कुछ विधेयकों पर बैठे रहे बल्कि उन्होंने विधानसभा में अपने भाषण के कुछ हिस्सों को छोडऩे का अभूतपूर्व कदम भी उठाया जिसे राज्य मंत्रिमंडल ने मंजूरी दी थी और उन्हें इसे पूरा पढऩा था। एक और अभूतपूर्व कदम उठाते हुए उन्होंने राज्य गान बजाए जाने के मुद्दे पर राज्य विधानसभा से वॉकआऊट कर दिया। उनके कार्य असंवैधानिक थे और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा और अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग करते हुए उन विधेयकों को पारित करने पर विचार करना पड़ा, जिन पर राज्यपाल लंबे समय से बैठे हुए थे।
राज्यपाल का पद एक गरिमापूर्ण पद है और इसे राज्य का प्रथम नागरिक माना जाता है जिसकी भूमिका मुख्यत: औपचारिक होती है। संविधान ने राज्यपालों को कुछ शक्तियां प्रदान की हैं लेकिन व्यापक सिद्धांत यह है कि उन्हें मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना चाहिए। गैर-भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकारों द्वारा शासित राज्यों में राज्यपालों का प्रतिकूल रवैया लगातार जांच और आलोचना के दायरे में आ रहा है। पश्चिम बंगाल, पंजाब, तमिलनाडु, तेलंगाना और केरल आदि में गैर-भाजपा शासित सरकारों के खिलाफ राज्यपालों का अजीबो-गरीब पैटर्न देखने को मिल रहा है जबकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों द्वारा शासित राज्यों में ऐसा कोई मुद्दा नहीं है।
प्रतिकूल राज्यपालों द्वारा अपनाए जाने वाले तरीकों में से एक निर्वाचित राज्य सरकारों द्वारा पारित विधेयकों पर चुप्पी साधना है। उन्हें या तो विधेयकों पर हस्ताक्षर करने चाहिएं या विधेयकों को अस्वीकार करके पुनर्विचार के लिए विधानसभा को वापस भेजना चाहिए या सलाह के लिए राष्ट्रपति को भेजना चाहिए। यदि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को अस्वीकार कर दिया जाता है तो उन्हें विधानसभा को वापस भेज दिया जाता है और अगर विधानसभा फिर से विधेयक पारित करती है तो राज्यपाल के पास बिंदीदार रेखा पर हस्ताक्षर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
हालांकि, ये राज्यपाल कोई कार्रवाई नहीं कर रहे हैं और राज्य विधानसभाओं में पारित विधेयकों को दबाए बैठे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि रवि की कार्रवाई में ‘सच्चाई का अभाव है और यह एक अनुचित पॉकेट वीटो के बराबर है’। कुछ महीने पहले, सर्वोच्च न्यायालय ने विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में पंजाब के पूर्व राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित की ओर से की गई देरी पर भी इसी तरह का संज्ञान लिया था। सुनवाई के दौरान, शीर्ष अदालत की पीठ ने कहा था कि राज्यपाल ‘आग से खेल रहे हैं’। यह देखते हुए कि भारत ‘स्थापित परंपराओं और परंपराओं’ पर चल रहा है, सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा था कि वे पंजाब सरकार और राज्यपाल के बीच गतिरोध से नाखुश हैं। पुरोहित और मुख्यमंत्री भगवंत मान के नेतृत्व वाली सरकार के बीच झगड़ा 3 धन विधेयकों से संबंधित था जिन्हें राज्य द्वारा विशेष बजट सत्र के दौरान पेश किया जाना प्रस्तावित था। सदन में धन विधेयक पेश करने के लिए राज्यपाल की मंजूरी की आवश्यकता होती है जो वह नहीं दे रहे थे।
इसी तरह के एक अन्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को नोटिस जारी कर केरल सरकार की इस दलील पर जवाब मांगा था कि राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित और उनकी सहमति के लिए भेजे गए 8 विधेयकों पर कार्रवाई में देरी कर रहे हैं। खान ने मुख्यमंत्री से राज्य के वित्त मंत्री को अपने मंत्रिमंडल से हटाने के लिए कहकर एक अभूतपूर्व कदम उठाया था क्योंकि उन्होंने राज्यपाल के ‘सुख का आनंद लेना बंद कर दिया था’! मुख्यमंत्री ने निश्चित रूप से उनकी सलाह को अस्वीकार कर दिया था। इससे पहले, पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल और देश के वर्तमान उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने ममता बनर्जी सरकार द्वारा पारित कई विधेयकों को रोक दिया था और अक्सर सरकार के लिए आलोचनात्मक संदर्भों वाले बयान दिए थे। विभिन्न कानूनों और नियमों के तहत, राज्यपाल सार्वजनिक स्वामित्व वाले विश्वविद्यालयों के औपचारिक कुलाधिपति होते हैं। उन्हें औपचारिक रूप से कुलपतियों की नियुक्ति करनी होती है और दीक्षांत समारोहों की अध्यक्षता करनी होती है या औपचारिक अधिसूचनाओं को मंजूरी देनी होती है। हालांकि धनखड़ ने विश्वविद्यालयों के कामकाज में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया और राज्य सरकारों द्वारा स्वीकृत नियुक्तियों पर सवाल उठाना शुरू कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले और जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और एम. महादेवन की पीठ द्वारा की गई टिप्पणियों ने एक स्वागत योग्य मिसाल कायम की है। पीठ ने विधानसभाओं से विधेयक प्राप्त करने के बाद राज्यपालों से जिस समय सीमा के भीतर कार्य करने की अपेक्षा की जाती है, उसके बारे में अस्पष्टता को संबोधित किया है। राज्यपालों को अपने पद की संवैधानिक सीमाओं का सम्मान करना चाहिए जिससे विधानसभा लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व कर सके। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी राज्यपालों को उनकी निर्धारित भूमिकाओं के भीतर कार्य करने की याद दिलाती है। अन्य राज्यपालों को यह सुनिश्चित करने के लिए इस फैसले पर ध्यान देना चाहिए कि वे अपने संवैधानिक कत्र्तव्यों का पालन कर रहे हैं।-विपिन पब्बी