राजनीतिक दलों की आधी शक्ति, रूठों को मनाने में लग जाती है

Edited By ,Updated: 14 Sep, 2024 04:51 AM

half the power of political parties is spent in placating the angry people

दुर्भाग्य ही कहेंगे कि क्षेत्रीय दलों और राष्ट्रीय दलों को पराए दलों से लडऩे की बजाय अपनों को मनाने में अधिक शक्ति लगानी पड़ती है। हाल ही में मैंने शिरोमणि अकाली दल (बादल) को बिखरते देखा, हरियाणा में ओम प्रकाश चौटाला को चौ. देवी लाल के परिवार और...

दुर्भाग्य ही कहेंगे कि क्षेत्रीय दलों और राष्ट्रीय दलों को पराए दलों से लडऩे की बजाय अपनों को मनाने में अधिक शक्ति लगानी पड़ती है। हाल ही में मैंने शिरोमणि अकाली दल (बादल) को बिखरते देखा, हरियाणा में ओम प्रकाश चौटाला को चौ. देवी लाल के परिवार और उसके द्वारा चलाए जा रहे राजनीतिक दल को तार-तार होते देखा। जम्मू-कश्मीर में भूतपूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के पी.डी.पी. दल को महबूबा ने अपनी आंखों के सामने आपस में भिड़ते देखा, तमिलनाडु में द्रमुक के कई हिस्से हो गए। ‘आप’ आपसी संघर्ष में उलझी हुई है, कांग्रेस जो आल इंडिया राजनीतिक दल है आंतरिक उलझनों से उलझ रहा है। 1977 में बनी जनता पार्टी आंतरिक विरोधों के कारण 1980 में ही टूट गई। जनता दल, लोकदल जाने कहां खो गए? सभी राजनीतिक दल अपनों से ही उलझ कर मर-खप रहे हैं। अंतर्कलह से कोई भी राजनीतिक दल मुक्त नहीं। 

‘पार्टी विद-ए-डिफरैंस’ यानी अनुशासित दल भारतीय जनता पार्टी भी इस अंतर्कलह से अछूती नहीं है। यह बात हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में होने जा रहे विधानसभा चुनावों ने सिद्ध कर दिखाई। टिकट वितरण लिस्टों को बदलना पड़ा। सब दलों में एक अराजकता-सी फैली हुई है। यह अंतर्कलह किसी सिद्धांत के लिए नहीं अपितु अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण है। प्रत्येक नेता सत्ता के लिए लड़ रहा है। त्याग की भावना तो किसी राजनीतिक दल में दिखाई ही नहीं देती। सत्ता, निजी महत्व सब राजनेताओं पर हावी है। कुछ भी राजनीति में स्थिर नहीं। भागमभाग मची हुई है। चलो आज सिर्फ भारतीय जनता पार्टी पर ही एक बार बात करते हैं। हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में भाजपा गुटों में बंटी दिखी। इसके कई नेता टिकट छिन जाने से मायूस और सोशल मीडिया में रोते दिखाई दिए। कई स्थानों पर मोदी भय ने अंतर्कलह को दबा दिया तो कहीं चाणक्य नीति की ललकार से ऐसे नेता डर गए। कई भाजपा नेता बलशाली थे उन्होंने दूसरी पार्टियों को अपना लिया। लोकतंत्र में गुटबंदी और अंतर्कलह राजनीतिक दलों के प्रभाव को कम करती जा रही है परन्तु ऐसा तो हर चुनाव में होगा ही। फिर भारतीय जनता पार्टी भला इस गुटबंदी से अछूत कैसे रह सकती है। 

भारतीय जनता पार्टी ने स्वयं बोली लगा रखी है। अपना दल छोड़ो इसके एवज में टिकट ले लो। भाजपा का वर्तमान में एक ही लक्ष्य है उम्मीदवार की ‘विनएबिल्टी’ उसके लिए 20 अन्य योग्य, निष्ठावान, विश्वसनीय पुराने कार्यकत्र्ता की राजनीतिक बलि भी देनी पड़े तो भी भाजपा को चिंता नहीं। ऐसे में पार्टी के भीतर अंतर्कलह तो रहेगी ही न? चाहे थोड़े समय के लिए यह अंतर्कलह दब जाएं परन्तु कभी तो यह लावा फूटेगा ही? आज तो मोदी और अमित शाह का सिक्का चल रहा है। कल की राम जाने। हां, यह सत्य है कि टिकट वितरण के बाद अंतर्कलह उभरती तो जरूर है। मोदी-अमित शाह की जोड़ी की चुनाव संरचना ही ऐसी है कि हमें चुनाव जीतना है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी अन्य दलों से भिन्न है। राजनीति में विशेष रुचि रखने वाले भली-भांति जानते हैं कि 1950-51 में जब जनसंघ का जन्म हुआ और फिर 1977 में जनसंघ का ‘दीपक’ गुल कर जनता पार्टी में विलय कर दिया था और फिर एक नए राजनीतिक दल का गठन 1980 में कर लिया, तब से अब तक भारतीय जनता पार्टी में 4 ही नेता हमें दिखाई दिए। 

अटल-अडवानी, मोदी-अमित शाह या अधिक हुआ तो पांचवां नेता मुरली मनोहर जोशी ही दिखाई दिए। छठा माई का लाल कोई ध्यान में ही नहीं आता। भाजपा व्यक्ति विशेष के लिए राजनीति नहीं करती अपितु ‘कोलैटिव-लीडरशिप’ में विश्वास करती है। केवल नरेंद्र मोदी ही एक अपवाद हैं। संघ पीछे हटा तो अडवानी जी राजनीतिक वनवास में चले गए। मुरली मनोहर जोशी एक प्रख्यात प्रोफैसर थे अत: विवाद से बचे रहे परन्तु उन पर 75 साल का दंश लग गया। अत: आराम से बैठ गए। आज सिर्फ पार्टी में सर्वेसर्वा या मोदी है या अमित शाह। जनसंघ ने जिस जनता पार्टी के लिए अपना दीपक बुझा दिया उसी जनता पार्टी ने एक प्रस्ताव पारित कर जनता पार्टी का कोई भी सांसद, कोई भी पदाधिकारी या विधायक राष्ट्रीय स्वयं संघ की कार्यविधियों में हिस्सा नहीं ले सकता। अत: 1980 में जनसंघ जनता पार्टी से अलग हो गया। 5 अप्रैल, 1980 में जनसंघ ने दिल्ली में एक नई पार्टी के गठन पर विचार किया। नई बनी भारतीय जनता पार्टी में गैर जनसंघ के नेता भी शामिल हो गए। जैसे सिकंदर बख्त, शांति भूषण, राम जेठमलानी बढिय़ा नेता। 

6 अप्रैल 1980 में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी का एक भव्य और सफल सम्मेलन बंबई के बांद्रा में हुआ। इस अधिवेशन में पूर्व शिक्षा मंत्री मोहम्मद करीम छागला विशेष रूप से पधारे और इसी अधिवेशन में उन्होंने वाजपेयी जी को आने वाले प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। भाजपा अपने जन्म से लेकर 2014 तक हमेशा ‘किंग मेकर’ की भूमिका में रही। 16 मई 1996 को पहली बार भाजपा सरकार बनी परन्तु मंत्रीपद प्राप्त करने के कारण गुटबंदी बनी रही। अगस्त 1996 में गुटबंदी के कारण गुजरात में पार्टी दो फाड़ हो गई। इस गुटबंदी के कारण यू.पी. में कल्याण सिंह के स्थान पर राम प्रकाश गुप्ता को चीफ मिनिस्टर बनाना पड़ा। ऐसे में सोचो भाजपा गुटबंदी से अछूती कैसे रह सकती है।-मा. मोहन लाल(पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब)

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