वन नेशन-वन इलैक्शन के फैसले से फिर बदलने जा रहा इतिहास

Edited By ,Updated: 26 Sep, 2024 05:43 AM

history is going to change again with the decision of one nation one election

हिंदुस्तान का इतिहास वन नेशन-वन इलैक्शन (ओ.एन.-ओ.ई.) के फैसले के मद्देनजर फिर बदलने जा रहा है। इसके वर्ष 2029 के आम चुनावों में लागू होने की पूरी तैयारी है, लेकिन इसके बदलाव की राह सरल नहीं है।

हिंदुस्तान का इतिहास वन नेशन-वन इलैक्शन (ओ.एन.-ओ.ई.) के फैसले के मद्देनजर फिर बदलने जा रहा है। इसके वर्ष 2029 के आम चुनावों में लागू होने की पूरी तैयारी है, लेकिन इसके बदलाव की राह सरल नहीं है। तमाम 18 संवैधानिक संशोधनों के बाद यह निर्णय धरातल पर उतरेगा तब नि:संदेह भारत दुनिया का पहला सबसे बड़ा लोकतंत्र होगा, जिसके 96.88 (अभी तक के) करोड़ वोटर एक ही साथ लोकसभा व विधानसभा के लिए अपने नुमाइंदे तय करेंगे। करीब 12 लाख से ज्यादा पोलिंग बूथ होंगे और डेढ़ करोड़ पोलिंग अफसर 100 दिनों में यह प्रक्रिया एक साथ पूरी करेंगे। लेकिन धरातल पर उतारने के लिए केंद्र को सभी के साथ के साथ ही 18 बड़े संशोधनों की अग्नि परीक्षा से गुजरना होगा। 

वर्तमान में एन.डी.ए. व पूर्व में भाजपा की मोदी सरकार का यह फैसला करीब 10 वर्ष पहले हो गया था जब तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने 2017 में गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश को संबोधित करते हुए यह बात कही थी। चुनाव सुधारों के दृष्टिगत यद्यपि यह व्यावहारिक निर्णय है। अधिक आबादी वाले इस देश में चुनाव खर्च को घटाना फायदेमंद होगा। परन्तु इसे लागू करने में कई चुनौतियों से निपटना होगा। वन नेशन वन इलैक्शन (ओ.एन.ओ.ई.) की संस्तुति पूर्व  राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की कमेटी ने कर दी है और कैबिनेट की मंजूरी के साथ ही धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है। 

समानांतर चुनाव लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के करवाने की नई अवधारणा भारत में नहीं है। पहले भी चौथी लोकसभा यानी 1967 तक यही सिस्टम लागू था। लेकिन जब केरल राज्य में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को हटा दिया तब उस राज्य में शासन के 3 वर्ष और बचे थे। इसके बाद राज्यों में सरकारें बर्खास्त भी होती रहीं, बहुमत भी खोती रहीं। इस तरह एक सभा के जो चुनाव होने थे वह नहीं हुए। धीरे-धीरे 18वीं लोकसभा के जो चुनाव होने थे, वह नहीं हुए। 18वीं लोकसभा-2024 तक यह  होने लगा कि हर साल कोई न कोई चुनाव होते रहे और केंद्र सरकार व राजनेता इन्हीं चुनावों में लिप्त होने के कारण, वांछित सुधार नहीं कर पाए। पैसे भी ज्यादा खर्च होने लगे।

हालिया उदाहरण लें तो वर्ष 2024 में लोकसभा के साथ ही आंध्रप्रदेश, अरुणाचल प्रदेश व सिक्किम में चुनाव हुए। इनके बीतते ही हरियाणा व जम्मू कश्मीर में आ गए। कुछ महीनों बाद दिल्ली समेत अन्य राज्यों के भी हैं। इस नई व्यवस्था को बनाने की जरूरत क्यों है, क्या पेचीदगियां हैं, भिन्न दलों के तर्क क्या-क्या हैं? कानूनी पेंच क्या है, इन सभी ङ्क्षबदुओं का खुलासा इस लेख में बताने का प्रयास होगा, जो चुनाव आयोग की वैबसाइट कमेटी रिपोर्ट व पी.आई.बी. लेखों के साथ ही मीडिया रिपोर्टों पर आधारित है। ओ.एन.ओ.ई. पर पक्ष व विपक्षी तर्क अलग-अलग है। पक्ष की दलील है कि खर्च बचेगा, सरकारी मशीनरी की बचत व आमजन को सुविधा होगी। कोड आफ कंडक्ट की वजह से सरकारी काम काज बार-बार नहीं रुकेगा। विपक्षी समूह का तर्क है कि

ऐसा करने से संविधान का मूल स्वरूप बिगड़ेगा। राष्ट्रीय मुद्दों के आगे, क्षेत्रीय मुद्दे कमजोर पड़ जाएंगे। अब भाजपा ने अपने 2024 के चुनावी घोषणापत्र में ओ.एन.ओ.ई. लाने का वायदा किया है और भारत का लॉ कमीशन इस पर रिपोर्ट जल्द देगा। यह मजबूती से लागू हो, इसके लिए 2017 में नीति आयोग ने स्पष्ट किया था। इसे बनाने को लेकर जिस स्तर का हाई लेवल कमीशन, केंद्र सरकार ने सितंबर 2023 में बनाया था उसमें पूर्व राष्ट्रपति, गृह मंत्री अमित शाह, विपक्ष के पूर्व नेता गुलाम नबी आजाद, वित्त आयोग के पूर्व चेयरमैन एन.के. सिंह इत्यादि को। यह बहुत खास था। इसके ड्राफ्ट को लेकर 65 मीटिंग हुई, तब कैबिनेट में यह रखी गई। 

इस रिपोर्ट में कमेटी कहती है कि सामानांतर चुनाव में लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ होंगे। इसके बाद 100 दिनों के भीतर नगर निकायों के चुनाव होंगे। दूसरा, ई.सी.आई. को प्रत्येक नागरिक का एक ही इलैक्टरोल व ऐपिक कार्ड बनाना होगा। दरअसल होता क्या है कि दूसरे देश के शरणार्थी का या एक ही व्यक्ति के 2-3 कार्ड बन जाते हैं, तो इससे चुनाव में डुप्लीकेसी की दिक्कत आती है। तीसरा, यदि किसी राज्य या सरकार में ‘हंग’ या अविश्वास होता है तो चुनाव दोबारा होंगे। लेकिन इनकी सत्ता की मियाद बढ़ेगी नहीं। सब देशों की लोकतांत्रिक प्रणाली अलग अलग है। वहीं हिंदुस्तान में 96.98 के करोड़ वोटर हैं। 28 राज्य हैं, जबकि 9 यू.टी. है और लोकसभा की 543 सीटें हैं। यहां चुनावों में 45000 करोड़ रुपए का खर्च आता है। चुनावी अवधि ज्यादा यानी 5 वर्ष होने से मिड टर्म इलैक्शन से गणित गडबड़ा जाता है। इसलिए अब नए प्रस्ताव में संविधान में ही विभिन्न धाराओं में संशोधन होगा, तब तक नए प्रस्ताव लागू नहीं हो सकते। 

अब इन्हें बदलना ही एन.डी.ए. की बड़ी चुनौती होगा क्योंकि विपक्षी दल इसे संविधान की मूल धारणा से छेड़छाड़ करार दे सकते हैं। यही नहीं यदि अगले लोकसभा चुनाव यानी (2029) में  ओ.एन.ओ.ई. लागू हुआ तो 15 असैंबलियों का 5 वर्ष का कार्यकाल पहले ही खत्म करना होगा। मान लीजिए कि हिमाचल का असैंबली चुनाव 2027 में है तो जो सरकार 2027 में बनेगी वह सिर्फ 2029 तक ही चलेगी। इसके बाद ओ.एन.ओ.ई. होगा। इस प्रकार पूरी नई व्यवस्था में मुख्य तौर पर 18 संशोधनों की जरूरत केंद्र सरकार को पड़ेगी। इनमें अधिकतर में राज्य सरकारों की सहमति की जरूरत नहीं है। यह नए संशोधन क्या है, और इसमें क्या बदलाव होगा यह अगले क्रम में बताते हैं- पर जिस गति से ओ.एन.ओ.ई.  पर देश का प्रशासन काम कर रहा है, चुनाव प्रक्रिया का नया स्वरूप जल्द सामने होगा। (लेखिका एवं पूर्व सदस्य हिमाचल प्रदेश राज्य लोक सेवा आयोग)-डा. रचना गुप्ता

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