Edited By ,Updated: 19 Oct, 2024 04:58 AM
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने देश भर की जेलों में जाति के आधार पर कैदियों के कामकाज के विभाजन को मौलिक अधिकारों का हनन बताया है। सुप्रीम कोर्ट ने लगभग 11 राज्यों की जेल नियमावली के उन प्रावधानों को रद्द कर दिया, जिसके तहत कैदियों को उनकी जाति के आधार...
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने देश भर की जेलों में जाति के आधार पर कैदियों के कामकाज के विभाजन को मौलिक अधिकारों का हनन बताया है। सुप्रीम कोर्ट ने लगभग 11 राज्यों की जेल नियमावली के उन प्रावधानों को रद्द कर दिया, जिसके तहत कैदियों को उनकी जाति के आधार पर काम आबंटित किया जाता था और उन्हें अलग-अलग वार्डों में रखा जाता था। कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में यह दावा किया गया था कि हमारे देश की जेलों में कैदियों के साथ जातिगत भेदभाव होता है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीरता से लेते हुए केंद्र सरकार सहित 11 राज्य सरकारों को इस मामले में नोटिस जारी किया था। इस याचिका में उदाहरणों के साथ बताया गया था कि देश की कई जेलों में खाना बनाने जैसे काम कथित ऊंची जातियों के कैदियों को सौंपा जाता है, जबकि झाड़ू लगाने और शौचालयों की सफाई करने जैसे काम कुछ खास निचली जातियों के कैदियों से कराए जाते हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि प्रगतिशील कहे जाने वाले इस युग में जातिगत भेदभाव की खबरें प्रकाश में आती रहती हैं। एक तरफ स्कूलों में बच्चों के साथ जातिगत भेदभाव किया जाता है तो दूसरी तरफ अपनी शादी में दलित दूल्हे को घोड़ी पर नहीं बैठने दिया जाता है। जाति हमारे समाज की एक बड़ी सच्चाई है जिसे चाहते हुए भी नाकारा नहीं जा सकता। तमाम समाज शास्त्रीय अध्ययनों एवं विमर्शों के बावजूद अपना अस्तित्व बचाए हुए है। जो लोग जातिविहीन समाज की बात करते हैं, वे एक तरह से सच्चाई को नकारते हैं। जाति हमारी रग-रग में इस तरह रच-बस गई है कि जातिविहीन समाज की रचना बहुत ही मुश्किल नजर आती है। कुछ बुद्धिजीवी जरूर जातिविहीन समाज की परिकल्पना में रंग भरते हुए नजर आते हैं लेकिन न ही तो हमारे राजनेता यह चाहते हैं कि जाति की दीवारें टूटें और न ही यह समाज चाहता है कि जाति अपने दायरे से बाहर निकलकर एक क्रांतिकारी बदलाव की शुरूआत करे।
जाति ,धर्म और सम्प्रदाय पुराने जमाने से ही हमारे समाज को प्रभावित करते रहे हैं। पहले यह आशा व्यक्त की गई थी कि शायद शिक्षा का प्रचार-प्रसार होने के उपरान्त इस स्थिति में परिवर्तन आएगा लेकिन आज इस शिक्षित समाज में भी जाति और तीव्र एवं विकराल रूप में हमारे सामने उपस्थित है। जो बुद्धिजीवी यह कहते हैं कि इस दौर में जाति की दीवारें टूट रही हैं, वे इस समस्या को केवल ऊपरी तौर पर देखकर एक भ्रम में जी रहे हैं। यह सही है कि प्रेम विवाह करने वाले युगल जाति के बंधनों को तोड़कर अपनी गृहस्थी बसा रहे हैं। अलग-अलग जातियों से संबंध रखने के बावजूद अपने निहित स्वार्थ के लिए निजी तौर पर एक-दूसरे के प्रति उनका रवैया जरूर उदार रहता है। लेकिन एक-दूसरे की सम्पूर्ण जाति के प्रति उनका रवैया उदार नहीं रह पाता। इसलिए इस दौर में जाति अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति करने का हथियार बन गई है। विभिन्न राजनेता और यह समाज अपने-अपने तौर-तरीकों से इस हथियार का इस्तेमाल कर रहे हैं। यही कारण है कि इस प्रगतिशील समाज में जो बुद्धिजीवी जाति के टूटने की आशा पाले बैठे हैं, उन्हें अन्तत: निराशा ही हाथ लग रही है।
एक समय मायावती ने जब ‘तिलक,तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ का नारा दिया था, तो उस समय भी वे जातिगत आधार पर संगठन और विघटन का शास्त्र गढ़ रही थीं। बाद में जब उन्होंने सर्वसमाज का नारा देकर ब्राह्मण रैलियां आयोजित कीं तो भी वे इसी शास्त्र में एक नया अध्याय जोड़ रही थीं। जातियों के इस खेल में कहीं भी अंदर से सामाजिक समरसता का भाव नहीं है। न ही तो ब्राह्मणों के मन में दलितों के प्रति सम्मान की भावना है और न ही दलित, ब्राह्मणों को कोई छूट देने के पक्षधर हैं। सभी राजनीतिक दल सामाजिक समरसता के नाम पर जाति की गेंद से खेल रहे हैं। इस सारे माहौल में बड़ा सवाल यह है कि यह कैसी सामाजिक समरसता है जिसमें जाति की दीवारें लगातार गहराती जा रही हैं। दरअसल इस दौर में सर्वसमाज और सामाजिक समरसता के नारों के बीच जातियां नए रूप में खड़ी हो रही हैं। जातियों के इस नए रूप में नए-नए गुण-अवगुण उभरकर सामने आ रहे हैं। आज सभी राजनीतिक दल यह कह रहे हैं कि वे जाति की राजनीति नहीं करते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि जाति राजनीतिक दलों की सबसे बड़ी कमजोरी है। अगर राजनीतिक दल सामाजिक समरसता के बैनर तले सभी जातियों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं तो समाज को उनकी इस रणनीति को समझना चाहिए।
दरअसल जब हम जाति-सेवा में लग जाते हैं तो हमारे अंदर समाज सेवा का भाव समाप्त हो जाता है। हम ज्यों-ज्यों अपनी जाति को मजबूत करने की कोशिश करते हैं, त्यों-त्यों यह समाज कमजोर होता चला जाता है और अन्तत: समाज में अलगाव की स्थिति पैदा होती है। जातिगत संगठन केवल अपनी जाति का गुणगान करते हुए अपनी जाति को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लग जाते हैं। इस होड़ में सेवा शब्द का अस्तित्व तो समाप्त हो ही जाता है, साथ ही होड़ के अवगुण भी पैदा हो जाते हैं। अब समय आ गया है कि जातिगत संगठन अपने क्रियाकलापों पर गंभीरता के साथ विचार करें। हम ब्राह्मण सभा, वैश्य सभा, जाट सभा और राजपूत सभा जैसे जातिगत संगठनों के बजाय इंसान सभा बनाने के बारे में कब सोचेंगे?-रोहित कौशिक