आरक्षण की व्यवस्था कब तक चले

Edited By ,Updated: 04 Jun, 2024 05:35 AM

how long will the reservation last

आरक्षण का प्रावधान भारत के संविधान में किया गया था ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में। विश्व के अधिकतर देशों में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं है। सिद्धांत समानता का है जो मौलिक अधिकार है लेकिन भारत में जातीय व्यवस्था ने इतना वीभत्स रूप ले लिया था जिसमें...

आरक्षण का प्रावधान भारत के संविधान में किया गया था ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में। विश्व के अधिकतर देशों में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं है। सिद्धांत समानता का है जो मौलिक अधिकार है लेकिन भारत में जातीय व्यवस्था ने इतना वीभत्स रूप ले लिया था जिसमें अधिकांश के साथ भेदभाव होता रहा। हिन्दू धर्म में वर्ण व्यवस्था है। वर्ण एवं जाति में फर्क है। सारी समस्या वर्ण और जाति के बीच के अंतर को खत्म करने से हुई । जो भी हो, संविधान निर्माताओं ने इस ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करने के लिए आरक्षण का विशेष प्रावधान किया जो प्रारंभ में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को दिया गया। यह केवल 10 साल के लिए किया गया था। उद्देश्य समाज को बदलना था। 

आरक्षण का प्रावधान सर्वप्रथम कोल्हापुर के राजा शाहू महाराज ने किया था। 26 जुलाई 1902 को आदेश निकला कि राज्य की सभी नौकरियों में 50 प्रतिशत सीटें पिछड़ी जातियों से भरी जाएंगी। फिर 23 अगस्त, 1918 को मैसूर के राजा कृष्णराजा वाडियार ने कमजोर वर्गों को आरक्षण देने के लिए मैसूर अदालत के मुख्य जज लेस्ली मिलर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया जिसकी सिफारिश पर इसे लागू किया गया। 1920 में मद्रास प्रैजीडैंसी के चुनाव में जस्टिस पार्टी को बहुमत मिला और 1921 में प्रथम मंत्री ए. सुब्बारोयालु रैड्डी ने आरक्षण का आदेश जारी किया। कड़े विरोध के कारण यह तुरंत लागू नहीं हो पाया। 

ई.वी. रामास्वामी पेरियार ने, जो उस समय कांग्रेस में थे, अपनी पार्टी से इसका समर्थन करने को कहा। कांग्रेस ने समर्थन करने से मना कर दिया और विरोध में पेरियार ने कांग्रेस छोड़ दी। इसके बाद 29 जनवरी, 1953 को संविधान के अनुच्छेद 340 के अंतर्गत काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया। आयोग ने 30 मार्च, 1955 को रिपोर्ट सौंपी। इसने पूरे देश में 2,399 पिछड़ी जातियों की पहचान की जिनमें 837 को अति पिछड़ा बताया गया। काका कालेलकर ने राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजते समय अपने कवरिंग लैटर में आयोग की कुछ सिफारिशों का विरोध किया हालांकि रिपोर्ट में उन्होंने कोई असहमति दर्ज नहीं की थी। केन्द्र सरकार ने रिपोर्ट को अवैज्ञानिक और त्रुटिपूर्ण मानकर खारिज कर दिया। 

1962 में आरक्षण के ऊपर उच्चतम न्यायालय का एक महत्वपूर्ण निर्णय आया। एम.आर. बालाजी बनाम मैसूर में 5 न्यायाधीशों की एक संविधान पीठ ने व्यवस्था दी कि आरक्षण को हर हाल में 50 प्रतिशत से नीचे रखना होगा। मुख्य न्यायाधीश गजेन्द्र गडकर ने इसका कारण यह बताया कि समानता नियम है और आरक्षण अपवाद। इसलिए अपवाद आधे से कम होगा। कितना कम होगा, यह परिस्थिति के ऊपर निर्भर करेगा। इस तरह बालाजी मामले में 50 प्रतिशत की सीमा निर्धारित की गई लेकिन बार-बार कहा जाता है कि इंद्र साहनी मामले  (1992) में ऐसी व्यवस्था दी गई। 

1979 में मोरारजी देसाई की सरकार ने बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। इस पांच सदस्यीय आयोग में चार सदस्य पिछड़ी जातियों से और एक अनुसूचित जाति से थे। आयोग ने 1931 की जनगणना रिपोर्ट को आधार बनाकर निष्कर्ष निकाला कि अन्य पिछड़ी जातियों की संख्या 52 प्रतिशत है। 1931 में अंतिम बार जातीय जनगणना हुई थी। आयोग ने सामाजिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन की जांच कर अनुशंसा की कि 27 प्रतिशत आरक्षण ओ.बी.सी. को नौकरियों तथा शिक्षण संस्थानों में दिया जाना चाहिए। उसने पिछड़ेपन के लिए जो मानक बनाए, उनमें कुछ को लेकर काफी विवाद भी हुआ। 

दिसम्बर, 1980 में आयोग ने रिपोर्ट सौंपी लेकिन इंदिरा गांधी या फिर राजीव गांधी की सरकारों ने उस पर कोई कार्रवाई नहीं की? 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अचानक 7 अगस्त को घोषणा कर दी कि मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाएगा। यह जानना दिलचस्प है कि 9 अगस्त को चौधरी देवी लाल की ओर से दिल्ली में एक रैली का आयोजन किया गया था। देवी लाल वी.पी. सिंह की सरकार में उपप्रधानमंत्री थे लेकिन कुछ दिनों पहले उन्हें बर्खास्त किया गया था। इसके विरोध में पूरे देश में आंदोलन हुआ। अनेक छात्रों ने आत्मदाह कर लिया। इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। 

इंद्र साहनी बनाम संघ में उच्चतम न्यायालय की 9 न्यायाधीशों की एक संविधान पीठ ने 16 नवम्बर, 1992 को दिए अपने फैसले में जाति के आधार पर दिए गए आरक्षण को सही ठहराया। उसने कहा कि जाति पिछड़ेपन का एक स्वीकार्य पैमाना है। लेकिन साथ ही निर्देश दिया कि मलाईदार परत को आरक्षण के दायरे से बाहर किया जाना चाहिए, आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत से कम होगी, प्रोन्नति में आरक्षण नहीं होगा क्योंकि दो बार भेदभाव नहीं किया जा सकता है—पहली बार भर्ती के समय और फिर पदोन्नति के समय और उच्च कौशल के क्षेत्र में आरक्षण नहीं होगा। 

केन्द्र सरकार ने संविधान में 77वां संशोधन कर अनुच्छेद 16 में उपबंध 4-ए जोड़कर प्रोन्नति में आरक्षण को बहाल कर दिया। यह सिर्फ अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए था। इसे एम. नागराज मामले में उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई। 2006 में अदालत ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 335 में वर्णित सिद्धांत का ख्याल रखना होगा कि आरक्षण और प्रशासनिक क्षमता के बीच संतुलन हो। अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 16 (4-ए) राज्य को प्रोन्नति में आरक्षण देने की शक्ति देता है जिसका इस्तेमाल वह कर सकता या नहीं कर सकता है। लेकिन यदि करना चाहे तो उसे ठोस आंकड़े देने पड़ेंगे कि किस जाति का उस सेवा में कितना प्रतिनिधित्व है। 2019 में 103वां संविधान संशोधन कर उच्च जातियों के आॢथक रूप से पिछड़ों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई। इसे शीर्ष अदालत ने संवैधानिक रूप से सही ठहराया। सिद्धांत समानता का है। आरक्षण अपवाद है।  75 सालों में एक भी जाति को आरक्षण की परिधि से बाहर नहीं लाया गया और नई-नई जातियों को जोड़ा गया। सवाल यह है कि आरक्षण का प्रतिशत कितना हो और यह व्यवस्था कब तक चले।-सुधांशु रंजन
 

Afghanistan

134/10

20.0

India

181/8

20.0

India win by 47 runs

RR 6.70
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!