Edited By ,Updated: 22 Jun, 2024 05:58 AM
सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में प्रवेश कर रही है, इसलिए कृषक समुदाय का विश्वास जीतने के लिए वास्तविक और पर्याप्त सुधारों की आवश्यकता होगी, जो किसानों के कल्याण को प्राथमिकता दें। कृषि हमेशा से भारत की अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना का आधार रही है।
सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में प्रवेश कर रही है, इसलिए कृषक समुदाय का विश्वास जीतने के लिए वास्तविक और पर्याप्त सुधारों की आवश्यकता होगी, जो किसानों के कल्याण को प्राथमिकता दें। कृषि हमेशा से भारत की अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना का आधार रही है। अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, इस क्षेत्र ने हाल के वर्षों में केंद्र सरकार के साथ खटास भरे संबंधों को देखा है। कृषि में क्रांति लाने के उद्देश्य से केंद्र सरकार के महत्वाकांक्षी वायदों और उसके बाद की नीतियों को अक्सर कृषक समुदाय के संदेह और गुस्से का सामना करना पड़ा है।
यह असंतोष राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में हाल ही में हुए आम चुनाव परिणामों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुआ। विवादास्पद कृषि कानून और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) के लिए कानूनी गारंटी की अधूरी मांग सहित इस क्षेत्र को प्रभावित करने वाले गहरे मुद्दे किसानों की पीड़ा और गुस्से को बढ़ाते रहते हैं। भारत की लगभग 65 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, जिसमें से 47 प्रतिशत कृषि पर निर्भर है। भारत की तेज आर्थिक वृद्धि के बावजूद, कृषि आय स्थिर रही है जो 2019 में औसतन लगभग 10,000 रुपए मासिक रही। आधे परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं और उनके पास पारंपरिक वित्त पोषण की कमी है।
पिछले एक दशक में खेती पर सार्वजनिक खर्च में कमी आई है और जरूरी सुधार लागू नहीं किए गए हैं। नतीजतन, कृषि क्षेत्र, जो भारत के लगभग आधे श्रमिकों को रोजगार देता है, सकल घरेलू उत्पाद में पांचवें हिस्से से भी कम योगदान देता है। 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का मोदी का वायदा अभी भी अधूरा है। 2014 में शुरू हुए मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में किसानों की आय दोगुनी करने के वायदों के साथ कृषि पर काफी ध्यान दिया गया था। हालांकि, ये वायदे विवादों और किसान विरोधी नीतियों के कारण दब गए। 2020-21 में किसानों की पीड़ा और गुस्सा अपने चरम पर पहुंच गया और फसल बिक्री, मूल्य निर्धारण तथा भंडारण के नियमों को आसान बनाने के उद्देश्य से विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ देशव्यापी विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए।
मोदी द्वारा कानूनों को निरस्त करने का वायदा करने के बाद विरोध प्रदर्शन समाप्त हो गए। किसानों ने 23 फसलों के लिए कानूनी रूप से गारंटीकृत एम.एस.पी. की मांग की, जो वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन की सिफारिश के अनुसार उत्पादन लागत से 50 प्रतिशत अधिक है। जबकि सरकार 22 फसलों के लिए एम.एस.पी. निर्धारित करती है, यह मुख्य रूप से कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिए केवल गेहूं और चावल खरीदती है और निजी खरीदारों को कानूनी तौर पर एम.एस.पी. का भुगतान करने की आवश्यकता नहीं होती है।
विवादास्पद कृषि कानूनों का उद्देश्य कृषि क्षेत्र को उदार बनाना था, लेकिन कई किसानों ने इसे अपनी आजीविका के लिए खतरे के रूप में देखा। इसके बाद हुए लंबे विरोध प्रदर्शनों के कारण अंतत: इन कानूनों को वापस ले लिया गया, फिर भी अंतर्निहित असंतोष कायम रहा। हाल के लोकसभा चुनावों में इस चल रहे गुस्से को दर्शाया गया जिसमें कृषि के मुद्दों को लेकर सत्तारूढ़ पार्टी को काफी नुकसान हुआ।
भारतीय कृषि मंत्रियों का भविष्य क्या है? नव-नियुक्त कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान को चुनौतियों का समाधान करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मध्य प्रदेश के कृषि परिदृश्य को बदलने की अपनी सभी विशेषज्ञता और अनुभव को लाना होगा। उन्हें अपने पूर्ववर्तियों के भाग्य के बारे में उत्सुक और सतर्क रहना चाहिए। तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के नेतृत्व में मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के आरंभकत्र्ता को फिर कभी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया। मृदा उत्पादकता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाई गई यह योजना अप्रभावी और विवादों में फंस गई।
नरेंद्र सिंह तोमर सहित बाद के मंत्री मध्य प्रदेश राज्य की राजनीति में चले गए और अब वे विधानसभा में स्पीकर हैं। हाल ही में, अर्जुन मुंडा को चुनावी हार का सामना करना पड़ा। जूनियर मंत्रियों कैलाश चौधरी और संजीव बालियान की हार भी सरकार की कृषि नीतियों से किसानों के असंतोष का संकेत देती है। कृषक समुदाय की एक महत्वपूर्ण मांग एम.एस.पी. की कानूनी गारंटी रही है। इस मांग को पूरा करने में सरकार की विफलता गुस्से का एक महत्वपूर्ण स्रोत रही है। किसानों का तर्क है कि कानूनी रूप से गारंटीकृत एम.एस.पी. बाजार में उतार-चढ़ाव और बिचौलियों द्वारा शोषण के खिलाफ सुरक्षा जाल प्रदान करेगा। कई आश्वासनों के बावजूद, मोदी प्रशासन ने इस आशय का कानून नहीं बनाया है, जिससे यह धारणा बनी है कि उनके हितों की अनदेखी की जा रही है।
विशेषज्ञों का तर्क है कि कानूनी रूप से एम.एस.पी. की गारंटी देने से राजकोषीय बोझ और संभावित मुद्रास्फीति प्रभाव पैदा हो सकते हैं। हालांकि, इस प्रभाव पर राय अलग-अलग हैं। कुछ लोगों का मानना है कि खेती की लागत को नियंत्रित करने से मुद्रास्फीति की चिंता कम हो सकती है। सभी फसलों के लिए एम.एस.पी. कार्यान्वयन की लागत भी अनिश्चित है, जो बाजार की कीमतों, सरकारी खरीद की मात्रा और अवधि के साथ बदलती रहती है। कृषि भूमि निवेश से जुड़ी प्रत्यक्ष आय सहायता एक अधिक प्रभावी दृष्टिकोण हो सकता है। किसानों को मूल्य स्थिरीकरण निधि से भी लाभ हो सकता है, ताकि बाजार की कीमतें एम.एस.पी. के स्तर से नीचे गिरने पर अंतर को कवर किया जा सके। रणनीतियों का यह संयोजन महत्वपूर्ण राजकोषीय या मुद्रास्फीति संबंधी मुद्दों को पैदा किए बिना किसानों को बेहतर समर्थन दे सकता है।-बी.के. झा