Edited By ,Updated: 15 Jun, 2024 05:36 AM
संघ प्रमुख डा. मोहन भागवत के भाषण पर जबरदस्त बहस चल रही है। वैसे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ अधिकारियों के भाषणों और वक्तव्यों पर मीडिया, विश्लेषकों तथा समर्थकों के अलावा विरोधियों की भी गहरी नजर रहती है।
संघ प्रमुख के 2 भाषण वर्ष में...
संघ प्रमुख डा. मोहन भागवत के भाषण पर जबरदस्त बहस चल रही है। वैसे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ अधिकारियों के भाषणों और वक्तव्यों पर मीडिया, विश्लेषकों तथा समर्थकों के अलावा विरोधियों की भी गहरी नजर रहती है। संघ प्रमुख के 2 भाषण वर्ष में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं और उनसे भविष्य की दिशा मिलती है-विजयादशमी महोत्सव और दूसरा नागपुर में आयोजित तृतीय वर्ष कार्यकत्र्ता प्रशिक्षण शिविर के समापन पर दिया गया भाषण। वर्तमान उद्बोधन भी कार्यकत्र्ता विकास वर्ग के समापन समारोह का ही है।
निष्पक्षता से कोई उनके पूरे उद्बोधन को सुनेगा तो उसका वह अर्थ नहीं निकालेगा जो मुख्य मीडिया और सोशल मीडिया में छाया हुआ है। सबका निष्कर्ष एक ही है कि डाक्टर भागवत ने भाजपा के बहुमत न पाने को लेकर ही अपनी टिप्पणी की है तथा उसको चेताया है। उसमें चाहे अहंकार की बात हो मिलकर चलने की, सत्य बोलने की आत्ममंथन सब केवल नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए है।
प्रश्न है कि क्या संघ और भाजपा के संबंध ऐसे हो गए हैं कि संघ प्रमुख को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या भाजपा को कुछ कहना हो तो सार्वजनिक भाषण में बोलेंगे और वह भी कार्यकत्र्ता विकास वर्ग के समापन में जबकि प्रशिक्षण के बाद स्वयंसेवकों को सकारात्मक भाव से निकलकर देश के लिए काम करने की प्रेरणा देनी होती है? दूसरे, अगर ये बातें केवल सरकार के लिए हैं तो विपक्ष के लिए क्यों नहीं? चुनाव हो ,सरकार और विपक्ष के बीच अनेक मुद्दों पर बहस चल रही हो, सरकार गठित हुई हो और संघ प्रमुख उसकी पूरी तरह अनदेखी कर दें यह नहीं हो सकता। पर जिन लोगों ने निष्पक्षता से संघ को समझा है, अध्ययन किया है वह इन ज्यादातर टिप्पणियों से सहमत नहीं हो सकते। तो फिर क्या होंगे डाक्टर मोहन भागवत के वक्तव्यों के निहितार्थ?
जिन पंक्तियों को बहस का आधार बनाया गया है उनमें पहला है, चुनाव। वे कहते हैं कि चुनाव संपन्न हुए हैं। उसके परिणाम भी आए और सरकार भी बन गई। यह अपने देश के प्रजातांत्रिक तंत्र में प्रत्येक 5 वर्ष में होने वाली घटना है। अपने देश के संचालन के लिए कुछ निर्धारण करने वाला वह प्रसंग है, इसलिए महत्वपूर्ण है। लेकिन इतना महत्वपूर्ण क्यों है? समाज ने अपना मत दे दिया, उसके अनुसार सब होगा। ध्यान रखिए इसी में वह कहते हैं कि क्यों, कैसे, इसमें संघ के हम लोग नहीं पड़ते। हम लोकमत परिष्कार का अपना कत्र्तव्य निभाते रहे हैं। प्रत्येक चुनाव में करते हैं। इस बार भी किया है। इन पंक्तियों को कोई उद्धृत नहीं करता जबकि संघ और उसके सारे संगठनों में काम करने वाले स्वयंसेवकों तथा समाज के लिए उनका पक्ष यही है। आगे वे कहते हैं कल ही आदरणीय सत्यप्रकाश जी महाराज ने हमको कबीर जी का एक वचन बताया। कबीर कहते हैं-
‘निर्बंधा बंधा रहे बंधा निर्बंधा होई
कर्म करे करता नहीं दास कहाय सोई’।
जो सेवा करता है, जो वास्तविक सेवक है, जिसको वास्तविक सेवक कहा जा सकता है उसको कोई मर्यादा रहती है यानी वह मर्यादा से चलता है। जैसा कि तथागत ने कहा है ‘कुशलस्य उपसंपदा’, यानी अपनी आजीविका पेट भरने का काम सबको लगा ही है, करना ही चाहिए.. लेकिन कौशलपूर्वक जीविका कमानी है और कार्य करते समय दूसरों को धक्का नहीं लगना चाहिए। ये मर्यादा भी उसमें निहित है। वह मर्यादा ही अपना धर्म है, संस्कृति है। संघ अपना काम करता है उसमें उलझता नहीं। और बहस इसी पर हो रही है कि संघ इसी वृत्ति में लिप्त है। संघ प्रमुख ने राजनीति को लोकतंत्र में आवश्यक बताते हुए यह कहा है कि हमारी भूमिका उससे अलग है। चुनाव को प्रजातंत्र की आवश्यक प्रक्रिया बताते हुए वे कहते हैं कि उसमें दो पक्ष रहते हैं, इसलिए स्पर्धा रहती है। स्पर्धा रहती है तो दूसरे को पीछे करने और स्वयं को आगे बढऩे का काम होता ही है परंतु उसमें भी एक मर्यादा है। असत्य का उपयोग नहीं करना। चुने हुए लोग संसद में बैठकर देश को चलाएंगे, सहमति बनाकर चलाएंगे। तो भागवत की देश के लिए दिशा यही है कि चुनाव में आवेश हुआ, गुस्सा हुआ, सब कुछ हुआ लेकिन अब सत्ता और विरोधी की जगह सबको देश चलाना है इसलिए सहमति बनाकर आगे काम होना चाहिए।
वे कहते हैं कि हमारे यहां तो परंपरा सहमति बनाकर चलने की है—‘समानो मंत्र : समिति समानी। समानम् मन: सह चित्तमेषाम’। यह सच है कि ऋग्वेदकारों को मानवी मन का ज्ञान था। सब जगह उन्होंने ‘सम’ कहा है (समानो मंत्र: समिति समानी समानम् मन:), लेकिन चित्त के बारे में सम नहीं कहा, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का चित्त, मानस अलग-अलग होता ही है। इसलिए 100 प्रतिशत मतों का मिलान होना संभव नहीं है। लेकिन जब चित्त अलग-अलग होने के बाद भी एक साथ चलने का निश्चय करते हैं तो सहचित्त बन जाता है।
दुनियाभर में हमारे देश की प्रतिष्ठा बढ़ी है। विश्व के विकसित देशों ने भी हमको धीरे-धीरे मानना शुरू किया है। जो कहते हैं कि भागवत ने केवल मोदी और उनकी सरकार को कटघरे में खड़ा किया है उन्हें भाषण का यह पक्ष भी ध्यान रखना चाहिए। एक समय शांत होते दिख रहे मणिपुर में फिर अशांति आई तो इस पर चिंता प्रकट करना वहां शांति स्थापना की अपील है। आप संघ के विरोधी हों या समर्थक, उनके पूरे भाषण को सुना और शांत मन से मनन किया जाएगा तो हमें आपको कोई विरोधी या शत्रु सहसा नजर नहीं आएगा तथा सबके अंदर देश के लिए संकुचित स्वार्थ से परे हटकर मिलजुल कर काम करने की भावना सशक्त होगी।-अवधेश कुमार