लोकतंत्र में ‘हॉर्स ट्रेडिंग’ हर कीमत पर टाली जानी चाहिए

Edited By ,Updated: 22 Nov, 2024 05:25 AM

in a democracy horse trading must be avoided at all costs

महाराष्ट्र में 20 नवम्बर को मतदान हुआ। सुबह जल्दी उठने वालों के साथ-साथ, जो आमतौर पर सुबह टहलने के लिए निकलते हैं, मैंने भी अपना वोट डाला। मेरी बढ़ती उम्र के कारण मतदान कर्मचारियों ने सुनिश्चित किया कि मैं सुबह 7 बजे एक या दो मिनट बाद अपने बूथ पर...

महाराष्ट्र में 20 नवम्बर को मतदान हुआ। सुबह जल्दी उठने वालों के साथ-साथ, जो आमतौर पर सुबह टहलने के लिए निकलते हैं, मैंने भी अपना वोट डाला। मेरी बढ़ती उम्र के कारण मतदान कर्मचारियों ने सुनिश्चित किया कि मैं सुबह 7 बजे एक या दो मिनट बाद अपने बूथ पर सबसे पहले अपना वोट डालूं। 2 या 3 महीने पहले चुनाव पर्यवेक्षकों ने शरद पवार के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी के हाथों भाजपा के नेतृत्व वाली महायुति की हार की भविष्यवाणी की थी। एम.वी.ए. में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना (यू.बी.टी.) और कांग्रेस पार्टी के अलावा एन.सी.पी. (राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी) का शरद पवार गुट शामिल है। 

एग्जिट पोल का बहुमत महायुति के पक्ष में है। 7500 रुपए बैंक खाते में जमा कराने के लिए भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को वोट मिलने से महायुति आसानी से जीत जाएगी। इस साल के शुरू में हुए लोकसभा चुनावों में एम.वी.ए. ने भाजपा के नेतृत्व वाले महायुति को करारी शिकस्त दी थी। उस प्रदर्शन के बाद कांग्रेस कार्यकत्र्ताओं का मनोबल खासा बढ़ा था। इसलिए विधानसभा चुनावों में एम.वी.ए. को बढ़त हासिल थी। सत्तारूढ़ पार्टी की ‘लाडकी बहिन’ पहल के बाद यह बढ़त काफी कम हो गई। इस आर्थिक रूप से अव्यवहारिक योजना में हर गरीब महिला को हर महीने अपने बैंक खाते में 1500 रुपए मिलेंगे, ताकि वह अपने परिवार को वित्तीय कठिनाइयों से उबार सके। 

यह मतदाताओं को रिश्वत देने का एक स्पष्ट प्रयास है, जो चुनाव आयोग की तीखी नजर से बच गया है। महिला लाभाॢथयों के उत्साह को देखते हुए कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया यह थी कि अगर एम.वी.ए. सत्ता में आई तो मुफ्त सुविधाओं को दोगुना किया जाएगा। यह प्रतिस्पर्धी लोक-लुभावनवाद महिलाओं के महायुति को वोट देने के संकल्प को परेशान कर सकता है, लेकिन यह बजट योजनाकारों और वित्त विभाग के लोगों के लिए विनाश का कारण बनता है, जो हर साल घाटे के वित्त पोषण से जूझते हैं। मैंने मैरी से पूछा, जिसे मेरी पत्नी ने 30 साल पहले रोमानिया से घर लौटने पर घरेलू सहायिका के रूप में भर्ती किया था, कि क्या उसने सरकार द्वारा सभी ‘पिछड़ों’ को दिए जाने वाले 1500 रुपए प्रति माह के लिए आवेदन किया था। उसने कहा ‘हां’ उसने किया था, लेकिन उसका अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि वह 60 वर्ष से अधिक उम्र की हो गई थी! 

मैंने अंजना से भी पूछा, जो हमारी इमारत में दूसरी मंजिल पर साहनी परिवार के लिए काम करती थी। वह मुस्कुरा रही थी। उसे रुपए मिले थे। एक किस्त में 7500, 4 महीने के लिए 6000 और दीवाली बोनस के रूप में 1500! रुपए उसके बैंक खाते में जमा हो गए थे। मैंने अनुमान लगाया कि अंजना का वोट महायुति के लिए सील कर दिया गया था। एक परेशान करने वाला सवाल दिमाग में घूम रहा है। कांग्रेस पार्टी द्वारा ईनाम को दोगुना करने का वायदा करने के बाद यह और अधिक प्रासंगिक हो गया। क्या वोटों के सील होने और गिनती होने के बाद भी पैसे का वितरण जारी रहेगा? क्या सरकार के पास पर्याप्त पैसा है? आज मतदाता 10 या 20 साल पहले की तुलना में बेहतर जानकारी रखते हैं। उन्हें धोखा देना आसान नहीं है। इन कारकों को ध्यान में रखते हुए, मैं जो सामान्य निर्णय सुन रहा हूं वह यह है कि यह चुनाव एक करीबी मामला होने जा रहा है। कोई भी वास्तव में परिणामों की भविष्यवाणी नहीं कर सकता। ‘लाडकी बहिन’ सरकार के पक्ष में स्थिति बदल सकती है। अगर लोग राजनीतिक वर्ग की विश्वसनीयता के बारे में अधिक आश्वस्त होते तो यह निश्चित रूप से स्थिति को बदल सकता था। 

2014 में मोदी ने खुद हर नागरिक के बैंक खाते में 15 लाख रुपए डालने का वादा किया था! 23 नवंबर को नतीजे घोषित किए जाएंगे। तब तक इंतजार करें, ताकि पता चल सके कि महयुति द्वारा ‘लाडकी बहिन’ योजना पर जताया गया भरोसा कितना सफल हुआ है। इस बड़े चुनावी मुकाबले में 2 अन्य मुकाबले भी हैं। मराठी मानुष इन 2 ‘पक्ष’ मुकाबलों के नतीजों का बेसब्री से इंतजार कर रहा है। राज्य में भाजपा के कद्दावर नेता देवेंद्र फडऩवीस ने शिवसेना और एन.सी.पी. में फूट डाली थी, जो 2 साल पहले एम.वी.ए. सरकार में कांग्रेस की सहयोगी थीं। 

अप्रैल में हुए लोकसभा चुनावों में यह साबित हो गया कि अपने चाचा शरद पवार के खिलाफ अजित पवार की बगावत महाराष्ट्र की राजनीति में दबदबे वाले बड़े मराठा समुदाय को रास नहीं आई। शिवसेना में फूट ज्यादा आनुपातिक थी। बाला साहेब ठाकरे के बेटे उद्धव  उनके अभिषिक्त उत्तराधिकारी हैं। नरेंद्र मोदी बार-बार गांधी भाई-बहनों को वंशवाद के उत्तराधिकारी बताते हैं। लेकिन भारतीय संस्कृति में वंशवाद की परम्पराएं आदर्श हैं, और हमारे देश में लगभग हर पार्टी में राजनीतिक वंशवाद की भरमार है। मतदाता वंशवाद को एक ‘स्वाभाविक’ घटना के रूप में स्वीकार करते हैं। उद्धव ठाकरे बाला साहेब की तरह तुरन्त ताकत दिखाने की आदत से दूर रहे हैं। ऐसा होने का समय आ गया था। शिवसैनिकों ने स्पष्ट रूप से उद्धव के संतुलित दृष्टिकोण को तरजीह दी, न कि उनके चचेरे भाई राज द्वारा वकालत की गई ताकत-उन्मुखी शैली को! 

संयोग से, राज केवल उद्धव के पिता की ओर से उनके चचेरे भाई नहीं थे। उनकी माताएं भी बहनें थीं -दो भाइयों ने दो बहनों से विवाह किया था। उद्धव के अपने बेटे आदित्य ने राज्य की राजनीति में खुद को एक युवा, भविष्य के होनहार नेता के रूप में स्थापित किया है, जिसके लिए पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन अन्य राजनेताओं की तुलना में अधिक मायने रखता है। शिवसेना के दोनों गुट, उद्धव और मुख्यमंत्री शिंदे, वर्तमान में समान रूप से एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं। मुम्बई शहर में, उद्धव के पास ज्यादा वफादार समर्थक हैं। शिंदे बगल के ठाणे में लोकप्रिय हैं। सिर्फ एक ही नतीजा तय है। शिवसेना में विभाजन के बाद ‘मराठी मानुस’ वोटों में विभाजन होने जा रहा है। पीछे मुड़कर देखें तो मैं यह कहने की हिम्मत करता हूं कि शिवसेना और एन.सी.पी. में देवेंद्र फडऩवीस द्वारा की गई फूट विफल हो गई है। इसने राज्य में भाजपा को सत्ता में वापस तो ला दिया, लेकिन अगर ‘लाडकी बहिन’ पहल की कल्पना नहीं की गई होती तो यह अंतराल सिर्फ 2 साल तक सीमित रहता। ‘लाडकी बहिन’ के साथ मुकाबला और भी दिलचस्प हो जाएगा। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी बहनें वोट डालते समय महायुति को आशीर्वाद देती हैं। यह 64 डॉलर का सवाल है। महाराष्ट्र में मोदी को अभी वह खौफ और सम्मान नहीं मिल रहा है जो उन्हें उत्तर के हिन्दी भाषी राज्यों और निश्चित रूप से गुजरात में मिल रहा है। 

शिवसेना के दोनों गुट बाला साहेब ठाकरे को अपना बताने के लिए एक-दूसरे से होड़ कर रहे हैं। एन.सी.पी. (अजित पवार) के पोस्टरों में विपक्ष के शरद पवार को शुभंकर के रूप में दिखाया गया है! शरद के गुट को उन पोस्टरों को हटाने के लिए चुनाव आयोग से सम्पर्क करना पड़ा। अगर आप ‘प्रार्थना’ करने वाले हैं, तो कृपया प्रार्थना करें कि छोटी पाॢटयां, बागी और निर्दलीय उम्मीदवारों को फैसले लेने का मौका न मिले। लोकतंत्र में हॉर्स ट्रेङ्क्षडग एक ऐसा परिदृश्य है जिसे हर कीमत पर टाला जाना चाहिए।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)
        

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