फिर से खोजनी होगी भारत की ‘संत परंपरा’

Edited By ,Updated: 25 Oct, 2024 06:40 AM

india s saint tradition will have to be rediscovered

कहां गुम हो गई है भारत की संत परम्परा? यह सवाल मेरे जहन में महाराष्ट्र के अमरावती जिले के मौझारी गांव में स्थापित श्रीगुरुदेव आध्यात्मिक गुरुकुल में आया। शाम ढल चुकी थी, चारों तरफ ग्रामीण मेले का माहौल था। खुले आकाश के नीचे बच्चों और बूढ़ी महिलाओं...

कहां गुम हो गई है भारत की संत परम्परा? यह सवाल मेरे जहन में महाराष्ट्र के अमरावती जिले के मौझारी गांव में स्थापित श्रीगुरुदेव आध्यात्मिक गुरुकुल में आया। शाम ढल चुकी थी, चारों तरफ ग्रामीण मेले का माहौल था। खुले आकाश के नीचे बच्चों और बूढ़ी महिलाओं सहित हजारों ग्रामवासी भजन और प्रवचन सुन रहे थे। 

चर्चा आत्मा-परमात्मा, पाप और पुण्य, स्वर्ग और नरक या पूजा-अर्चना की नहीं थी बल्कि ग्राम निर्माण, आरोग्य, खेती किसानी और लोकतांत्रिक में नागरिकों की जिम्मेदारी जैसे विषयों पर भाषण चल रहे थे। भजन भी अंधविश्वासों का खंडन करने वाले थे। अवसर था राष्ट्र संत तुकडोजी महाराज का 56वां निर्वाण दिवस जिसे ग्रामगीता तत्वज्ञान आचार महायज्ञ की तरह मनाया जा रहा था। यह सवाल इसलिए मन में आया चूंकि संत परंपरा ने भारत देश को बनाया है, बचाया है, जोड़े रखा है, जिंदा रखा है। चाहे रामानुज हों या बसवाचार्य, नानक हों या कबीर, रैदास हों या घासीदास, मीराबाई हों या लाल देद, मोइऊद्दीन चिश्ती हों या बाबा फरीद-देश के अलग अलग कोने में इन संतों ने देश की आत्मा को जिंदा रखा, राजनीतिक उठापटक के दौर में समाज को बांधे रखा। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि भारत को सत्ता ने नहीं संतों ने परिभाषित किया है, देश को भाषणों ने नहीं, भजनों ने बांध कर रखा है। इस संदर्भ में महाराष्ट्र में संतों की परंपरा अनूठी है। संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, नामदेव, जनाबाई, रामदास, शेख मोहम्मद, गोटा कुम्हार और रोहिदास की परंपरा ने सदियों तक इस प्रदेश की संस्कृति को परिभाषित किया।

19वीं सदी में भी अंग्रेजी राज का विरोध करने में संतों का बड़ा योगदान था। लेकिन 20वीं सदी आते-आते यह परंपरा लुप्त प्राय: हो गई है। ढूंढने पर श्री नारायण गुरु जैसे अपवाद मिल जाते हैं, लेकिन यह एक सिलसिला या परंपरा नहीं बनता। ऐसा क्यों हुआ?तुकडोजी महाराज की पावन भूमि में पहुंच कर यह सवाल उठना स्वाभाविक था, चूंकि वे 20वीं सदी के उन अपवादों में से एक थे। जन्म 1909 में ही महाराष्ट्र के अमरावती जिले के एक गरीब दर्जी परिवार में हुआ। औपचारिक शिक्षा न के बराबर हुई, लेकिन बचपन से भजन की लगन लग गई। घर छोड़कर जंगल में रहे और साधु बनकर वापस आए। लेकिन विभूति और चमत्कार वाले साधु नहीं, अंधविश्वास का खंडन करने और समाज सुधार के लिए जन जागरण करने वाले साधु। मराठी और हिंदी में भजन लिखते थे, खंजड़ी लेकर बजाते थे, खरी-खरी बात सुनाते थे। महात्मा गांधी ने सेवाश्रम आमंत्रित कर उनके भजन सुने। तुकडोजी ने भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया, जेल भी गए। आजादी के बाद विनोबा भावे के आग्रह पर भूदान आंदोलन का सहयोग भी किया। लेकिन कभी गांधीवादी नहीं बने, किसी पार्टी से नहीं जुड़े। बाबा साहेब अंबेडकर और संत गाडगे से स्नेह का रिश्ता बना। 

तुकडोजी महाराज ने अपना अधिकांश समय महाराष्ट्र के गांवों में घूम-घूमकर स्वराज को सुराज बनाने के लिए आदर्श गांव बनाने की मुहिम चलाई, उन विचारों को जोड़कर ‘ग्रामीणगीता’ की रचना की। जाति व्यवस्था की ऊंच-नीच के विरुद्ध अभियान चलाया, हिंदू मुसलमान में भेदभाव का विरोध किया। मूर्ति पूजा और कर्मकांड से दूर रहते हुए मिट्टी से जुड़ते हुए भगवान से जुडऩे की प्रेरणा दी। अंतिम संस्कार की एक नई पद्धति बनाई।  जापान में विश्वधर्म विश्वशांति परिषद में गए और ‘भारत साधु समाज’ की स्थापना की। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद उनके भजनों से इतने अभिभूत हुए कि उन्हें राष्ट्रपति भवन आमंत्रित किया और उन्हें ‘राष्ट्रसंत’ नाम से नवाजा। आज पूरा महाराष्ट्र उन्हें राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज के नाम से जानता है। वर्ष 1968 में उनके निधन के बाद से कुछ शिष्यों ने उन्हें भगवान का दर्जा देने की कोशिश की, लेकिन आज भी उनकी वैचारिक परंपरा को मानने वाले उनकी याद में अंधश्रद्धा निर्मूलन, पुस्तक और शिक्षा के प्रचार-प्रसार और खेती किसानी के सशक्तिकरण के अभियान चलाते हैं, सर्वधर्म प्रार्थना आयोजित करते हैं। उनकी स्मृति में हो रहे भजन में लीन जनता को देखकर मुझे पिछले वर्ष कबीर गायक प्रह्लाद टिपणियां जी की सभाओं की याद आ गई। मध्यप्रदेश के ग्रामीण अंचल में उनके कबीर भजन और सीधी तीखी बातों को सुनने के लिए सर्दी की रात में हजारों ग्रामीण बैठे रहते थे।

यही बात जब नेता और सामाजिक कार्यकत्र्ता कहते हैं तो उनके लिए श्रोता जुटाने पड़ते हैं। उनकी कड़वी बातों को लोग सुनकर हज्म कर लेते हैं, लेकिन वही बात अगर प्रगतिशील लोग कहते हैं तो यही लोग या तो काटने को दौड़ते हैं, या फिर चिकने घड़े बन जाते हैं। भारत की भाषा, मुहावरे और संस्कार के अनुरूप समाज को सुधारने वाली यह संत परंपरा हमारे समाज से गायब क्यों हो गई? इस परंपरा के खंडित होने का कारण औपनिवेशिक आधुनिकता है। अंग्रेजी राज के बाद समाज सुधार और परिवर्तन की चिंता एक अंदरूनी मुहावरे को छोड़ आधुनिक राजनीतिक विचारधाराओं की भाषा में होने लगी चाहे वह राष्ट्रवाद हो या समाजवाद, समता का मुहावरा हो या स्वतंत्रता का। 

समाज परिवर्तन का मुख्य कार्यक्षेत्र अब समाज की बजाय राजनीति हो गया। समाज बदलने की जिम्मेदारी समाज सुधारकों, साधुओं, संतों की बजाय अब आधुनिक  क्रांतिकारियों ने ले ली। इसके पीछे जरूर हमारे समाज की कमजोरी रही होगी। निश्चित ही समाज में अंदरुनी परिष्कार की क्षमता क्षीण हो गई थी, शायद जाति व्यवस्था के कोढ़ ने समाज को सड़ा-गला बना दिया था। जो भी हो, आधुनिकता के आगमन और संत परंपरा के लुप्त हो जाने से धर्म, समाज और राजनीति सभी का नुकसान हुआ है। धर्म के नाम पर संत का चोला पहन कर ढोंगी और पाखंडी बाबा लोगों का साम्राज्य फैल रहा है। समाज परिवर्तन की धार कमजोर हुई है, सुधार के प्रयास जातियों के भीतर सिमट गए हैं और राजनीति अमर्यादित हुई है। धर्म, समाज और राजनीति को जोडऩे के लिए आधुनिक राजनीतिक साधुओं की जमात खड़ा करना राष्ट्र निर्माण की जरूरत है।-योगेन्द्र यादव
 

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