Edited By ,Updated: 02 Jan, 2025 05:52 AM
नए साल पर पहली चर्चा खुशखबरी की ही होनी चाहिए तो खुशखबरी यह है कि भारत बाहर गए भारतीयों द्वारा बीते साल में बाहर की कमाई में से बचत करके देश में पैसा भेजने के मामले में दुनिया में सबसे ऊपर आ गया है और दूर-दूर तक उसे चुनौती मिलती नजर नहीं आ रही है...
नए साल पर पहली चर्चा खुशखबरी की ही होनी चाहिए तो खुशखबरी यह है कि भारत बाहर गए भारतीयों द्वारा बीते साल में बाहर की कमाई में से बचत करके देश में पैसा भेजने के मामले में दुनिया में सबसे ऊपर आ गया है और दूर-दूर तक उसे चुनौती मिलती नजर नहीं आ रही है क्योंकि उसके लिए चुनौती बनने वाला चीन काफी पीछे हो गया है। बाहर गए भारतीयों ने इस साल 129.1 अरब डालर की रकम अपने बंधु-बांधवों और देश को भेजी जो वैश्विक हिसाब का 14.3 फीसदी है। चीन का नंबर अब काफी पीछे है और उसका हिस्सा मात्र 5.3 फीसदी का हो गया है जबकि अभी हाल तक वह कभी भी 10 फीसदी से नीचे नहीं गया था।
भारत के बाद मैक्सिको का नंबर आता है पर अंग्रेजी जानने वाले ऐसे ‘मजदूरों’ के मामले में पाकिस्तान ही हमारे बाद है जिसका हिसाब और भी पीछे है। विदेशी मजदूरी/कमाई के इस हिसाब का महत्व तब और साफ दिखता है जब हम पाते हैं कि हमारी जी.डी.पी. में इसका हिस्सा 3.3 फीसदी का हो जाता है और हमारे लिए तो नहीं लेकिन दुनिया के काफी देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की मात्रा इस कमाई के नीचे ही है। पर हमारे लिए भी यह कमाई काफी महत्वपूर्ण है खासकर विदेशी मुद्रा की कमाई के लिहाज से भी। और चीन की घटती कमाई पर ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है क्योंकि एक तो अंग्रेजी के चलते उसके बी.पी.ओ. क्षेत्र में हमारे जितने ‘मजदूर’ उपलब्ध भी नहीं हैं। दूसरे वहां युवा आबादी का अनुपात तेजी से कम होने लगा है और तीसरी वजह उसका खुद का एक बड़ी आर्थिक ताकत बनने से अपने सारे कामगार हाथों को काम उपलब्ध कराना है।
दूसरी ओर हम हैं जिसके डालर कमाने वाले ‘मजदूरों’ में अंग्रेजी ज्ञान काफी बड़ी ताकत है और बी.पी.ओ. क्षेत्र से होने वाली कमाई हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण बन गई है। अरब जगत या अन्य देशों में शारीरिक श्रम करके कमाई करने वाले कम नहीं हैं पर भारत में कम्प्यूटर क्रांति का मतलब सेवा क्षेत्र से कमाई बढ़ाना है। और इस ‘सेवा’ का लाभ अमरीका और यूरोप समेत किस-किस देश को कितना मिला है इसका हिसाब लगाने की फुर्सत भी हमें नहीं है। पर डालर में कमाई के चलते इसकी मात्रा और महत्व दोनों काफी अधिक हैं। सो पहली खुशखबरी से भी ज्यादा महत्व की चेतावनी यही है कि हमारे बी.पी.ओ. कारोबार के लिए सबसे बड़ा बाजार अमरीका अकारण वीजा के नियमों में बदलाव करके भारतीय पेशेवर कम्प्यूटर कर्मियों का अपने यहां काम करना मुश्किल कर रहा है। कई महीने पहले जब डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने चुनाव प्रचार के क्रम में वीजा नियम सख्त करने और ‘अवैध’ प्रवासियों को भगाने की बात उठाई तब से यह मामला अमरीका, पूरी दुनिया और वहां काम कर रहे भारतीयों के बीच सर्वोच्च प्राथमिकता का मुद्दा बना हुआ है ।
‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (मागा) नाम से पहचाने जाने वाले ट्रम्प भक्त हुड़दंग मचाए हुए हैं जबकि ट्रम्प की जीत को अपनी जीत बताने वाले भारतीय भक्त इस सवाल पर चुप्पी साधे हुए हैं तो अमरीकी भक्त लगभग जातीय दंगा शुरू कराने वाली भाषा बोलने लगे हैं क्योंकि वहां सरकार बदल चुकी है और डोनाल्ड ट्रम्प बस आने ही वाले हैं। ऐसे-ऐसे अपमानजनक और डरावने वीडियो क्लिप भारत तक पहुंचने लगे हैं जिनसे लगता ही नहीं कि अमरीका कोई सभ्य समाज है। हम जानते हैं कि ट्रम्प के परम सहयोगी और टेसला के मालिक एलन मस्क ने भी उनकी इस राय से सहमति जताई थी और लगातार वीजा नियमों में बदलाव की वकालत करते रहे हैं। नई सरकार पर उनकी छाप के अंदाजे से यह भी घबराहट का विषय बन गया था।
अब कारण जो भी रहे हों पर, साल जाते-जाते मस्क ने अपनी बात थोड़ी हल्की की तब काफी सारे लोगों ने राहत की सांस ली। मस्क ने कहा कि वीजा प्रणाली में गड़बडिय़ां हैं और इन्हें दूर किया जा सकता है। अब अवैध ढंग से घुसपैठियों की वकालत कौन करेगा लेकिन वे वीजा-पासपोर्ट वाले तो हैं नहीं। पर जो लोग वीजा, खासकर एच-1 बी वीजा लेकर गए हैं उनमें अवैध लोग कैसे जा सकते हैं यह समझ से परे है और फिर उनके खिलाफ आग उगलने का क्या कारण है यह समझना मुश्किल है।
हर काम में कमाई करने का अभ्यस्त अमरीका हर वीजा के लिए 35 हजार डालर की फीस वसूलता है और रैजीडैंसी की स्पांसराशिप के लिए 50 हजार डालर की फीस लेता है। ये लोग अपनी मौजूदगी और बौद्धिक/शारीरिक श्रम से अमरीकी अर्थव्यवस्था में कितना या कैसा योगदान देते हैं (क्योंकि सब बुलाए हुए लोग हैं) वह हिसाब अलग है लेकिन उनकी अमरीका में तैनाती कराने में ही हमारी साफ्टवेयर कंपनियों का हाल खराब होता है। अब क्या होगा यह कहना मुश्किल है लेकिन इतना तो लग रहा है कि एक बार फिर उनका ही मुंडन प्रमुख रूप से होने वाला है और अगर अमरीका वीजा या वर्क परमिट को महंगा करता है तो इसका वैश्विक असर होगा। असल में सबका ध्यान देश की आर्थिक राजधानी का चुनाव जीतने के बाद राजधानी दिल्ली के नन्हे असैम्बली के चुनाव पर है जिसके अधिकारों पर सभी शक करते रहे हैं। उनका मुकाबला असल में ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) से है। हमारे ‘मेक इंडिया ग्रेट’ अर्थात भारत महान वालों को यह भी तय करना है कि वे किस भारत की बात कर रहे हैं।-अरविंद मोहन