Edited By ,Updated: 03 Aug, 2024 06:24 AM
प्रति वर्ष अगस्त के पहले रविवार को भारत सहित अनेक देशों में मित्रता दिवस मनाने की परंपरा है।
प्रति वर्ष अगस्त के पहले रविवार को भारत सहित अनेक देशों में मित्रता दिवस मनाने की परंपरा है। यह दिन केवल नाम के लिए नहीं बल्कि गंभीरता से सोचने का अवसर है कि दोस्ती की परिभाषा, उसकी जरूरत और उसे निभाने के जरूरी लक्षण क्या हैं और कैसे यह रिश्ता जीवन भर बना रह सकता है?
मित्रता का भावना से संबंध : सभी लोगों के जीवन में ऐसे पल आए होंगे, उन व्यक्तियों से मिले होंगे या अचानक आमने-सामने आ गए होंगे जिन्हें देखकर मन में यह भावना उत्पन्न हुई होगी कि यह तो मेरे ही जैसा या जैसी है। बचपन में अपने ही परिवार या पड़ोस में अथवा स्कूल आते-जाते या एक ही कक्षा में कोई न कोई तो होता है जिसके साथ बात करने, मिल बैठने और अपना कोई भी रहस्य बांटने की इच्छा अपने आप हो जाती है। इसमें परिवार या खानदान अथवा धन दौलत, गरीबी अमीरी और सामाजिक पहरेदारी की कोई जगह नहीं होती।
विभिन्न परिस्थितियों के कारण चाहे सांसारिक रूप से कितने भी दूर हों, किसी भी मुकाम पर हों, उनकी याद जरूर आती है, बरसों न मिले हों लेकिन जब भी मुलाकात हुई हो और हालात कैसे भी हों, वही पुराने क्षण स्मृति में कौंधने लगते हैं जो एक तरह से हरेक के जीवन की ढाल होते हैं। कहते हैं कि दोस्तों के साथ रहने से उम्र बढ़ती है, मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है, शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है। प्रमाण है कि दोस्त साथ हो तो गंभीर बीमारियों जैसे दिल या कैंसर के रोगी दुगुनी गति से ठीक होते हैं। असल में दोस्ती ऊर्जा देती रहती है और वह भी बिना सामने बैठे अर्थात् केवल ख्यालों के जरिए कि दोस्त यहीं कहीं है, यही अहसास जल्दी ठीक हो जाने का कारण बन जाता है। इसके विपरीत अगर ऐसा भावनात्मक संबंध रखने वाला व्यक्ति जिंदगी में नहीं है तो फिर केवल दवाइयों का ही भरोसा रह जाता है।
मित्रता के बीच बुद्धि का इस्तेमाल : दोस्ती की परख करने के लिए जब लोग अपनी अकल का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करते हैं तब ही दोस्ती के खत्म होने और यह सोचने की कि हम कभी दोस्त भी थे, यह सोच बनने की शुरूआत हो जाती है। ध्यान दीजिए कि बचपन में जब किसी से दोस्ती या मोहब्बत होती थी तो तर्क यानी बुद्धि का उपयोग नहीं होता था, बस एक रिश्ता बनने लगता था। इस बात की तरफ ध्यान ही नहीं जाता था कि जिससे दोस्ती हो रही है उसकी आॢथक, पारिवारिक और सामाजिक हैसियत क्या है और अगर कोई इन सब चीजों के बल पर अपनी धाक या धौंस जमाकर दोस्ती करना चाहता था तो उसे न केवल बाक़ी लोग सबक सिखा देते थे बल्कि उसे दोस्त भी नहीं मानते थे। कहते हैं कि ऐसी ही नि:स्वार्थ भावना के बीज से अंकुरित और पल्लवित दोस्ती ही जीवन भर कायम रहती है।
मित्रता के पौराणिक प्रकार : कृष्ण और सुदामा की पाठशाला में बनी दोस्ती राजा और रंक की मित्रता की पौराणिक मिसाल है। इसी के साथ कृष्ण और राधा, कृष्ण और द्रौपदी तथा कृष्ण और उद्धव की मित्रता के अलग स्वरूप हैं। आज के दौर में इन पौराणिक चरित्रों को समझना ही मित्रता की कसौटी है। राधा और कृष्ण में आत्मीय मित्रता अर्थात् आत्मा का संबंध था। दोनों एक दूसरे के पूरक या कहें कि दो शरीर और एक आत्मा थे। उनका प्रेम आध्यात्मिक, अलौकिक था, सांसारिक विषयों की कामना और वासना का कोई स्थान नहीं था।
आत्मिक मित्रता के बाद कृष्ण के सखा भाव का उनके जीवन में स्थान था। उनके केवल दो सखा थे। एक थीं द्रौपदी और ये दोनों एक दूसरे के सखा थे और इसी संबोधन से पुकारते थे। महाभारत में चीरहरण का प्रसंग यही दर्शाता है कि सखा भाव ही मित्रता की कसौटी और उसकी पराकाष्ठा है। जब सब ओर से द्रौपदी निराश और व्यथित हो रही थी तो अपने सखा को एक बार पुकारने भर से ही उनके सभी कष्टों का अंत हो गया।
सांसारिक प्रेम चाहे द्रौपदी अपने 5 पतियों और कृष्ण अपनी पटरानी और अन्य रानियों से करते हों लेकिन सखा भाव से जन्मा प्रेम कृष्ण और द्रौपदी के जीवन की शक्ति था। यही अंत तक कायम रहा। इसमें न कभी विघ्न पड़ा और न ही कभी कोई कमी आई। कृष्ण के एक सखा थे उद्धव जो उनके सहपाठी, एक-दूसरे के जैसे दिखने वाले और प्रेम तथा मित्रता के अद्वितीय उदाहरण थे। उद्धव बहुत ज्ञानी थे और उन्हें अपने ज्ञान का अहंकार था। वे अपने सामने किसी को अपने जैसा या बड़ा विद्वान ही नहीं समझते थे। परंतु कृष्ण और उद्धव तो सखा थे और एक दूसरे के मन और हृदय की बात जानते थे। दोनों में एक अंतर था।
कृष्ण को अहंकार का ज्ञान था और इसी कारण वे कौरवों के घमण्ड को चूर-चूर कर सके। उन्हें पांडवों के अहंकार का भी पता था और उन्होंने उसे भी ध्वस्त किया। इसी तरह उन्हें उद्धव के ज्ञानी होने के अहंकार का ज्ञान था। जरूरी था कि जब कोई दोस्त है तो उसे आइना भी दिखाया जाए। कृष्ण ने यही किया और किस तरह से किया, यह सब एक बार फिर से जानते हैं। कृष्ण का राधा और गोप गोपियों से आत्मिक प्रेम था और वे चाहे किसी भी स्थिति या परिस्थिति में हों, एक पुकार से हाजिर हो जाते थे। उद्धव कृष्ण के राजकाज में उनके सहायक थे और उसके सुचारू रूप से संचालन की उनकी जिम्मेदारी थी।
अब कृष्ण तो राधा की आत्मा थे और इससे उद्धव के अनुसार राजकाज में व्यवधान होता था। जब उद्धव ने बहुत उलाहने दिए तो कृष्ण ने उद्धव को अपना दूत बनाकर गोपियों के पास भेजा कि अपने ज्ञान से उन्हें समझाएं कि प्रेम की जगह योग, साधना और ऐसी चीजें करें कि उनका ध्यान कृष्ण से हटे और वे अपना राज्य चला सकें। अब यहां गोपियां एकमात्र इस बात पर अड़ी हैं कि उनका मन, हृदय और उनका जो कुछ भी है, वह तो कृष्ण को दे दिया है, अब उनके पास क्या है जिससे वे उनके ज्ञान के अनुसार चलें।
धीरे-धीरे उद्धव का सारा ज्ञान बिखर जाता है और उनके ज्ञान की गठरी खाली हो जाती है और उसमें ज्ञान के अहंकार के स्थान पर प्रेम रस भर जाता है। वे कृष्ण के पास पहुंचते हैं और जान पाते हैं कि कृष्ण ने उनके सखा होने के नाते किस तरह उनके अहंकार का नाश कर प्रेम का बीज बोया। इस बार मित्रता दिवस की शुभकामनाएं और यह विचार करने के लिए कि आत्मीय, सखा और मित्र का चुनाव किस प्रकार करें कि वह जीवन पर्यंत बना रहे। -पूरन चंद सरीन