mahakumb

क्या पराली का म प्रदूषण बढ़ाने के लिए जिम्मेदार

Edited By ,Updated: 10 Nov, 2022 04:33 AM

is stubble waste responsible for increasing pollution

बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण उत्तर भारत में फिर से सांस लेना दूभर हो गया है। स्थिति ऐसी बिगड़ी कि कुछ समय के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को नोएडा क्षेत्र, तो दिल्ली सरकार को स्कूलों में 1-5 कक्षाओं

बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण उत्तर भारत में फिर से सांस लेना दूभर हो गया है। स्थिति ऐसी बिगड़ी कि कुछ समय के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को नोएडा क्षेत्र, तो दिल्ली सरकार को स्कूलों में 1-5 कक्षाओं को ऑफलाइन रूप से स्थगित करना पड़ा। इस दौरान राजनीति भी चरम पर रही। दिल्ली और पंजाब में सत्तारूढ़ दल आम आदमी पार्टी (आप) अपने विरोधियों के निशाने पर है। इसका एक स्वाभाविक कारण भी है। 

वर्तमान समय में जिस प्रकार देश के इस भाग में वातावरण दूषित हुआ है, उसमें किसानों (अधिकांश पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश से) द्वारा विवशतापूर्ण धान-पराली जलाने और उससे निकलने वाले संघनित धुएं की एक हिस्सेदारी 35.38 प्रतिशत है। इसमें पंजाब स्थित किसानों की कई वीडियो वायरल भी हैं। यह ठीक है कि पंजाब में ‘आप’ की सरकार को मात्र 6 माह हुए हैं, किंतु एक सच यह भी है कि उसके लिए पराली समस्या कोई नई नहीं है। जब वे पंजाब में विपक्षी दल थे, तो उसके शीर्ष नेता (मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सहित) तत्कालीन सरकारों को गरियाते हुए इस समस्या का उपाय बताते थकते नहीं थे। 

पराली की समस्या के उपचार हेतु दिल्ली स्थित पूसा इंस्टीच्यूट ने वर्ष 2020 में ‘बायो डी-कंपोजर’ बनाया था। वैब पोर्टल ‘न्यूज लॉन्ड्री’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, आर.टी.आई. से खुलासा हुआ है कि 2020-22 में दिल्ली सरकार ने ‘बायो डी-कंपोजर’ के छिड़काव पर कुल 68 लाख रुपए खर्च किए थे, तो इससे संबंधित जन-जागरूकता बढ़ाने के नाम पर 23 करोड़ रुपए विज्ञापनों पर फूंक दिए। अर्थात, केजरीवाल सरकार ने 2 वर्षों में उपाय की तुलना में उसके प्रचार पर 72 गुना अधिक खर्च कर दिया, जिससे मात्र 955 किसान लाभान्वित हुए। क्या इस प्रकार संसाधनों की बर्बादी से किसी भी समस्या का हल निकालना संभव है। 

उत्तर प्रदेश में क्या हो रहा है? यहां पराली जलाने की घटनाओं पर पूरी तरह से लगाम लगाने हेतु राज्य सरकार ने सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए हैं। इस संबंध में मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्रा ने सभी जिलों के जिलाधिकारियों को निर्देश भी जारी किए हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के अनुपालन में फसल अवशेष जलाने से हो रहे वायु प्रदूषण की रोकथाम करना अनिवार्य है। आलेख लिखे जाने तक, रामपुर में 55,000, फतेहपुर में 27,000 रुपए का जुर्माना लगाया जा चुका है। 

यक्ष प्रश्न यह भी है कि क्या एक दशक पहले तक पराली और प्रदूषण में कोई संबंध था? लगभग 13 वर्ष पूर्व, पंजाब और हरियाणा की तत्कालीन सरकारों ने ‘भूजल संरक्षण अधिनियम 2009’ नामक कानून लागू किया था। इसका उद्देश्य दोनों राज्यों में घट रहे भूजल के स्तर को ऊपर लाना था। इस अधिनियम के अंतर्गत सरकार किसानों को धान की बुवाई का समय बताती है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि किसान धान की कटाई 6-8 सप्ताह देरी से तब करने लगे, जब दिल्ली-एन.सी.आर. क्षेत्र में हवा की गति स्थिर रहती है और पराली का धुआं वायु में ठहर जाता है। 

क्या पराली का धुआं ही प्रदूषण बढ़ाता है? दिल्ली के गाजीपुर में 65 मीटर ऊंचा कूड़ा पहाड़ और उससे निकलने वाली मीथेन गैस भी वातावरण को दूषित और उसमें सम्मिलित प्लास्टिक भूजल को खराब कर रहा है। यह विडंबना ही है कि बीते दिनों जब दिल्ली स्थित यमुना नदी, जिससे अन्य नदियों की भांति करोड़ों ङ्क्षहदुओं की आस्था भी जुड़ी है, वह अमोनिया आदि रसायनों का स्तर बढऩे के कारण फिर से जहरीले झाग की परत से ढक गई। उसे प्रशासन ने और रसायनों का इस्तेमाल करके साफ किया था। क्या भारतीय सनातन संस्कृति में मां-तुल्य यमुना आदि नदियों के दूषित होने के लिए केवल सरकार-प्रशासन की अकर्मण्यता और लापरवाही को ही कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए, जैसा अक्सर होता है? क्या समाज के प्रति जनता की कोई जिम्मेदारी नहीं?  

अमरीका, यूरोपीय देशों सहित अधिकतर पश्चिमी देशों में प्लास्टिक आदि कचरा, सड़कों, नालियों, नदियों में फैंकने की शिकायत सुनने को मिलती है? शायद नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि वहां के नागरिक स्वच्छता के प्रति न केवल पूर्णत: जागरूक हैं, बल्कि राष्ट्र के प्रति अपने कत्र्तव्य को भली-भांति समझते भी हैं। इस पृष्ठभूमि में भारत की स्थिति क्या है? यह सच है कि स्थानीय नगर निगमों में बैठे अधिकांश अधिकारी-कर्मचारी अपने कदाचारों से कई प्रतिकूल स्थितियों को त्रासदीपूर्ण बना देते हैं, फिर भी कहीं प्रशासन सड़कों पर कूड़ेदान की समुचित व्यवस्था करता है, तो भी कचरा बाहर ही बिखरा मिलता है। इसका दोषी कौन है?

जनसंख्या का अत्यधिक दबाव संसाधनों के साथ वातावरण को भी दूषित करने में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से एक बड़ी भूमिका निभाता है। दिल्ली, जिसका कुल क्षेत्रफल 1500 वर्ग किलोमीटर है, वहां 2 करोड़ से अधिक लोग बसते हैं। यह आबादी 65,600 वर्ग किलोमीटर श्रीलंका के लगभग समकक्ष है। लुटियंस को छोड़कर दिल्ली में शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र होगा, जहां सड़क किनारे ‘पैदलपथ मार्ग सहित’ या फ्लाईओवर के नीचे अवैध अतिक्रमण के कारण पैदल यात्रियों और वाहनों को सुचारू रूप से चलने में कोई समस्या नहीं आती हो। इस स्थिति को वोटबैंक की संकीर्ण राजनीति ने और अधिक विकृत बना दिया है।

इस समय दिल्ली में 1.34 करोड़ से अधिक वाहन हैं, जिनमें से आधे से अधिक ‘सक्रिय’ माने जाते हैं। राजधानी में मोटर-वाहनों की यह संख्या अन्य सभी महानगरीय शहरों की तुलना में काफी अधिक है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, 17 अक्तूबर तक दिल्ली में 50 लाख से ज्यादा वाहनों का पंजीकरण रद्द कर दिया गया था,  इनमें से अधिकतर ऐसे वाहन हैं, जो 15 वर्ष से अधिक पुराने पैट्रोल और 10 साल पुराने डीजल इंजन से चलते थे।

यह कष्टदायी है कि स्वयं-भू पर्यावरणरक्षक उपरोक्त समस्याओं की बजाय केवल हिंदू तीज-त्यौहारों और परंपराओं (दीपावली-होली सहित) का दानवीकरण करते हैं। इसमें अक्सर कई विदेशी वित्तपोषित गैर-सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) वैचारिक-राजनीतिक कारणों से भारत-ङ्क्षहदू विरोधी एजैंडे को आगे बढ़ाते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने गोमांस को ‘जलवायु के लिए सबसे नुक्सानदेह’ बताया है। क्या भारत में इस संबंध में किसी स्वघोषित पर्यावरणविद् या एन.जी.ओ. ने मुखर आंदोलन चलाया, जैसा दीपावली आदि में होता है?-बलबीर पुंज (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।)

Related Story

    Trending Topics

    Afghanistan

    134/10

    20.0

    India

    181/8

    20.0

    India win by 47 runs

    RR 6.70
    img title
    img title

    Be on the top of everything happening around the world.

    Try Premium Service.

    Subscribe Now!