जम्मू-कश्मीर चुनाव : आखिर मुद्दा क्या है

Edited By ,Updated: 12 Sep, 2024 05:28 AM

jammu and kashmir elections what is the issue after all

जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव आगामी 18 सितंबर से लेकर एक अक्तूबर के बीच 3 चरणों में संपन्न होंगे।

जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव आगामी 18 सितंबर से लेकर एक अक्तूबर के बीच 3 चरणों में संपन्न होंगे। चुनाव का मुद्दा क्या है? क्या कश्मीर वर्ष 2019 से पहले के उस कालखंड में लौटे, जब क्षेत्र में सभी आर्थिक गतिविधियां बंद थीं, विकास कार्यों पर लगभग अघोषित प्रतिबंध था, सेना-पुलिस बलों पर लगातार पत्थरबाजी होती थी, गाहे-बगाहे अलगाववादियों द्वारा बंद बुला लिया जाता था और वातावरण ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ जैसे भारत विरोधी नारों से दूषित होता रहता था? या फिर इस केंद्र शासित प्रदेश में बीते 5 वर्षों की भांति वैसी विकास की धारा बहती रहे, जिसके कारण कश्मीर तुलनात्मक रूप से शांत है, देश के शेष हिस्सों की तरह संविधान-कानून का इकबाल है और बहुलतावादी संस्कृति के साथ समरसता से युक्त वातावरण है? 

यह प्रश्न इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि इस चुनाव में जम्मू-कश्मीर के बड़े क्षत्रप दल नैशनल कांफ्रेंस ने राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है, जिसका घोषणापत्र मतदाताओं से वादा करता है कि सत्ता में लौटने पर उस जहरीली धारा 370-35ए को भारतीय संविधान में बहाल करेंगे, जिसके सक्रिय रहते (अगस्त 2019 से पहले) पूरा सूबा अंधकार में था। पर्यटक आने से कतराते थे, सिनेमाघरों पर ताला लगा हुआ था, मजहब केंद्रित आतंकवाद, पाकिस्तान समॢथत अलगाववाद का वर्चस्व था और शेष देश की भांति दलित-वंचितों के साथ आदिवासियों को मिलने वाले संवैधानिक अधिकारों (आरक्षण सहित) पर डाका था। 

धारा 370-35ए के संवैधानिक परिमार्जन के बाद जम्मू-कश्मीर पिछले 5 वर्षों से गुलजार हो रहा है। तिरंगामयी हो चुके श्रीनगर स्थित लालचौक की रौनक देखते ही बनती है। पर्यटकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 3 दशक से अधिक के लंबे फासले के बाद नए-पुराने सिनेमाघर संचालित हो रहे हैं। देर रात तक लोग प्रसिद्ध शिकारा की सवारी का आनंद ले रहे हैं। स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालय भी सुचारू रूप से चल रहे हैं। दुकानें भी लंबे समय तक खुली रहती हैं। स्थानीय लोगों का जीवनस्तर सुधर रहा है। जिहादी दंश झेलने के बाद वर्षों पहले घाटी छोड़कर गए कश्मीरी पंडित धीरे-धीरे लौटने लगे हैं। बदली परिस्थिति में जी-20 सम्मेलन हो चुका है, तो फिल्म निर्माता-निर्देशक घाटी की ओर फिर से आकॢषत होने लगे हैं।

जम्मू-कश्मीर की नई औद्योगिक नीति के अंतर्गत, देश-विदेश से लगभग सवा लाख करोड़ रुपए के निवेश प्रस्ताव आ चुके हैं, जिससे प्रदेश में 4.69 लाख रोजगार पैदा होने का अनुमान है। यहां तक, गत वर्ष कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी श्रीनगर में तिरंगे के साथ अपनी महत्वाकांक्षी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का समापन कर चुके हैं। अगस्त 2019 से पहले क्या स्थिति थी, यह पूर्व केंद्र्रीय गृहमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार शिंदे के हालिया वक्तव्य से स्पष्ट है। 

जम्मू-कश्मीर का एक वर्ग पाकिस्तानी मानसिकता से ग्रस्त है। चूंकि पाकिस्तान किसी देश का नाम न होकर स्वयं में एक विचारधारा है और ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरणा पाता है, इसलिए घाटी के कुछ नेता इसी चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हुए क्षेत्र को पुराने, मजहबी, अराजकवादी और मध्यकालीन दौर में लौटाना चाहते हैं। नैशनल कांफ्रैंस और पी.डी.पी. भी घाटी में इसी विभाजनकारी मानस के प्रमुख झंडाबरदार हैं।

जातिगत जनगणना की हिमायती कांग्रेस का गठबंधन उसी नैशनल कांफ्रैंस के साथ है, जिसने अपने चुनावी घोषणापत्र में जम्मू-कश्मीर में सभी आरक्षणों की ‘समीक्षा’ करने की भी बात कही है। यह वादा क्षेत्र में वाल्मिकी-आदिवासी समाज के साथ मुस्लिम गुज्जर और बकरवालों के अधिकारों पर कुठाराघात करता है। यही नहीं, नैशनल कांफ्रैंस फिर से अलगाववाद से प्रेरित ‘स्वायत्तता’ की बात कर रहा है। उनके घोषणापत्र में उन कैदियों को रिहा करने का वायदा किया गया है, जो आतंकवादी और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों के शामिल होने के कारण जेल में बंद है। साथ ही उसमें श्रीनगर के प्रसिद्ध शंकराचार्य पर्वत को ‘तख्त-ए-सुलेमान’ और हरि पर्वत किले को ‘कोह-ए-मरान’ के रूप में संदर्भित किया गया है। 

जम्मू-कश्मीर में प्रमुख क्षत्रपों के अतिरिक्त सज्जाद लोन की ‘पीपुल्स कांफ्रैंस’ और अल्ताफ बुखारी की ‘जेके अपनी पार्टी’ के साथ अलगाववादी शेख अब्दुल रशीद (रशीद इंजीनियर) की ‘अवामी इत्तेहाद पार्टी’ भी चुनावी मैदान में है। जब से राशिद इंजीनियर ने इस वर्ष बारामूला की लोकसभा सीट से नैशनल कांफ्रैंस के शीर्ष नेता और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को बुरी तरह परास्त किया है, तब से आशंका जताई जा रही है कि राशिद एक प्रभावशाली ताकत बनकर उभर सकते हैं, जो क्षेत्र के साथ शेष देश के लिए चिंता का विषय हो सकता है। 

लोकसभा चुनाव में उमर की करारी हार ने घाटी में अधिकांश सीटें जीतकर वापसी की उम्मीद कर रही नैशनल कांफ्रैंस की स्थिति को धुंधला किया है। इसी हताशा और अवसरवाद की खोज में नैशनल कांफ्रैंस ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया है, जो गुलाम नबी आजाद द्वारा अगस्त 2022 में पार्टी छोडऩे के बाद लगभग कमजोर हो चुकी है। अब्दुल्ला-मुफ्ती परिवारों का दोहरा मापदंड किसी से छिपा नहीं है। यह लोग जब दिल्ली में होते हैं, तब ‘सैकुलरवाद’, एकता, शांति, भाईचारे की बात करते हुए एकाएक भावुक हो जाते हैं। किंतु घाटी लौटते ही उनके भाषणों/वक्तव्यों में भारतीय एकता-अखंडता के प्रति घृणा, बहुलतावाद और लोकंतत्र विरोधी इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए सहानुभूति दिखती है।

यह कहना तो कठिन है कि घाटी की जनता किस ओर जाएगी। इसका खुलासा 8 अक्तूबर को ई.वी.एम. आधारित मतगणना के बाद हो जाएगा। परंतु इतना स्पष्ट कहा जा सकता है कि यदि प्रदेश को इसी तरह विकास के पथ पर चलना है और अलगाववादी-सांप्रदायिक-अराजक तत्वों से छुटकारा पाना है, तो उन्हें संकीर्ण और मध्यकालीन मजहबी मानसिकता से ऊपर उठकर सोचना होगा। -बलबीर पुंज

Trending Topics

Afghanistan

134/10

20.0

India

181/8

20.0

India win by 47 runs

RR 6.70
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!