Edited By ,Updated: 28 Aug, 2024 05:24 AM
जम्मू -कश्मीर विधानसभा चुनाव में राजनीतिक समीकरण निश्चित हो चुके हैं। भाजपा ज्यादातर सीटों पर अकेले लड़ रही है तो कांग्रेस और नैशनल कांफ्रैंस के बीच 85 सीटों पर समझौता हो चुका है। महबूबा मुफ्ती की पी.डी.पी. अकेले मैदान में है। भाजपा के लिए...
जम्मू -कश्मीर विधानसभा चुनाव में राजनीतिक समीकरण निश्चित हो चुके हैं। भाजपा ज्यादातर सीटों पर अकेले लड़ रही है तो कांग्रेस और नैशनल कांफ्रैंस के बीच 85 सीटों पर समझौता हो चुका है। महबूबा मुफ्ती की पी.डी.पी. अकेले मैदान में है। भाजपा के लिए उम्मीदवारों की घोषणा के बाद जारी हंगामा चिंता का कारण होना चाहिए। लेकिन जम्मू-कश्मीर का वर्तमान विधानसभा चुनाव केवल दलीय राजनीति तक सीमित नहीं है। पड़ोसी पाकिस्तान तथा चीन के साथ अनेक देशों और उनमें सक्रिय कई संगठन नहीं चाहेंगे कि जम्मू-कश्मीर में भारत निष्पक्ष, शांतिपूर्ण और सफल चुनाव संचालन कर पाए। जम्मू क्षेत्र में बढ़ रही आतंकवादी घटनाएं इसका प्रमाण हैं कि हमारा पड़ोसी लोकसभा चुनाव के पूर्व से ही परेशान है। लोकसभा चुनाव में भारी मतदान इस बात का प्रमाण था कि अनुच्छेद 370 हटाने के बाद लोगों में सुरक्षा को लेकर भय काफी हद तक खत्म हुआ है। उम्मीद है विधानसभा चुनाव में भी यही स्थिति कायम रहेगी।
विधानसभा चुनाव की तस्वीर इससे अलग नहीं होगी। कुल सीटें 90 हैं, जिनमें जम्मू की 37 से 43 तथा कश्मीर की 46 से 47 हो चुकी हैं। पहली बार अनुसूचित जनजाति के लिए 7 सीटें आरक्षित हुई हैं तथा 5 का नामांकन किया जाएगा। तो विधानसभा के अंकगणित और संरचना की दृष्टि से यह बहुत बड़ा बदलाव है। बदले हुए वातावरण और सुरक्षा की वर्तमान स्थिति में अब देश विरोधियों के लिए पूर्व चुनावों की तरह बाधित करना या लोगों को डराकर घर में सिमटा देना संभव नहीं। पिछले 5 वर्षों में जम्मू-कश्मीर में हुए आमूल बदलाव और उसके प्रभाव कम महत्व के नहीं हैं। कोई सोच नहीं सकता था कि लाल चौक पर 15 अगस्त और 26 जनवरी को इतने शानदार और खुले कार्यक्रम होंगे। यह भी कल्पना करना मुश्किल था कि विद्यालय समय से खुलेंगे, बंद होंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि लंबे समय से पैदा किया गया मजहब के नाम पर अलगाववाद या भारत से नफरत और विरोध का भाव पूरी तरह खत्म हो गया है। किंतु बदले माहौल में इनके लिए संगठित होकर पहले की तरह काम करना संभव नहीं है।
सबके परिवार हैं, बच्चों का भविष्य है और बदले वातावरण तथा आर्थिक विकास, सुविधाओं एवं जन कल्याणकारी कार्यक्रमों के नीचे पहुंचने का लाभ उन्हें भी मिल रहा है। इसमें आम लोग सोचते हैं कि हम इसे क्यों गंवाएं। जिन्होंने सरकारें चलाईं और जिनकी नीतियों से अलगाववाद-आतंकवाद- हिंसा बढ़ी, लोगों को घरों में दुबकना पड़ा, गैर मुसलमानों को घाटी छोड़कर बाहर जाना पड़ा, वे भी आज लोकतंत्र और जन अधिकारों की बात करने लगे हैं। अनुच्छेद 370 हटाने से पहले जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार कानून लागू ही नहीं था। क्या मानवाधिकार की बात करने वाले इसकी चर्चा करते हैं? सूचना का अधिकार और बच्चों के शिक्षा का अधिकार कानून भी वहां लागू नहीं था।
चुनाव इन सबके प्रभावों से अछूते रहें यह संभव नहीं। पूरे प्रदेश में खासकर घाटी में छोटी-बड़ी नई पाॢटयों और नए नेताओं का उभरना इसी बदले राजनीतिक वातावरण और आधारभूमि की परिणति है। यह अलग बात है कि अभी भी लंबे समय से स्थापित पाॢटयों, जैसे नैकां का आधिपत्य दिखता है और खिसकते जनाधार के बावजूद पी.डी.पी. की भी कुछ जगह है। कारण, उनके पास राजनीति करने के व्यापक संसाधन हैं, जो दूसरों को उपलब्ध नहीं हैं। नैशनल कांफ्रैंस, पी.डी.पी. सहित कश्मीर की ज्यादातर प्रमुख पार्टियां जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का लगातार विरोध करती रही हैं और लोकसभा चुनाव में भी यह मुद्दा था। इस चुनाव में नैशनल कांफ्रैंस ने अपने घोषणा पत्र में कहा है कि वह जम्मू-कश्मीर में 1953 के पूर्व की स्थिति लाएगी। 370 और 35ए की वापसी की बात तो है ही।
जम्मू कश्मीर अपनी पार्टी ने भी यही घोषणा की है। नैशनल कांफ्रैंस ने अपने घोषणा पत्र में शंकराचार्य पर्वत को तख्त-ए-सुलिमान’ और हरि पर्वत ‘कोह-ए-मारन’ कहा है। यह कट्टर मजहबी मानसिकता का परिचायक है, जो कश्मीर के लोगों का मजहब के आधार पर ध्रुवीकरण करने के लिए लाया गया है। यह महबूबा मुफ्ती का पुराना एजैंडा है। कांग्रेस ने नैशनल कांफ्रैंस के साथ समझौता किया है तो उससे पूछा ही जाएगा कि इन पर उसका स्टैंड क्या है। धारा 370 हटाने के बाद कांग्रेस का घोषित स्टैंड यही था कि सत्ता में आने के बाद वह इसे फिर से बहाल करेगी। उच्चतम न्यायालय द्वारा धारा 370 हटाने को सही और संवैधानिक मानने के बाद पार्टी की ओर से कहा गया कि अब जो हो गया उसे वह स्वीकार करती है। किंतु राहुल गांधी जिस तरह इस समय उग्र वाम सोच को प्रकट कर रहे हैं, उसमें वह क्या स्टैंड लेंगे कहना कठिन है।
साफ है कि वहां की प्रमुख पार्टियां अभी तक पुरानी मानसिकता से नहीं निकलीं और वे चुनाव में ज्यादा से ज्यादा मजहब के आधार पर अलगाववादी भावनाएं, भारत से अलग और विशिष्ट कश्मीर और कश्मीरियों को दिखाने तथा भारतीय संविधान में उसके अलग हैसियत का प्रचार कर राजनीतिक वातावरण को पीछे ले जाने की कोशिश कर रहीं हैं। इसका वातावरण पर बड़ा असर पड़ेगा। चुनाव परिणाम जो भी हों, जम्मू-कश्मीर के सम्पूर्ण विलय और भारत की एकता-अखंडता में विश्वास करने वालों को इस नरेटिव के विरुद्ध सक्रिय रहने की आवश्यकता है।-अवधेश कुमार