Edited By ,Updated: 31 Mar, 2025 05:12 AM

भारत के इतिहास में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस रामस्वामी पर अनैतिक आचरण के चलते 1993 में संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था। पर कांग्रेस पार्टी ने मतदान के पहले लोकसभा से बहिर्गमन करके उन्हें बचा लिया। 1997 में मैंने भारत के तत्कालीन...
भारत के इतिहास में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस रामस्वामी पर अनैतिक आचरण के चलते 1993 में संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था। पर कांग्रेस पार्टी ने मतदान के पहले लोकसभा से बहिर्गमन करके उन्हें बचा लिया। 1997 में मैंने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. वर्मा के अनैतिक आचरण को उजागर किया तो सर्वोच्च अदालत,संसद व मीडिया में तूफान खड़ा हो गया था। पर अंतत: उन्हें भी सजा के बदले तत्कालीन सत्ता व विपक्ष दोनों का संरक्षण मिला।
2000 में एक बार फिर मैंने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डा. ए.एस. आनंद के 6 जमीन घोटाले उजागर किए तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह मामला चर्चा में रहा व तत्कालीन कानून मंत्री राम जेठमलानी की कुर्सी चली गई। पर तत्कालीन भाजपा सरकार ने विपक्ष के सहयोग से उन्हें सजा देने के बदले भारत के मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बना दिया। इसलिए मौजूदा विवाद जिसमें जस्टिस यशवंत वर्मा के घर जले नोटों के बोरे मिले, कोई चौंकाने वाली घटना नहीं है। न्यायपालिका को देश के लोकतांत्रिक ढांचे का आधार माना जाता है, जो संविधान की रक्षा और कानून के शासन को सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है।
सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालयों की एकीकृत प्रणाली के साथ यह संस्था स्वतंत्रता और निष्पक्षता के सिद्धांतों पर खड़ी है। दुर्भाग्य से हाल के दशकों में न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के बढ़ते आरोपों ने इसकी साख पर सवाल उठाए हैं। किसी न्यायाधीश के घर पर बड़ी मात्रा में नकदी मिलना एक गंभीर मुद्दा है। ऐसी घटनाओं से न सिर्फ न्यायपालिका पर कई सवाल उठते हैं बल्कि न्याय की आशा रखने वाली आम जनता का न्यायपालिका से विश्वास भी उठने लगता है।
भारत की न्यायपालिका का आधार संविधान में निहित है। अनुच्छेद 124 से 147 सर्वोच्च न्यायालय को शक्तियां प्रदान करते हैं, जबकि अनुच्छेद 214 से 231 उच्च न्यायालयों को परिभाषित करते हैं। यह प्रणाली औपनिवेशिक काल से विकसित हुई है, जब ब्रिटिश शासन ने आम कानून प्रणाली की नींव रखी थी। स्वतंत्रता के बाद, न्यायपालिका ने संवैधानिक व्याख्या, मूल अधिकारों की रक्षा और जनहित याचिकाओं के माध्यम से अपनी प्रगतिशील भूमिका निभाई है। 1973 के केशवानंद भारती मामले में मूल संरचना सिद्धांत और 2018 के समलैंगिकता की अपराधमुक्ति जैसे फैसले इसकी उपलब्धियों के उदाहरण हैं।
हालांकि न्यायपालिका की छवि आमतौर पर सम्मानजनक रही है, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप इसकी विश्वसनीयता को चुनौती दे रहे हैं। 2010 में कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगे, जिसके बाद उन पर महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हुई। यह स्वतंत्र भारत में पहला ऐसा मामला था। हाल के वर्षों में कुछ निचली अदालतों के न्यायाधीशों के घरों से असामान्य मात्रा में नकदी बरामद होने की खबरें सामने आई हैं। 2022 में एक जिला जज के यहां छापेमारी में लाखों रुपए मिले, जिसने भ्रष्टाचार के संदेह को बढ़ाया।
2017 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तक को एक याचिका में शामिल किया गया जिसमें मैडीकल कालेजों को अनुमति देने में कथित रिश्वतखोरी का आरोप था। हालांकि ये आरोप सिद्ध नहीं हुए, लेकिन इसने संस्थान की छवि को काफी हद तक प्रभावित किया। कई मामलों में वकील और कोर्ट स्टाफ पर पक्षपातपूर्ण फैसलों के लिए पैसे लेने के आरोप भी लगे हैं, जिससे यह संदेह पैदा होता है कि क्या न्यायाधीश भी इसमें शामिल हो सकते हैं। ये घटनाएं अपवाद हो सकती हैं लेकिन इनका प्रभाव व्यापक है। भ्रष्टाचार के ये आरोप न केवल जनता के भरोसे को कम करते हैं बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता पर भी सवाल उठाते हैं।
न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ-साथ कई अन्य चुनौतियां भी हैं जो भारत की न्यायपालिका की वर्तमान स्थिति को परिभाषित करती हैं। आंकड़ों की मानें तो मार्च 2025 तक देश भर में 4.7 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। सर्वोच्च न्यायालय में 80,000 से अधिक और उच्च न्यायालयों में 60 लाख से अधिक मामले विचाराधीन हैं। कालेजियम प्रणाली जो न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए जिम्मेदार है, पर अपारदॢशता और भाई-भतीजावाद के आरोप लगते रहे हैं। 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को असंवैधानिक ठहराने के बाद भी इस मुद्दे पर बहस जारी है। इतना ही नहीं न्यायिक जवाबदेही की कमी भी एक गंभीर मुद्दा है क्योंकि न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया जटिल है और महाभियोग दुर्लभ है। इसके अलावा, आंतरिक अनुशासन तंत्र कमजोर है जिससे भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पाता।
देखा जाए तो बड़ी संख्या में ग्रामीण और गरीब आबादी को कानूनी सहायता और जागरूकता की कमी का सामना करना पड़ता है। यह असमानता भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है। भारत की न्यायपालिका एक शक्तिशाली संस्था है जो देश के लोकतंत्र को संभाले हुए है। लेकिन न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप और संरचनात्मक कमियां इसकी विश्वसनीयता को कमजोर कर रही हैं। समय की मांग है कि न्यायपालिका अपनी आंतरिक कमियों को दूर करे और जनता का भरोसा फिर से हासिल करे, ताकि यह संविधान के ‘न्याय, समानता और स्वतंत्रता’ वाले वायदे को साकार कर सके।-विनीत नारायण