Edited By ,Updated: 23 Apr, 2025 05:37 AM
शेक्सपीयर ने रोमियो और जूलियट में कहा है कि गुलाब को चाहे किसी भी नाम से पुकारो, वह सुगंध ही देगा। यह उक्ति आज भारत में भाषा को लेकर चल रहे विवाद को रेखांकित करती है। यह भाषा विवाद हिन्दी बनाम तमिल बनाम उर्दू बनाम मराठी आदि को लेकर है और यह एक...
शेक्सपीयर ने रोमियो और जूलियट में कहा है कि गुलाब को चाहे किसी भी नाम से पुकारो, वह सुगंध ही देगा। यह उक्ति आज भारत में भाषा को लेकर चल रहे विवाद को रेखांकित करती है। यह भाषा विवाद हिन्दी बनाम तमिल बनाम उर्दू बनाम मराठी आदि को लेकर है और यह एक राजनीतिक विवाद है। दशकों से तमिलनाडु में हिन्दी को थोपने को लेकर जो तू-तू, मैं-मैं चल रही है, वह पुन: उभर आई है, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी की केन्द्र सरकार तमिलनाडु की द्रमुक सरकार के साथ टकराव पर है।
तमिलनाडु सरकार ने केन्द्र पर आरोप लगाया है कि वह स्कूलों में हिन्दी थोपने का प्रयास कर रही है, जिसका केन्द्र ने खंडन किया है। इसके साथ ही राजग सरकार पर यह आरोप भी लगाया गया है कि वह राष्ट्रीय शिक्षा नीति का इस्तेमाल कर राज्यों को शिक्षा के लिए धन देने से वंचित कर रही है जो हिन्दी को बढ़ावा देने का एक बहाना है क्योंकि राज्य ने त्रिभाषा फार्मूले को स्वीकार करने से इंकार कर दिया है। प्रश्न उठता है कि इसमें टकराव किस बात को लेकर है? क्या मोदी सरकार तमिल बच्चों को हिन्दी सीखने के लिए बाध्य कर रही है? तमिलनाडु और महाराष्ट्र में हिन्दी इतनी विभाजनकारी क्यों है? वे उर्दू के विरुद्ध क्यों हैं? संक्षेप में कहें तो यह विवाद नई शिक्षा नीति को लेकर है, जिसे पहली बार 1968 में शुरू किया गया था और 2020 में इसमें संशोधन किया गया। मूल नीति में त्रिभाषा सूत्र का प्रावधान था, जिसके अंतर्गत उत्तर भारत में स्कूलों में हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी, अंग्रेजी के अलावा एक-एक तीसरी भाषा को, प्रमुखत: दक्षिण भारत से हो, उसको पढ़ाया जाना चाहिए और गैर हिन्दी भाषी राज्यों में स्थानीय भाषा और हिन्दी तथा अंग्रेजी को पढ़ाया जाना चाहिए।
त्रिभाषा सूत्र का मूल उद्देश्य हिन्दी को एक संपर्क भाषा के रूप में बढ़ावा देना था। वह भी एक ऐसे देश में, जिसमें सर्वाधिक भाषाएं बोली जाती हैं। हिन्दी भाषा बोलने वाले सर्वाधिक 52 करोड़ यानी 72 प्रतिशत लोग हैं। तमिल 5वें स्थान पर है। महाराष्ट्र में भी यही स्थिति है, जहां भाषा एक संवेदनशील मुद्दा बनी हुई है। विपक्षी कांग्रेस और ठाकरे की शिव सेना ने केन्द्र के त्रिभाषा फार्मूले का कड़ा विरोध किया। वे तमिलनाडु के उदाहरण को उद्धृत करते हुए मराठी फस्र्ट को अपनाना चाहते हैं। उनका कहना है कि महाराष्ट्र का गठन 1960 में महाराष्ट्र संघर्ष समिति द्वारा आंदोलन के बाद हुआ और इस संघर्ष समिति की मांग थी कि स्थानीय मराठी भाषी लोगों के लिए एक राज्य का निर्माण किया जाए। महाराष्ट्र स्वयं को विभिन्न संस्कृतियों और राज्यों के सह अस्तित्व का केन्द्र मानता रहा है, किंतु वास्तविकता अलग है। यहां पर सह अस्तित्व की भावना में मराठी और गैर-मराठी प्रवासी लोगों के बीच हमेशा टकराव होता रहा है। इसके अलावा संसाधनों और रोजगार के लिए प्रतिस्पर्धा के चलते हितों का संतुलन बिगड़ता रहा।
इसके अलावा 1953 में तेलुगु भाषी लोगों के आंदोलन के बाद तमिलनाडु से अलग एक आंध्र प्रदेश राज्य का निर्माण किया गया और उसके बाद भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की प्रक्रिया शुरू की गई, राज्यों की सीमाएं पुन: निर्धारित की गईं और यह अधिकतर भाषायी आधार पर किया गया। तमिलनाडु के अलावा अनेक अन्य राज्यों ने 1968 की शिक्षा नीति के अंतर्गत हिन्दी के अनिवार्य शिक्षण का विरोध किया किंतु केवल तमिलनाडू ने राष्ट्रीय आदेश का पालन नहीं किया। उसने तमिल तथा अंग्रेजी द्विभाषा फार्मूला अपनाया।
आज उर्दू को लेकर भी विवाद पैदा हो रहा है। उच्चतम न्यायालय ने नगर निगम के भवनों पर उर्दू में साइन बोर्ड के उपयोग को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि क्या यह राजभाषा मराठी का उल्लंघन करती है। उर्दू के विरुद्ध भेदभाव इस अवधारणा से पैदा होता है कि यह भारत की भाषा नहीं है, परंतु यह गलत है। हिन्दी और मराठी की तरह उर्दू भी इंडो-आर्यन भाषा है और इस भाषा का जन्म भी इसी भूमि में हुआ है। न्यायालय का यह निर्देश भाषाई विविधता के संवैधानिक अधिकार पर प्रकाश डालता है, अपितु यह इस बात पर भी बल देता है कि भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत में उर्दू की भी अभिन्न भूमिका है। आलोचकों का कहना है कि हमारी राजनीति में भाषा हमेशा एक विवाद का विषय रही है और इसने अक्सर हमारे संघवाद का स्वरूप निर्धारित किया है। यही नहीं, भाषा एक सत्ता का खेल रहा है। यह आपके नियमों और भाषा को थोपने का खेल रहा है। यह संवाद का विषय नहीं है। यदि आप किसी भाषा को नहीं जानते तो आप कम शक्तिशाली हैं।
उल्लेखनीय है कि त्रिभाषा सूत्र को बच्चों की शिक्षा को ध्यान में रखकर नहीं अपनाया गया अपितु उन लोगों को ध्यान में रखकर अपनाया गया जो हिन्दी को थोपने को स्वीकार नहीं कर रहे थे। केन्द्र उत्तर-पूर्वी राज्यों में 300 हिन्दी अध्यापक भेजने की योजना बना रहा है, जहां पर हिन्दी आम भाषा नहीं है। कुछ अन्य लोग तर्क देते हैं कि सभी मान्यता प्राप्त भाषाओं को समान माना जाना चाहिए और किसी भी एक भाषा को राजभाषा या राष्ट्रीय भाषा के रूप में नहीं थोपा जाना चाहिए। किंतु वास्तविकता यह है कि अधिकतर गैर-हिन्दी भाषी राज्य हिन्दी पढ़ाते हैं और अधिकतर हिन्दी भाषी राज्य संस्कृत को तीसरी भाषा के रूप में चुनते हैं, जिसका अब दैनिक इस्तेमाल नहीं होता।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत हिन्दी के बारे में इतना हो-हल्ला क्यों हो रहा है? हिन्दी गैर-हिन्दी राज्यों के लिए एक वैकल्पिक तीसरी भाषा है। यह अनिवार्य भाषा नहीं है। सरकार ने इस बात पर बल दिया है कि वह गैर-हिन्दी भाषाओं के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रही है। तमिल जैसी क्षेत्रीय भाषाओं का इस्तेमाल केन्द्रीय प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाओं में हो रहा है। हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि भाषा धर्म नहीं है और यह धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करती। भाषा समुदायों, लोगों आदि से संबंधित है। भाषा के आधार पर विभाजन करने की बजाय हमें सभी भाषाओं के लोगों और संस्कृतियों को जोडऩे के रूप में देखना चाहिए। जैसा कि एक हिन्दी कवि ने कहा है, मझधार में नैया डोले तो माझी पार लगाए, माझी जो नाव डुबोए तो उसे कौन बचाए।
एक ही भाषा का पक्ष लेना एक गलत विचार है और यह भारत के राजनीतिक और संवैधानिक इतिहास के विरुद्ध है। सबसे बड़ी चुनौती राष्ट्र-राज्य की एकात्मक मांग के साथ भाषायी उपराष्ट्रीयता के बीच संतुलन बनाना है। संघीय व्यवस्था में दोनों का अस्तित्व बना रह सकता है। इस मुद्दे पर समय-समय पर पैदा हो रहे विवाद और तनाव को संवाद के माध्यम से संविधान में वर्णित सिद्धान्तों के आधार पर हल किया जाना चाहिए।-पूनम आई. कौशिश