Edited By ,Updated: 12 Mar, 2025 05:22 AM

कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि गुलमर्ग के एक सुरम्य रिजॉर्ट में स्कीवीयर की प्रदर्शनी का एक निजी कार्यक्रम राजनीतिक तूफान खड़ा कर देगा, किंतु ऐसा हुआ। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में नैशनल कांफ्रैंस और पी.डी.पी. के विधायकों ने इसे रमजान के दौरान अश्लील...
कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि गुलमर्ग के एक सुरम्य रिजॉर्ट में स्कीवीयर की प्रदर्शनी का एक निजी कार्यक्रम राजनीतिक तूफान खड़ा कर देगा, किंतु ऐसा हुआ। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में नैशनल कांफ्रैंस और पी.डी.पी. के विधायकों ने इसे रमजान के दौरान अश्लील और भड़काऊ कहकर इसकी निंदा की। हुर्रियत ने इसकी आलोचना कश्मीर के नैतिक मूल्यों को नष्ट करने का कार्यक्रम बताकर की और यहां तक कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इसकी जांच के आदेश दिए तो भाजपा ने इसे यह कहकर खारिज किया कि पुरातनपंथी विचारों को भड़काया जा रहा है। सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों के संबंध में विविध विचारों को स्वीकार किया जाना चाहिए।
राजनीतिक दृष्टि से इस कार्यक्रम के बारे में यह हल्ला-गुल्ला मुस्लिम बहुल राज्य में बहुसंख्यकवाद द्वारा अपनी शक्ति का प्रदर्शन है और वे इस अश्लीलता को युवा मनों को विकृत करने के लिए एक आक्रामक औजार के रूप में देख रहे हैं और इस तरह राजनेता आम आदमी की भावनाओं का दोहन करने में व्यस्त हैं। यह उन्हीं हिन्दू कट्टरवादियों की तरह है, जिन्होंने सोशल मीडिया पर काली माता को सिगरेट पीते हुए दिखाने पर धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए एक फिल्म निर्माता की या हिन्दू देवी को गलत ढंग से प्रस्तुत करने पर प्रसिद्ध चित्रकार हुसैन की गिरफ्तारी की मांग की थी। इसमें दोषी कौन है? हमारे नेता गत वर्षों में समाज में जहर घोलने के लिए अनुचित भाषा का इस्तेमाल करने में सिद्धहस्त हो गए हैं।
राजनीति धु्रवीकरण, तुष्टीकरण और कट्टरवाद की संकीर्ण गलियों तक सीमित हो गई है और इसके चलते हिन्दू और मुसलमानों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर सांप्रदायिक मतभेद बढ़ाए जा रहे हैं। कोई परवाह नहीं करता है कि यह सांप्रदायिकता के बीज बोकर विनाश की ओर ले जा रहा है और राष्ट्र इसमें उलझता जा रहा है। विद्वेषपूर्ण आरोपों से क्या प्राप्त होता है? कुछ भी नहीं। केवल आम आदमी निशाना बनता है। विवाद और मतभेद पैदा करने से कुछ प्राप्त नहीं होता।
राजनेताओं, कार्यकत्र्ताओं और बुद्धिजीवियों का दावा है कि भारत विसंगतियों का मंच बन रहा है, जिससे यह स्वघोषित उग्र राष्ट्रवाद के शिकंजे में आ गया है, जहां पर आलोचक और बुद्धिजीवी आसान निशाना बन जाते हैं और बहस, वाद-विवाद तथा विवेकपूर्ण निर्णयों का स्थान अविवेकपूर्ण प्रतिक्रिया लेने लगी है।
प्रत्येक ट्वीट, हास-परिहास को गलत समझा जाता है और इससे सार्वजनिक बहस दंतविहीन बन जाती है तथा यह हमारे गणतंत्र के मूल्यों तथा आधारभूत सिद्धान्तों के विपरीत है। पुरातनपंथी वाद-विवाद बढ़ते जा रहे हैं और यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा व्यक्तिगत पसंद बनाम असहिष्णुता के संबंध में एक खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्ति को जन्म दे रहा है, जो इसी तरह निर्बाध बढ़ती रही तो समाज खतरनाक रूप से कट्टरपंथी और खंडित हो जाएगा। निश्चित रूप से प्रत्येक समुदाय में ऐसे लोग हैं जो हर समय समस्या पैदा करना चाहते हैं, किंतु सभी धर्मों में इस तरह के अविवेकपूर्ण लोग हमारे जीवन को कठिन बना रहे हैं और वे हमें हमारे ज्वलंत मुद्दों महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी आदि पर विचार करने का अवसर नहीं दे रहे।
सरकार को संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और विविध मतों और धर्मावलंबियों के लिए समानता सुनिश्चित करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विविधता का पूर्ण सम्मान किया जाए। साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि भारत में प्रत्येक नागरिक को कुछ बुनियादी अधिकार प्राप्त हैं और जब विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात आती है तो इन्हें हमारे संवैधानिक व्यवस्था में सर्वोच्च महत्व दिया गया है। यदि हम भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं दे सकते तो हमारा लोकतंत्र आगे नहीं बढ़ सकता।
यह सच है कि अनुच्छेद 19 में वस्त्र पहनने की स्वतंत्रता का स्पष्ट उल्लेख नहीं है किंतु अभिव्यक्ति में वस्त्र पहनने का अधिकार भी समाहित है क्योंकि वस्त्र भी एक प्रकार की अभिव्यक्ति है। तथापि यह अधिकार परम नहीं है और यह उचित प्रतिबंधों के अध्याधीन है। कोई व्यक्ति क्या पहने, जब तक यह लोक लाज के विरुद्ध न हो। स्पष्ट है कि प्रतिस्पर्धी लोकतंत्र के वातावरण में धर्म के आधार पर राजनीति से मतदाताओं के धु्रवीकरण के आसार बढ़ जाते हैं। इसलिए समय आ गया है कि हम सांप्रदायिकता के बीज बोने से बचें। जिस धार्मिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है वह खतरनाक है। समय आ गया है कि हमारे राजनेता अपने कार्यों के प्रभावों को समझें क्योंकि इससे लोग पंथ और धर्म के आधार पर विभाजित होंगे और एक तरह से एक दैत्य पैदा होगा।
धर्म को राजनीति से अलग करना होगा तथा विभाजनकारी राजनीति पर प्रतिबंध लगाने के बारे में विचार करना होगा। यह बात समझनी होगी कि विभिन्न समुदायों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर वे केवल अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति कर रहे हैं। संवैधानिक प्राधिकारियों से विवेक और संयम की अपेक्षा की जाती है। उद्देश्य राजनीतिक चर्चा का स्तर उठाने का होना चाहिए न कि उसे गिराने का। जब हमारे राजनेता लागत लाभ का विश्लेषण करें तो उन्हें इस सरल से प्रश्न का उत्तर देना होगा कि क्या उनकी सांप्रदायिक वोट बैंक की राजनीति इस योग्य है कि देश की जनता उसकी कीमत चुकाए? इसके लिए कौन दोषी है? कुल मिलाकर, हमारे नेताओं को समझना होगा कि राष्ट्र पहले दिलों और मनों का मिलन है और उसके बाद यह एक राजनीतिक इकाई है। हमें इसे राजनीतिक प्रचार के साधन के रूप में केवल एक फैशन शो नहीं बनाना चाहिए। हमारे नेताओं को लागत-लाभ का विश्लेषण करना चाहिए और धार्मिक भावनाओं को राजनीतिक लाभ में बदलने से बचना चाहिए।-पूनम आई. कौशिश